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  • kewal sethi

यादें

यादें


आज अचानक एक पुराने सहपाठी विश्ववेन्दर की याद आ गई। रहे तो हम शाला में साथ साथ केवल दो साल ही पर वह समय सक्रिय अन्तकिर्या का था।

विश्वेन्दर आगे पढ़ पाया या नहीं, मालूम नहीं। कैसे जीवन कटा, मालूम नहीं। अपना स्कूल बदल गया और रास्ता भी बदल गया। पर याद रह गई।

हज़ारों परिवारों की तरह उस का परिवार भी पाकिस्तान बनने का पीड़ित था। पर एक अन्तर था। जहॉं हम लोग सौभाग्यवश सपरिवार बच कर आने में सफल हो गये थे, उस का परिवार इतना सौभााग्यशाली नहीं था। उस के पिता और भाई भीड़ का शिकार हो चुके थे। वह अथवा उस की माता किस प्रकार बच निकले, यह उस ने पूछने पर भी कभी नहीं बताया। शायद ज़ख्म इतना गहरा था कि उस के बारे में बात करना तो क्या, उस के बारे में सोचना भी कष्टदायक था। अभी समय भी कितना हुआ था।

जो बात इस भूली तसवीर में उभर कर सामने आती हे, वह उस के घर के दृश्य की है। पहाड़गंज की एक गुमनाम गली में एक जर्जर मकान। जब मैं वहॉं गया तो उस की मॉं सहन में एक बड़े से कड़ाहे में कई वस्तुयें मिला कर उबाल रही थीं। वह साबुन बना रही थी। वह साबुन जिसे देसी साबुन कहा जाता है। जब वह पक जाता था तो उस के घनाकार टुकड़े बनाये जाते थे। जो किनारे पर लगा इस योग्य नहीं होता था, उसे अलग से छोटे छोटे टुकड़ों में रखा जाता था। इन को पंजाबी में हम चीचके कहते थे। यह भी बाज़ार में बिकते थे और इन का इस्तेमाल पानी में उबाल कर किया जाता था। वह भी कपड़े साफ करने में उतने ही अच्छे थे जितने कि डली में काटे गये साबुन। प्रत्येक दिन कोई बचौलिया यह सब ले जाता था और व्यापारियों को देता था। यही आमदनी का एक मात्र तरीका था।

वह उम्र ऐसी नहीं थी कि परिवार की अर्थव्यवस्था के बारे में हम बात करते। पर यह ज़रूर महसूस होता था कि मुसीबत में भी आत्म सम्मान नहीं छूटा था। चाहे कितनी भी मेहनत करना पड़े पर किसी के आसरे रहने का विचार नहीं आता था। आज जब अस्सी करोड़ व्यक्तियों को मुफ्त या नाम मात्र के दाम पर अनाज दिया जा रहा है, यह सोचा भी नहीं जा सकता कि पश्चिम पाकिस्तान से आये पीड़ितों ने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि उन्हें कितनी कठिनाई जीवकिा अर्जित करने में हो गी। अपने पैरों पर खड़े होने की भावना ही मुख्य थी। मुझे याद आता है, ठेले पर शरनाई बेचने वाले ने अपनी रेढ़ी पर नारा लगा रखा था - दे कर के गरीबी मुझे, खुुदा ने फरमाया, दिल इन का शाहाना बना दो।

एक दूसरे की मदद करना, एक दूसरे को ढारस बन्धाना यह उस समय का नियम था, दस्तूर था। कभी आरक्षण मॉंगने का विचार नहीं आया। कभी अपने साथ बीती घटनाओं पर से हमदर्दी चाहना अथवा उस को भुनाने की आदत नहीं बनी।

उन सैंकड़ों, हज़ारों बल्कि लाखों लोगों को सलाम जिन्हों ने आज़ादी की कीमत चुकाई ताकि शेष भारतीय अपना सपना स्वराज का पूरा कर सकें। और उन को भी जिन्हों ने इस के लिये कोई मुआवज़ा नहीं चाहा बल्कि अपने दम पर जीवन की कठिनाईयों से लड़ते रहे और विजय भी पाई।


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