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  • kewal sethi

चांदनी रात

चांदनी रात


मेरे घर के सामने इक दर्ज़ी रहता है

सांझ से ही चलने लगती है उस की मशीन

चलती है जैसे कभी आसमान में चांद उभरा न हो

चलती है जैसे कभी धरती पर यौवन चांदनी का निखरा न हो

धरती पर जैसे कभी बहार आर्इ न हो

जीवन ने जैसे कभी मलहार गार्इ न हो

कुछ टीस सी उठती है मन में

इस आवाज़ को जब मैं सुनता हूं

इक हलचल सी उठती है दिल में

मैं अक्सर खुद से प्रश्न करता हूं

खेतों में गंदम निखरी है

धरती पर चांदनी बिखरी है

हर स्थान बड़ा दिलकश दिल नशीं लगता है

नदी के शांत जल में शशि क्रीड़ा करता है

हर चीज़ है जैसे दूध में धुली हुर्इ

हर शह में शहद हो जैसे घुली हुर्इ

खुश है आज किसान कि उस की मेहनत का सिला

उसे मिलने वाला है

महीनों से व्रत जो उस ने पाला था

उस का परिणाम आज मिलने वाला है


मेरे घर के सामने इक दर्ज़ी बैठा रहता है

रात के बारह बजे

पर उस की वह मशीन

चल रही है उसी अंदाज़ में

दु:ख होता है आवाज़ वह सुन कर


यह नहीं कि पड़ता है खलल कोर्इ मेरे सपनों में

इस पूर्णिमा की रात में चांदनी है छिटकी हुर्इ

नींद किसे आती है इस माहौल में

हर मकां बड़ा दिलकश बड़ा दिलनशीन लगता है

हर चीज़ जैसे आज दूध में धोर्इ गर्इ हो

नाचते हैं गांवों में जवान जोड़े

जीवन होगा अब अरमान भरा

मैं भी खो गया हूं कहीं दूर

जहां कर रहा है कोर्इ मेरा इंतज़ार

लेकिन

यह मशीन गा रही है अपना करुण गीत

देखा मैं ने

इस चांदनी रात में भी टूट कर इक सितारा

आसमान से गिर गया

कितने युगों से जुड़ा था यह नगीने सा

आज हुआ खाना बदोश

गिरा अपने स्थान से

मेरा दिल भी जैसे धड़ाम से आ गया ज़मीन पर

इस मशीन के सोज़ भरे साज़ ने

ला दिया ज़मीन पर मुझे

इंसान आज खुश है

पर यह मशीन है इंसान नहीं

इस के लिये किसी दिल में कोर्इ अहसास नहीं

इस के कुछ अरमान नहीं

नहीं मतलब इस को चांद से चांदनी से

दो वक्त की रोटी बस यही है तलब इसे

आवाज़ मशीन की झंझोड़ती मुझ को

क्या मुमकिन नहीं है कुछ समाधान इस का

क्या यही है इंसाफ ज़माने का

खून-ए-शहीदां रायगां हो जाये गा क्या

क्या यही थे अरमान जिस के लिये

भगवान ने अवतार लिये थे

क्या यही प्रजातन्त्र है जिसे आदमी से सरोकार नहीं

क्या यही वह शाम है बरसों से था जिस का इंतज़ार

क्या इसी लिये बनी थी चांदनी रातें

मशीन की आवाज़ में दब कर रह जायें

यह मशीन जो चल कर दिन रात

पेट न अपना भर सकती हो

क्या इस की सदा को दबाया जा सकता है

मेरी रूह यह मानती नहीं

मेरे अहसास इस की इजाज़त देते नहीं

इक रोज़ तो इस दुनिया को बदलना होगा

इक रोज़ तो यह दस्तूर बदलना होगा

खून न हो इंसानियत का हर रोज़

ऐसा कुछ तो करना होगा

इंसान को मशीन न बनना होगा

ए मशीन ठहर ज़रा

अब वह दिन दूर नहीं

भगवान भी इतना क्रूर नहीं

मेले में चलना फिर तू भी

लेकिन क्या वाकर्इ ही ऐसा होगा

भगवान लें गे अवतार फिर

या फिर तुम को ही भगवान बनना होगा

खुद अपनी तकदीर बदलना होगा

(होशंगाबाद - फरवरी १९६५) 

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