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रिश्वत

रिश्वत

जंगल के ठेकेदार ने जंगल में एक सैक्टर का ठेका लिया जिस में अस्सी वर्षीय योजना के तहत चिन्हित वृक्ष काटे जा सकते थे। ठेकेदार ने वह पेड़ तो काटे ही, साथ में और भी काट लिये जो चिन्हित नहीं थे। न केवल यह बल्कि आबंटित क्षेत्र के बाहर के भी काट लिये। पकड़े गये और वन विभाग ने वह पेड़ जप्त कर लिये।

पर अब पेड़ तो कट चुके थे। उनहें वापस तो लगाया नहीं जा सकता था। उन का क्या करें। मौके पर उन को जमा किया गया। इधर ठेकेदार ने कलैक्टर के यहॉं अर्जी दी कि वन विभाग लकड़ी तो बेचे गा ही तो वह उसे खरीदने को तैयार है। जो भाव वन विभाग द्वारा तय किया जाये गा, वह उसे मंज़ूर है। एक बात उस ने और कही कि पेड़ काटने में मज़दूरी तो लगी है, उस को विक्रय मूल्य से कम कर दिया जाये।

पता नहीं क्या हुआ, उस की यह अर्जी मंज़ूर हो गई। अब मज़दूरी कितनी हो, यह अनुविभागीय अधिकारी द्वारा (यानि कि मेरे द्वारा) तय की जाये गी। वन विभाग और ठेकेदार से जानकारी चाही गई कि कितनी राशि वाजिब हो गी। ज़ाहिर है कि दोनों केी जानकारी में अन्तर हो गा।

उन दिनों मेरे द्वारा एक सैकण्ड हैण्ड कार खरीदी गई थी। उस की तफ़सील में नहीं जाऊॅं गा पर उसे काफी मरम्मत की ज़रूरत थी। यह भी बताया गया कि इसे इंदौर में सुधरवाना उचित हो गा। यह बात आम थी और ठेकेदार को भी ज्ञात थी। उस ने आफर दिया कि वह कार को सुधरवा दे गा। आश्य साफ था कि इस के बदले उस की चाही गई मज़दूरी को मान्यता दी जाये। मैं ने उसे बताया कि यह रिश्वत हो गी और मैं उस के लिये तैयार हूॅं। पर रिश्वत की राशि साढे तीन लाख रुपये हो गी, सिर्फ कार की मरम्मत नहीं। (साढ़े तीन लाख क्योें? उस वक्त डाकधर में बचत पर 12 प्रतिशत व्याज मिलता था। मुख्य सचिव, जो मेरे विचार में सेवा का अंतिम पड़ाव था, का वेतन उस समय 3500 रुपये मासिक होता था। साढ़े तीन लाख पर मासिक व्याज 3500 रुपये ही हो गा)।

ठेकेदार के अनुसार पूरी लकड़ी की कीमत इस की आधी भी नहीं हो गी। पर मेरे द्वारा अपनी मॉंग में कमी नहीं की गई। इस सूरत में फैसला तो वन विभाग द्वारा बताई गई राशि पर ही होना था।

(नोट - उस कार की मरम्मत नहीं हो पाई पर एक ग्राहक मिल गया जिस से मैंने अपनी दी गई राशि से एक रुपया अधिक लिया - वह भी इस कारण कि ग्राहक अंतिम अंक शून्य नहीं चाहता था)



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