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गीता का उपदेश और सुयोधन

  • kewal sethi
  • Sep 27
  • 4 min read

गीता का उपदेश और सुयोधन


कल श्री सुनील मल्होत्रा के प्रस्तुतिकरण में एक बात अजीब सी कही गई

यदि गीता का उपदेश अर्जुन के बजाये दुर्योधन को दिया जाता तो उस का क्या परिणाम होता।

इस का उत्तर उन्हों ने एक लाईन में दिया - ‘‘मैं जानता हूूैंं कि मैं सही नहीं हूॅं परन्तु मेरा अपने मन पर नियन्त्रण नहीं है।’’

मैं ने इस पर चिंतन किया। मेरा काल्पनिक उत्तर कुछ अधिक लम्बा होता।

सम्भवतः दुर्योधन का उत्तर होता - ‘‘ऐसा नहीं कि मैं यह नहीं जानता कि सच कहां है और झूठ कहां पर। धर्म कहां पर है और अधर्म कहां पर। अपने विश्वास के अनुसार कार्य करना मेरा धर्म है। उस का क्या फल हो गा, इस की चिन्ता करना मेरे लिये अर्थहीन है। अर्जुन, भीम महावीर है। वह विजयी हो सकते हैं। मुझे मालूम है कि भीष्म भी मन में उन्हीं के बारे में सोचते हैं। वह कर्तव्य से बंधे हुये हैं और इस लिये मेरी ओर हैं। क्या मैं उन्हें कर्तव्य मार्ग से च्युत होने के लिये कहूंगा। द्रोणाचार्य जिस प्रकार अर्जुन के गुरू थे, वह मेरे भी गुरू थे। यदि उन की श्रद्धा मेरे में नहीं होती तो वह किसी भी समय हमें छोड़ कर जा सकते थे। परन्तु उन्हों ने यहीं रहना स्वीकार किया। क्या मैं उन को छोड़ दूॅं। मेरे एक मात्र मित्र तथा सहायक महारथी कर्ण हैं। जब तक वह मेरे साथ हैं, मैं निश्चिन्त हूॅं। मुझे यह भी मालूम है कि भीष्म, द्रोणाचार्य उन के विरोधी हैं क्योंकि वह राजपुत्र नहीं हैं परन्तु मैं उन की मित्रता को कलंकित कर पलायन में विश्वास नहीं करता।

बड़े पूर्वजो की बात मान कर उन्हें आधा राज्य भी दे दिया जिस में उन्होंने इन्द्रप्रस्थ नगरी बसाईं। वह सुन्दर नगरी थी और जब वे तैयार हो गई तो अन्य राजाओं की तरह मुझे भी आमंत्रित किया गया। मेरे हृदय में कोई दुर्भावना नहीं थी और मैं उन का निमन्त्रण स्वीकार कर वहॉं गया। किन्तु यह आमन्त्रण मित्रता के नाते नहीं था वरन् मुझे नीचा दिखाने के लिये धूर्त पाण्डवों की चाल थी। इस के बावजूद मैं ने कोई प्रतिकिया व्यक्त नहीं की।

मुझ पर आरोप है कि मैं ने द्रौपदी का अपमान किया जिस का दंड मुझे मिलना चाहिये। वास्तव में उस का अपहरण तो युधिष्ठर ने किया था। क्या उसे इस बात का दण्ड नहीं मिलना चाहिये। क्या असत्य भाषण कर कि वह हमें भीख में मिली है, उस का अपमान नहीं था। क्या पूर्ण एवं सत्य जानकारी दे कर माता का नया आदेश प्राप्त नहीं कर सकते थे किन्तु वह उस की सुन्दरता पर मोहित थे और इस प्रकार धोखे से उसे अपनी पत्नी बना लिये। और अर्जुन, जिस ने उसे प्रतियोगिता में सफल हो कर वरण किया था और जयमाला ग्रहण की थी, चुप रहा। क्या यह द्रौपदी का अपमान नहीं थां। ऐसे धूर्त पाण्डवों का आप सर्मथन करें, यह आप को शोभा नहीं देतां परन्तु यह आप का अपना निर्णय है जिस के पीछे कोई मनोरथ हो गा। मैं उस को चुनौती देने का पात्र नहीं हूूॅं। द्रौपदी को प्राप्त करने के पश्चात क्या यह युधिष्ठिर का कर्तव्य नहीं था कि वह उस का सम्मान करे। क्या उन्हें एक मामूली वस्तु मान कर धन दौलत की तरह दॉंव पर लगाना अपमान नहीं था।

आप न केवल पूज्य है वरन् मैं ने आप का विराट रूप भी देखा है तथा आप ही नीति के रक्षक हैं। आप महाकाल है, अकेले ही विजयी होने में सक्षम हैं परन्तु यदि इस का श्रेय दूसरों को देना चाहते हैं तो यह भी आप का ही निर्णय है जो मुझे स्वीकार्य है।

यदि मैं आप के कहे अनुसार सन्यास ले लूॅं तो क्या इस देश में क्षेत्रीय धर्म का कोई स्थान रह जाये गा अथवा केवल पलायन ही इस का धर्म रह जाये गा। मृत्यु जैसा कि आप कहते हैं, परम सत्य है। क्या उस से डर कर मुझे अपना दावा वापस ले लेना चाहियें। इस बात की क्या गारण्टी है कि उस के पश्चात मृत्यु मेरे निकट नहीं आये गी। आप मेरा नाम सुयोधन से बदल का दुर्योधन कर सकते है किन्तु क्या उस से मेरी दुष्टता पर अथवा मेरी ख्याति पर कोई प्रभाव पड़े गा। पूज्य विचित्रवीर्य के स्वर्गवास के पश्चात उन के ज्येष्ठ पुत्र राज्य के अधिकारी थे। उन की शारीरिक कमज़ोरी के कारण पाण्डु षासन का कार्य देखते थे। इस से क्या वह राजा बन गये और मेरे पिता उन के आश्रय में पलने वाले। मेरी माता ने स्वयं की ऑंखें बन्द कर ली जब कि उन का कर्तव्य था कि वह मेरे माता पिता दोनों का दायित्व सम्भालती। क्या उन के कर्तव्यच्युत होने का दण्ड मुझे मिलना चाहिये। पिता धृतराष्ट का जयेष्ठ पुत्र होने के नाते उस गद्दी पर मेरा हक था, यह बात पाण्डु के पुत्रों को क्यों स्वीकार्य नहीं हुई। क्या उन की महत्वाकांक्षा का दण्ड मुझे मिलना चाहियें।

मैं आप के उपदेश का पूर्णतया पालन करते हुये बिना फल की इच्छा किये अपना कर्तव्य निभाता रहूं गा। जैसा आप ने कहा पलायन समाधान नहीं है। धनुष बाण छोड़ कर नतमस्तक होना समाधान नहीं है। और अंतिम बात - आप ने कहा कि जीतो गे तो राज्य सुख भेागो गे ओर हारो गे तो प्रतापी कहलाओं गे। आप काल हैं, आप ने सब तय कर रखा है। इस लिये मेरा हारना जीतना आप का ही निर्णय है। उस में मुझे कोई आपत्ति नहीं। आप की इच्छा पूर्ण हो, यही मेरी इच्छा है’’।

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