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सावरकर अंदमान जेल में

सावरकर अंदमान जेल में


(यह लेख उन्हीं के शब्दों में है तथा उन की आत्म कथा ‘मेरा आजीवन कारवास’ से लिया गया है किन्तु इस में अलग अलग पृष्ठों पर से उद्धरण लिये गये हैं तथा इस कारण एक निरन्तर चलने वाला लेख नहीं है। केवल वहाॅं के जीवन का दिग्दर्शन उन्हीें की भाषा में किया गया है)


जलयान अंडमान के बन्दरगाह में आकर खड़ खड़ खड़ करता हुआ पानी में लोहे का लंगर डालकर खड़ा हो गया। धीरे धीरे बड़ी-बड़ी नौकायें जो बंदियों को ले जाती थी और अधिकारियों की मोटरबोट का जमघट उस जलयान के चारों तरफ लग गईं। उतरने के लिये काफी समय खड़ा रहना पड़ा। वहीं से प्राचीर के भीतर एक भव्य भवन दिखाई दिया। हम ने पूछा - यह भवन क्या है. सिपाही ने कहा - अरे वही तो है बारी बाबा का सिल्वर जेल। फिर वह बिना पूछे ही कहने लगा - अब उधर ही जाना है। वहीं बारी बाबा के घर पर ठहरना है आप सब को।

हम सभी दण्डितों के सिर पर बिस्तर तथा हाथ में थाली पाट दे कर एक पंक्ति में नीचे उतारा गया। अन्य बंदियों को सिपाहियों तथा बंदियों के पहरे में ऊपर भेजा गया। केवल मुझे ही योरोपियनों के पहरे में अलग रखा गया।

इतने में एक सिपाही बड़ी उद्दण्डतापूर्वक दहाड़ा - चलो, उठाओ बिस्तर क्योंकि एक योरोपियन अधिकारी निकट खड़ा था। भारतीय पुलिस की यही धारणा हो जाती है कि अंग्रेजों के सामने भारतीयों के साथ जितना उद्दण्डतापूर्वक व्यवहार करें, उतना ही अपने पदोन्नति के लिये लाभदायक सिद्ध हो गा। मैं झट से तैयार हो गया। मुझे घाट से निकाल कर एक चढ़ाई पर चढ़ने का आदेश दिया गया। बेड़ियों से जकड़े हुये नंगे पैरों के कारण चढ़ने में विलंब होने लगा। सिपाही ‘चलो, जल्दी चलो जल्दी’ चिल्ला कर जल्दी मचाने लगा। गोरे अधिकारी ने कहा - चलने दो उसे, जल्दी क्यों मचा रहे हो। थोड़ी देर में चढ़ाई समाप्त हो गई और सिल्वर जेल का द्वार आ गया। लोहे के चूलों के दाढ़ गढ़गढाने लगे। फिर उस कारागृह ने अपना जबड़ा खोला और मेरे भीतर घुसने के बाद जो बंद हुआ तो 11 साल बाद ही खुला।

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मुझे लेकर वह जमादार सात नंबर की इमारत में बंद करने चल पड़ा। रास्ते में हौज़ दिखाई दिया। जमादार ने कहा- इस में नहा लो। चार-पांच दिन हो गये थे, मैं स्नान नहीं कर सका था। सागर यात्रा से शरीर मैला हो गया था। स्नान का नाम सुन कर मुझे अति प्रसन्नता हुई। जमादार ने एक लंगौटी दी कि इसे पहन लो। ल्रगौटी पहन कर मैं कटोरा भर भर कर पानी लेने लगा। इतने में जमादार चिल्लाया - ऐसा मत करो। यह काला पानी है। पहले खड़े रहो। मैं कहूं गा पानी लो। पानी लेना, वह भी एक कटोरा। फिर मैं कहूं गा अंग मलो। और पानी लो। पुनःः दो कटोरा पानी लेना और वापस लौटना। तीन कटोरों मैं स्नान करना है। मैं स्नान करने लगा। इतने में आंख झप से बन्द हो गई। जलन होने लगी। जीभ एकदम खारी हो गई। तब मैं ने जमादार से पूछा यह पानी खारा कैसे हुआ। वह बोला - समंदर का पानी भी कहीं मीठा होता है. तब ध्यान आया कि हम समुन्दर स्नान कर रहे थे.

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कपड़े पहन कर आगे बढ़ा। भवन की भीतें ईंटों तथा पत्थरों से बनाई गई थी। आग के भय से लकड़ी का स्पर्श नहीं होने दिया गया था। सात नंबर चाली के तृतीय तल पर मुझे रहना था। उस चाली में जिस में लगभग डेढ़ सौ लोग रहते थे, खाली की गई थी, इस कारण कि मैं उधर आ रहा हूं। राजनीतिक बंदियों पर उस में भी विशेष कर मुझ पर उन बंदी मुसलमानों के अतिरिक्त किसी को भी पहरेदारी का काम नहीं सौंपा जाता. .

दूसरे दिन प्रातः काल लगभग 8 बजे वार्डन जल्दी-जल्दी मेरी कोठी के सामने आ कर बोला - बारी साहब आता है, खड़े रहो। बारी साहब अपने साथ और कुछ गोरे लोग ले कर आये थे। गोरे स्त्री पुरुषों को मुझे देखने को तथा यथा संभव सम्भाषण करने की इच्छा होती थी अतः मुझे दिखाने के लिये उन्हें लाया जाता था।

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मेरे आने से पहले जो राज बंदी वहां आये थे, उन को एक दूसरे भवन में इकट्ठा रखा गया था। नारियल छिलका निकाले हुये मोटे मोटे छिलके जिन में नारियल का गोला मिलता है, सुखा कर उसे कूटना और उन में से जटायें तथा रेशे ठीक तरह से निकाल कर उन्हें साफ करने का काम उन्हें सौंपा जाता। यह काम कठिन था तथापि उतना कठिन नहीं था जितना कोल्हू से तेल निकालना. . उस में ही लें। कुछ महीने इस तरह बीतने के बाद कोलकाता से एक पुलिस अधिकारी निरीक्षण पर आये। उन्हें खेद हुआ कि बंदी शाला में भी मनुष्य के साथ इतनी मानवता का व्यवहार किया जाता है। उन्हों ने कहा कि यह बंदी चोर डाकू जैसे सभ्य नहीं हैं। यह महा बदमाश हैं। इन से ऐसा व्यवहार करना चाहिये कि इन का घमंड चूर-चूर हो जाये। तब से व्यवस्था बदल गई। बंदियों को अलग अलग चालियों में अकेले-अकेले को बंद किया गया। आपस में वार्तालाप करने पर बेड़ियां, कड़ियां इत्यादि का जोरदार इस्तेमाल होने लगा। छिलका कूटने के वह काम भी लोगों को दिया जाता और कोल्हू में भी जोता जाता जो कारावास का कठिनतम काम समझा जाता और जो बैलों के करने योग्य था। प्रातःकाल उठते ही लंगोट कस कर कमरे में बंद होना पड़ता। भीतर कोल्हू को ऐेसे घुमाना पड़ता जैसे हाथ से पहिया घुमाया जाता है। उस ओखली में गोले पढ़ते ही वह इतनी भारी हो जाती कि अति रथी महारथी कुली भी उस के 20 फेरे पूरे करते करते लुढ़क जाता। उस डांडी को आधा घेरा दे कर शेष आधा घेरा देने लायक शक्ति हाथों में नहीं होने से उस पर लटक कर उस की पूर्ति करनी पड़ती थी। भोजन आते ही कमरा खोला जाता। बंदी के बाहर आने पर दाल भात रोटी के साथ भीतर जाने के लिये मुड़ते ही दरवाजा बंद। कोई हाथ धो कर विलम्ब करता तो वह भी असहनीय होता। हाथ धोना तो अलग, पीने के लिये पानी के लिये भी जमादार की खुशामद करनी पड़ती। पानी वाला पानी नहीं देता। किसी ने चोरी से चुटकी भर तम्बाकू दी तभी वह पानी देता। भोजन देने के बाद उसे खाना खाया गया या नहीं, इस की प्रतीक्षा नहीं की जाती। जमादार चिल्लाता - शाम तक तेल पूरा करना हो गा नहीं तो पिटो गे, सजा होगी वह अलग। जैसे तैसे कोल्हु घुमाते घुमाते उस थाली में से कौर उठा कर मुंह में ढूॅंसते, जैसे तैसे उसे निगलते और कोल्हू चलाते-चलाते ही भोजन करते अनेक बंदियों को देखा जाता.

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आधा सीसी का रोग और टीस सहते सहते मेरे ज्येष्ठ बंधु कोल्हू पेरते, संध्या समय तेल नाप कर हुश्श करते हुये जो सोने की कोठरी में लकड़ी के तख्ते पर अपना शरीर पटकते, तब सारे शरीर में पीड़ा होने लगती। फिर आंख लगी नहीं कि दूसरी सुबह। फिर वही आधा सीसी का रोग, वही जमादार, वही काले अधिकारियों द्वारा अपमान और यंत्रणा - वही कोल्हू के पास खडे़ रहना। इस तरह सप्ताह, महीने कष्ट और अत्याचारों की पराकाष्ठा में बिताते हुये इसी तरह जन्म बिताना था। सब से बड़ा अपराध यह कि इस प्रकार के अपार कष्टों में भी वे अभी तक टूटे नहीं थे।

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बीमारी तब तक ढोंग की सूची में समाविष्ट होती थी जब तक वह गंभीर रूप धारण नहीं करती थी। उस में भी यदि ज्वर हो तो 101 डिग्री के ऊपर चढ़ने पर ही उसे ज्वर समझा जाता। तब भी उसे केवल कोठरी में बन्द किया जाता। सर दर्द, हृदय विकृति, जी घबराना इत्यादि अप्रत्यक्ष रोगों ने जिसे जर्जर किया है, उन की दशा पूछना तो दूर, उन के रोग का निदान ढोंग अथवा कामचोरी जैसे रोग से ग्रस्त होने में किया जाता। साथ ही दण्ड भी दिया जाता।

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मैं ने लगभग एक महीना छिल्का कूटने का काम किया. आखिर एक दिन सुपरिटेंडेंट ने आ कर मुझ से कहा- कल से आप को कोल्हू पर जाना है। छिलका कूट कूट कर अब आप के हाथ कठोर बन गये हों गे। अब कुछ और कठोर परिश्रम करने में कोई आपत्ति नहीं हो गी। बारी साहब ने हंसते हुये कहा - अब आप ऊपरी कक्षा में प्रवेश कर रहे हैं। कोल्हू का काम छटवें भाग में था। मुझे प्रातःकाल उधर ले जाया गया। काम पर जाते ही देखा बर्मा देश का एक राज बंदी भीे मेरे कोल्हू में ही जोता गया था। मुझ से कहा गया कि वह मेरी सहायता करे गा परंतु आप को लगातार कोल्हू घुमाते रहना हो गा। तनिक भी नहीं बैठना हो गा। अन्य राजबंदियों की तुलना में मुझे यह सुविधा मिली थी। लंगोटी पहन कर प्रातः 10 बजे तक काम करो। बिना रुके गोल गोल घूमने से सिर चकराता था। दूसरे दिन फिर कोल्हू के सामने आ पहुंचता. उस तरह सात दिन गुज़ारे। तक तक काम कहाॅं पूरा होता था। बारी ने एक बार आ कर कहा पास वाली कोठरी का बंदी 2 बजे तक पूरा 30 पौण्ड तेल तौल कर देता है और आप शाम तक कोल्हू चला कर पौण्ड़ दो पौण्ड ही निकालते हैं, इस पर आप को शर्म आना चाहिये।

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कोल्हू पर काम करते समय भारी शारीरिक और मानसिक श्रम होते हुये भी इस की थोड़ी सी भरपाई करने वाली एक संधि मिलती थी। वह थी अन्य राज बंदियों से थोड़ी सी बोल चाल की सुविधा, जो इस कोल्हू पर काम करते थे। आते जाते अधिकारियों की दृष्टि बचाकर अथवा किसी समझदार या दयालु पहरेदार या सिपाही की कृपा से वे राजबंदी मेरे पास आते और यथासंभव मुझ से बतियाते। प्रायः सायंकाल जब पाॅंच बजे के आस पास भोजन की धांधली में थोड़ी देर खुल कर चर्चा करने से मन पुनः चेतना और उत्साह से भर जाता। भोगी हुई यातनायें अकिंचन लगती। पुनः यह दृढ निश्चय होता कि भविष्य में जो यातनायें भुगतनी है, वह भी कर्तव्य ही है. यह चंद घड़ियाॅं उस कोल्हू के कठोर अभिशाप में वरदान समान ही थी

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एक त्रास ऐसा था जो देखने में साधारण, कहने में संकोचास्पद, परंतु जिसे सहने में अपने आप से घृणा होने लगती। वह कष्ट था - बंदियों को मल मूत्र का अवरोध करने के लिये बाध्य करना। सुबह, दोपहर, शाम - इस समय के अतिरिक्त शौच परे जाना लगभग जघन्य अपराध समझा जाता। शाम में बंदीवानों को जो छह सात बजे बंद किया जाता तो सुबह 6 बजे ही द्वार खोला जाता। उस अवधि में लघुशंका के लिये केवल एक मटका भीतर रखा जाता। बंदी गृह में सभी कोठरियाॅं अलग अलग थीं और हर कोठरी में एक ही बंदी रखा जाता था। बारी साहब का नीति नियम था कि रात्रि के इन 12 घंटों में किसी बंदी को शौच नहीं होना चाहिये। वह मटका भी इतना छोटा होता कि लघुशंका के लिये भी पूरा नहीं होता। किसी को शौच जाना हो तो उसे वार्डन को सूचित करना पड़ता। वार्डन ने अपनी अनिच्छावश अथवा भयवश इस बात को असत्य घोषित किया तो प्रश्न ही नहीं। उस बंदी को उसी तरह मलावरोध कर के तब तक रुकना चाहिये जब तक सवेरा नहीं होता।

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जेल नियमावली को देखा जाये तो भोजन की मात्रा सरसरी तौर पर अपर्याप्त नहीं होती। कटोरा भर चावल और गेहूं के दो रोटियां- इतना भोजन जो मिश्र पद्धति का था, वह ठीक ही था। यह मात्रा साधारण मनुष्य के लिये पर्याप्त थी। कोल्हू में काम करते समय अथवा चक्की पीसते समय कई लोगों को इस तरह के विशेष परिश्रम में भोजन की मात्रा कुछ बढ़ाने की अनुमति दे दी जाती। बंदियों में कुछ लोग ऐसे थे जिन की भूख इस मात्रा से नहीं मिटती थी परन्तु प्रायः एक दो वर्षों के बाद उन्हीं बंदियों की स्थिति में परिवर्तन आ जाता। परन्तु इस बीच बंदियों के मुख तक कौर जाने में जो विघ्न आते, उन की कोई सीमा नहीं थी। पंजाबी और पठानी वार्डरों से व्यवहार में अधिकारी वर्ग की शांति के लिये बंदियों को अपने रोटियाॅं उन्हें देनी पड़ती अन्यथा दिन में किसी ना किसी झंझट में फंसा कर पीठ पर दो चार डंडे बरसा ही देते थे.

यदि मात्रा की बात छोड़ दें तो उस भोजन में न केवल स्वाद की कमी होती वरना पौष्टिक तत्वों की भी कमी थी। चाहे चावल कम मात्रा में हो, रोटी पेट भर भले ही ना मिले पर अधपका चावल मत दो, रोटी आधी सिंकी हुई, आधी जली हुई और कभी-कभी आटे की गीले गोले जैसी मत दो। इस तरह की प्रार्थना हमें बार बार करनी पड़ती। सात आठ सौ लोगों का भोजन तैयार किया जाता। रसोईये इतने गंदे थे कि वे संक्रामक रोगों से अथवा गुप्त रोग से पीड़ित होते थे। पसीने से तर बतर उन के वस्त्र। हमारी आंखों के सामने माथे का पसीना दाल के बड़े बड़े डोगों में टपकता। हम देखते तथा वही दाल चटकारे भर भर हम को सुड़कना अनिवार्य होता। भला इस में रसोईये का क्या कसूर। उस परोसिये का क्या अपराध। चिलचिलाती धूप में सैंकड़ों बंदियों का भोजन तैयार करते करते तथा उन्हें परोसते परोसते उन चार पाॅंच रसोईयों के टाॅंके ढीले हो जाते। ऐसी स्थिति में ‘स्वादिष्ट’ भोजन शब्द ही हम भूल गये थे। इस बात को हम स्वीकार करते हैं कि अपराधियों को राजा महाराजाओं की तरह ठाठ बाठ के साथ पंच पकवानों का स्वाद लेने के लिये बंद नहीं किया गया था। अपितु बंदीगृह में उन का जीवन इतना नीरस किया जाये कि उन में यह अहसास जाग उठे कि उन्हें ऐहिक सुखों से वंचित होना पड़ा है.

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कभी-कभी दलिये में मिट्टी का तेल गिर जाता। दलिया बड़े सवेरे पकाया जाता। एक महाकाय देगची चूल्हे पर चढ़ाई जाती और उस में पकता। मुंह अंधेरे यह देखने के लिये कि दलिया ठीक पका है या नहीं, रसोईया हाथ में मिट्टी के तेल की डिबरी ले कर उसी उनींदी अवस्था में ही उस डेगची में झाॅंकता। उस समय दो कौड़़ी की उस टूटी-फूटी डिबरी से तेल चूने लगता और उसे तिरछी पकड़ने पर सारा तेल दलिये में गिरता। सात आठ सौ लोगों के लिये तैयार किया गया वह दलिया यूंही फैंका तो नहीं जा सकता है। इस तरह का मिट्टी के तेल वाला दलिया प्रति माह या दो महीनों में एक बार तो मिलता ही था। शिकायत करने पर उल्टी चुगली करने पर अभियोग चलाया जाता। सभी को मिट्टी का तेल वाला दलिया का प्रयोग करना पड़ता, क्योंकि एक तो भूखे पेट को दूसरा मिले गा नहीं और फिर भूखे पेट ही काम करना पड़े गा।

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प्रातः काल के समय बंदियों की एक टोली बंदीगृह के लिये सब्जी लेने भेजी जाती. इस इलाके में अरबी भरपूर मात्रा में होती है। उस में कुछ साग भी उगता है। वह टोली हाथों में बड़े-बड़े हंसिये लिये हुये साग काटती जाती और साग के ढेर लाद कर उन्हें गाड़ी में भर कर बंदी गृह में भेजा जाता। इन जंगलो में कनखजुरे और साॅंप बहुतायत में थे। आये हुये साग को काट कर महाकाय कड़ाहे में डाला जाता और उबाला जाता। इस तरह के काम में कभी कभी कनखजूरा जो, विषैला जीव है, भी उस साग में आ जाता। इस बात को स्वीकार नहीं किया जाता और वह कनखजूरा या साॅंप फैंक कर वही खाना खाना पड़ता। न खाने से काम में छूट़ तो मिल नहीं सकती थी। बारी साहब का कहना था कि इस तरह की सैंकड़ों कनखजूरे इन लोगों ने निकाल कर फैंके हैं और चुपचाप सब्जी खाई है परन्तु आज तक उन में से एक भी नहीं मरा।

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बंदीगृह में भोजन करते समय बंदियों को धूप में अथवा वर्षा में प्रायः बैठाया जाता। दूसरे भागों में भी इसी प्रकार की स्थिति थी। एक हाथ में वर्षा से भीगी रोटियां और चावल थामे वर्षा के पानी से लबालब भरे कटोरे से दाल सुड़कते हुये खड़े-खड़े बंदियों को यह भोजन गले से उतारना पड़ता। इस प्रकार का प्रसंग एक दो बार नहीं था, यह लगभग प्रथा ही बन चुकी थी। खाने के लिये भी निश्चित समय दिया जाता और समय समाप्त होने पर अफसर चिल्लाला - चलो, उठो, खाना हो गया। तपाक से सभी को उठना पड़ता।


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