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साक्षात्कार

  • kewal sethi
  • Jul 29
  • 1 min read

साक्षात्कार


मुझे याद आता है वह समय जब में घमन्तु पत्रकार जगह जगह समाचार की तलाश में भटकता रहता था। थाने का चक्कर भी लगा लेता था। पर हालत पतली ही थी। कभी मिला कभी नहीं मिला। संपादक ने एक दिन नोटिस दे ही दिया। देखिये गिरधर बाबू, या तो कोई ढंग का समाचार लाओ, कोई साक्षात्कार, कोई स्कैण्डल नहीं तो आना बन्द करो। यह चिक चिक तो नहीं चले गी। 

अब क्या करें, किधर जायें। लगता है रोटी रोज़ी के लिये कुछ और धंधा अपनाना पड़े गा। इसी उधेड़बुन में जा रहा था कि कि किसी मिन्र ने कहा

- क्यों बे गदारिया] यह क्या हाल बना रखा है। कुछ लेते क्यों नहीं। 

बोलने वाले हमारे सहपाठी रहे थे। तुनका तो बैठा ही था, बो्ला -

- मेरा नाम गिरधर गोपाल उपाध्याय है] गदरिया नहीं। 

-हॉं हॉं] श्रीमीन वन्दनीय श्री गिरधर गोपाल उपाध्याय जी महाराज, वह तो सही है पर यह रोनी सूंरत क्यों बना रखी है।  

आदमी जब निराश होता है तो उसे व्यंग्य में भी चमक दिखाई देने लगती हें। पुराना जमायती था। उसे हक था मज़ाक उड़ाने का पर कुछ हमदर्दी तो झलक रही थी। डूबते को तिनके का सहारा। बोला 

- सम्पादक जी ने नोटिस दे दिया है। या तो बड़ा समाचार लाओ या कोई साक्षात्कार] नहीं तो आना बन्द करो।

- बस इतनी सी बातं। कुछ बन्दोबस्त करते हैं। 

कुछ दूर तक साथ साथ चले चुप चाप। मैं तो क्या बोलता। जितना बोलना था] बो्ल लिया। 

पॉंच एक मिनट बाद  मित्र बोले 

- मन्त्री मनसुख लाल का साक्षात्कार कैसा रहे गा। 

- मन्त्री जी से साक्षात्कार और मेरे साथ। क्या भंग पी कर चले थे घर से। 

- आप देखो] क्या होता हैं पर पहले मुंह हाथ धो लो ताकि यह मनहूस शकल कुछ बदले। 

हम मन्त्री मनसुख लाल के यहॉं पहुंच गये। 

- वराण्डे से हो कर उस कमरे में पहूंच गये जिस में पी ऐ बैठे थे। 

हमें कुर्सी पर बिठा कर हमारे दोस्त पी ऐ के पास चले गये। क्या बात हुई, सुन नहीं पाया मैं। 

वह आ कर बगल वाली कुर्सी् पर बैठ गये। 

आधा घंटा बैठे रहे। कुछ नहीं हुआ। जब उकता गया तो दोस्त से कहा। 

- क्या हुआ। क्या बात की। 

- बस समय मॉंगा। कहा] पूछ कर बताते हैं। 

- फिर दौबारा याद करायें।

- अभी नहीं। 

कुछ देर और बैठने के बाद मित्र फिर पी ऐ के पास गयें। इस बार मैं भी साथ था। मित्र बोले 

- अभी समय नहीं तो फिर आ जायें गे। अभी तो इन का कहीं और अप्वाईंटमैण्ट है। 

- कार्ड देते चाहिये। मैं इतलाह कर दूं गा। 

- कार्ड तो खतम हो गये थे पर नाम लिख कर दे देता हूं। 

मित्र ने एक कागज़ पर नाम लिख कर दे दिया। 

जाते जाते एक बार पलट कर द्रेखा] पी ए ने वह कागज़ वेस्ट पेपर बाक्स में डाल दिया] पर फिर फौरन उठा भी लिया। 

मैं चक्कर में। यह क्या। मित्र से पूछा तो उस ने बताया कि पी ए ने सोचा कि नाम तो नहीं सुना पर कहीं सच मुच ही विख्यात पत्रकार न हो] इस कारण उठा लियां।

मैं ओर विख्यात पत्रकार? हॅंसी आ गई। मित्र बोले 

- यह हुई न बात। मुसीबत में जो हॅंस ले] दुनिया उसी की हैं। चलो चल कर काफी पीते हैं। 

काफी हाउस में बैठे। काफी का आर्डर दियां। 

मित्र बोले - कोई कागज़ है पास में। 

वह तो हमेशा रहता ही था। क्या पता कब ज़रूरत आ पड़े। 

मित्र ने कागज़ लिया और उस पर कुछ लिखने लगें बीच बीच में काफी का घूंट। बीस पच्चीस मिनट बाद बोले – लो] तुम्हारा मन्त्री जी का साक्षात्कार तैयार हो गया। 

- मेरा साक्षात्कार] मन्त्री जी की तो शकल भी नहीं देखी। 

- वहॉं गये तो थे। उन की फोटो भी तो थी वहॉं। 

- पर यह सब सीखा कहॉ। से। पढ़ते हुये मैं ने पूछा। 

- तुम तो अच्छे पत्रकार बन सकते हो। 

- पत्रकारिता तुम्हें मुबारक। अपने लिये दुकानदारी ही बहुत हैं। 

- दुकानदारी में यब कैसे समाता है?

- ग्राहक के लिये सब कुछ कहना सुनना पड़ा है। 

मैं क्या कहता। वह कागज़ लेकर सम्पादक के यहॉं चला गया। सम्पादक को बताया कि साक्षात्कार ले आया हूं। कागज़ थमाया। 

सम्पादक जी न्रे नाम पढ़ा। फिर फोन घुमाने लगे, जाने किस को। 

फोन सुन कर बोले -

- आधा घंटा बैठे रहे। भई वाह। देखें क्या लिखा है। 

पढ़ने के बाद बोले 

- पर यह तो बहुत छोटा सा है। आधे घण्टे में तो काफी बात हो जाती है। 

- जी वह। बात यह है कि उन्हों ने कहा ज़्यादा विस्तार से मत लिखना।

- ऐसा क्या

- जी हॉं] और आप देखें गे कि पूरे लेख में कहीं मैं और मेरा शब्द नहीं आया हैं। वैसा ही आदेश था। 

दौबारा पढ़ करं बोले 

- मनसुख लाल जी से ऐसी अपेक्षा नहीं थी। अभी भी ऐसे लोग हैं जो प्रचार से डरते हैं। विश्वास नहीं होता। पर] उन की इच्छा।

लेख रखते हुये पचास का नोट थमाया। बोले

- बस ऐसे लिखते रहो। फिर भी उन्हें मिल लेना। 

खुशी खुशी बाहर आया। मित्र खड़े थे। बोले 

- क्यों गदरिया, बात बनी। 

इस बार गदरिया सम्बोधन बुरा नहीं लगा। आखिर पुराने जमायती थे। कालेज में तो ऐसे ही बोलते थे।

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