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शोक दिवस

  • kewal sethi
  • Feb 10
  • 3 min read

शोक दिवस

 

 यह बात तब की हे जब मेरा दफतर घर से बहुत दूर था और उस पर मुसीबत यह कि कोई सीधी बस भी वहां तक नहीं जाती थी.  इसलिए कनॉट प्लेस तक साइकिल से जाना पड़ता था.  वहां पर साइकिल साइकिल स्टैंड पर रखनी पड़ती और 24 नंबर की बस लेकर दफ्तर के लिए रवाना होना होता था.  और यह 24 नंबर की बस भी ऐसी कि कुछ तो दफ्तर से आगे तक जाती थी और कुछ लाजपत नगर में ही खत्म हो जाती थी.  सर्विस भी बीस बीस मिनट की थी इसलिए बिल्कुल समय पर ही पहुंचना होता था।

 

तो एक दिन का किस्सा है कि सुबह चले 8:30 बजे और 9:45 बजे तक दफ्तर पहुंच गए। वैसे तो दफतर 10:00 बजे लगता था लेकिन बस तो पहले ही पहुंचा देती थी इसलिए 15 मिनट अलग से मिल जाते थे जिसमें अपनी सुस्ती, जो थी ही नहीं, दूर कर सकते थे।

 

उस दिन क्या हुआ कि माननीय गृह मंत्री श्री गोविंद बल्लभ पंत इस नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्गारोहण हो गए। वैसे तो वह बहुत दिन से अस्वस्थ थे तथा हस्पताल में थे। लगता था कि अब गये, तब गये। पर उस दिन वह चले ही गये। उन के असमय जाने का बहुत अफसोस हुआ। यदि वे 8:30 बजे के स्थान पर 7:30 बजे चल दिये होते तो आठ बजे के समाचारों में आ जाता और घर से दफतर के लिए रवाना ही नहीं होना पड़ता।  इतने बड़े नेता के लिए दिन भर का अवकाश तो घोषित होना ही था. 

 

परन्तु जो ईश्वरेच्छा। मनुष्य का ज़ोर कहॉं चलता है। अवकाश का ऐलान तो होना ही था और इस शोक में दफतर बन्द हो गया। बाकी लोग भी दफ्तर पहुंच ही चुके थे तो अब प्रश्न यह उठा कि वापस घर जाएं या फिर क्या करें.  अन्नादुरई जी ने सुझाव दिया — ओखला चलते हैं जोकि दो एक किलोमीटर पर है और वहां पर पिकनिक मनाते हैं.  सिंह साहब ने और माधुर जी ने भी इससे सहमति व्यक्त की श्रीनिवासन ने इस सुझाव पर ठण्डा पानी डाल दिया। उन का कहना था कि एक तो शोक दिवस में वहां जाना उचित नहीं होगा पर दूसरा तर्क ज़्यादा वज़नदार था। अखबार में आया है कि पंजाब सरकार ने ताजेवाला बांध से कम पानी छोड़ा है इसलिए ओखला में गंदगी के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलेगा.  इस कारण पिकनिक पर जाने का कार्यक्रम तो नहीं बन पाया.

 

 अब इतनी दूर आए हैं तो घर जाने की इच्छा भी नहीं हो रही थी। चार घंटे खराब करके फिर वही घर के माहौल में जायें यह बात जमी नहीं.  एक हम ख्याल मिले उन्होंने कहा कि ईरोज टाकीज़ पर जाकर दोपहर का शो देखते हैं. बात वाजिबी थी। वहां पर पहुंचे तो पता लगा ​कि सभी टिकटें बिक चुकी है. हमारे विचार में ओर लोगों को भी वही ख्याल आया हो गा जो हमें आया था। इतनी हिम्मत थी नहीं की उसी मूवी को देखने के लिए कश्मीरी गेट जाएं और 3:00 बजे के शो की कोशिश करें.  इसलिए घर वापस जाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था.  कनाट प्लेस में साइकिल थी। वहां तक बस पर आना ही था.  बस स्टॉप से साइकिल स्टैंड की तरफ जा रहे थे तो जगदीश महोदय मिल गए.  उनका दफ्तर भी वहीं से पास में ही था मयूर बिल्डिंग में.  घर जाने का उनका भी मूड नहीं था और इसलिए वे दफतर से निकलकर एक साथी के साथ टहल रहे थे.  मिले तो बातचीत हुई और फिर यह तय हुआ कि उनके दफ्तर में जाकर चाय पानी मंगा कर कुछ नाश्ता कर लिया जाए। उसके बाद आगे का प्रोग्राम सोचते हैं. 

 

 कनॉट प्लेस की बड़ी खासियत यह है कि उसमें चार चार पिक्चर हॉल पास पास में ही है और इस कारण किसी ना किसी हाल के किसी ना किसी पिक्चर की टिकट मिल ही जाती है। इस कारण श्री पंत जी के जाने के शोक में हम ने वहीं प्लाजा टॉकीज में फि दो बीघा जमीन देखी. . उदासी भरी पिक्चर थी जो उस शोक से मेल खाती थी जो हमें पंत जी के जाने से हुआ था। तब तक दफतर समाप्ति का समय हो ही  गया था इसलिए उदास उदास से पंत जी का शोक मनाते हुए घर लौट आए.

 

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