a fantasy
- kewal sethi
- Sep 11
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स्वतन्त्र भारत
मेरे एक हम उम्र दोस्त ने कहा कि तुम्हें पता है, नेहरू प्रधान मन्त्री कैसे बने। मैं ने कहा यह तो जग ज़ाहिर है कि गॉंधी जी यही चाहते थे। पर मित्र जानना चाहते थे क्यूॅं? मैं ने अपना विचार उन्हें बताया कि दो कारण थे - एक तो यह कि उन्हों ने नेहरू परिवार का नमक खाया था तथा उस का हक अदा कर रहे थे। वह इलाहाबाद में उन्हीं के घर पर रुकते थे और एक कमरा तो आनन्द भवन में अभी भी उन के नाम पर ही है। दूसरा कारण गुजरात के थे इस लिये गुजराती को नहीं चाहते थे। महात्मा होने के नाते महान त्याग दिखलाना चाहते थे।
मित्र हॅंसे। उन्हों ने कहा कि असली बात कुछ और है जिस के कारण भारत के भविष्य के बारे में मतभेद होते हुये भी उन्हें ऐसा करना पड़ा। मेरे मतभेद के बारे में पूछने पर उन्हों ने गॉंधी जी के 5 अक्तूबर 1945 के पत्र का उद्धरण बताया। लिखा था -
i am convinced that if India is to attain true freedom and through India the world also, then sooner or later the fact must be recognçed that people will have to live in villages, not in towns, in huts not in palaces. Crores of people will never be able to live at peace with one another in towns and palaces. They will then have no recourse but to resort to both violence and untruth. i hold that without truth and non-violence there can be nothing but destruction for humanity. We can realise truth and nonviolence only in the simplicity of village life and this simplicity can best be found in the Charkha and all that the Charkha connote. - bapu
नेहरू को स्पष्टतः ही यह पसंद नहीं था। वह तो यूरोपीय रंग में रंगे थे। उन्हों ने इस नकार दिया। अपने उत्तर में उन्हों ने कहा -
& I do not understand why a village should necessarily embody truth and non¬violence. A village, normally speaking, is backward intellectually and culturally and no progress can be made from a backward environment. Narrow-minded people are much more likely to be untruthful and violent. Again it seems to me inevitable that modern means of transport as well as many other modern developments must continue and be developed. There is no way out of it except to have them. If that is so inevitably a measure of heavy industry exists. How far that will fit in with a purely village society ?
दोनों के विचारों में ज़मीन आसमान का फर्क था। इस के बावजूद गॉंधी ने उन्हें ही चुना। गांधी शायद थक गये थे और जल्दी से आज़ादी चाहते थे। एक बात पर आप ने ध्यान दिया हो गा, इस पत्र में उन्हों ने अपने को बापू कहा है, मोहनदास नहीं, न ही गांधी। कहते हैं कि लोग उन को बापू कहते थे। गलत है, वह स्वयं ही बापू बन बैठे थे। खैर, वह बात जाने दो।
महायुद्ध समाप्त होने के बाद यह तो स्पष्ट था कि भारत स्वतन्त्र होने जा रहा है। आज़ाद हिन्द फौज की बात याद थी। इण्डोनेशिया की आज़ादी हो चुकी थी। चाहे अंग्रेज़ों ने भारतीय सिपाहियों की मदद से डच हकूमत को कायम करने का सोचा था पर उस में सफलता संदिग्ध थी। अब सवाल यह था कि भारत की सत्ता किसे सौंपी जाये जिस से भारत आज़ाद भी रहे और गुलाम भी। ऐसा व्यक्ति होना चाहिये जो अंग्रेज़ो का मूॅंह ही देखता रहे। इस में नेहरू फिट बैठते थे। और किसी नेता का भरोसा नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालचारी, मोरारजी देसाईं - कोई भी तो था नहीं। पटेल तो बिल्कुल नहीं। और यह बात गांधी जी को बता दी गई थी। इसी लिये तो कहावत बनी है - मजबूरी का नाम महात्मा गांधी।
मैं ने कहा तो इस में एडविना की कोई भूमिका नहीं थी।
बिल्कुल नहीं। माउण्टबैटन तो फरवरी 1947 में वायसराय बने थे। उस से पहले सब तय हो गया था। वह थे तो भारत में परन्तु सैना अध्यक्ष के तौर पर और राजनेताओं से कम ही सम्पर्क था। एडविना की भूमिका तो बाद में आरम्भ हुई जब उसे रोकने के लिये अंग्रेज़ को प्रथम गवर्नर जनरल बनाया गया। नेहरू का बस चलता तो 1950 तक उसे रोके रखते पर विरोध काफी बढ़ गया था इस लिये छोड़ना पड़ा।
मैं ने कहा कि सुना है आज़ादी जून 1948 में मिलने वाली थी फिर अगस्त 1947 में कैसे मिल गई। क्या अंग्रेज थक गये थे।
उस की भी वजह है, मित्र ने कहा, पर बहुत कम लोगों को मालूम है। हुआ यह था कि किसी प्रसिद्ध ज्योतिषी ने गांधी जो को बताया था कि उन का योग जून 1948 में जीवित रहने का नहीं है। और वह चाहते थे कि आज़ादी उन के समय में ही मिले जिस से वह नेहरू के नहीं, सारे भारत के बापू बन जायें। और नेहरू भी इस पर अड़ गये। शायद उन्हें भी इस भविष्यवाणी पर विश्वास था। मजबूरन अंग्रेज़ों का अगस्त 1947 में ही आज़ादी देना पड़ी।
मैं ने कहा कि अगस्त 1947 के बारे में मेरी थ्योरी अलग है। नेहरू ने एक पत्र इंगलैण्ड के प्रधान मन्त्री को लिखा था कि उन का वार क्रिमिनल बोस रूस में पहुॅंच गया है। इस पर यह क्यास लगाया गया कि रूस उन से मिल कर भारत में विद्रोह करवा सकता है। भारतीय नेवी का एक विद्रोह 1946 में हो ही चुका था। इस कारण जल्दी से नेहरू को सत्ता सौंपना ही ठीक लगा।
मित्र ने कहा कि जो हो, भारत को अगस्त 1947 में अंग्रेज़ों की शर्त पर आज़ादी मिल गई, और नेहरू प्रधान मन्त्री बन गये, यही अंतिम सत्य है।
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