top of page

साक्षरता अभियान में सभ्य समाज की भूमिका

  • kewal sethi
  • Jul 1, 2020
  • 14 min read

1991 से 2001 - साक्षरता का एक दशक

राज्य तथा सभ्य समाज की भूमिका

केवल कृष्ण सेठी


प्रौढ़ शिक्षा सामुदयिक विकास खण्ड के दिनों से ही किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है। पहले इसे सामाजिक शिक्षा के नाम से जाना जाता था। उस केे बाद इसे प्रौढ़ शिक्षा का नाम दिया गया। इस से आगे बढ़ कर इस ने अनापैचारिक शिक्षा का रूप धारण किया। इसे निदबजपवदंस सपजमतंबल अर्थात ‘उपयोगी साक्षरता’ का नाम भी दिया गया। इस के लिये राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की स्थापना हुई। राजीव गाँधी मिशन की स्थापना हुई।

प्रौढ़ शिक्षा सब स्थानों पर थी और कहीं भी नहीं थी। सरकार पूरी तरह से इस के लिये कृतसंकल्प थी। इस के लिये कई बार अभियान चला कर निरक्षरता को समाप्त करने का संकल्प व्य७ किया गया। संविधान निर्माताओं ने 14 वर्ष तक शिक्षा को अनिवार्य करने का प्रावधान निर्देशक सिद्धाँतों में किया। प्रधान मंत्री श्री मोरार जी भाई ने दस वर्ष में पूर्ण साक्षरता प्राप्त करने का लक्ष्य दिया था। इसी तरह अन्य शासन काल में भी संकल्प व्यक्त किये जाते रहे हैं। पर परिणाम आशानुकूल नहीं रहे। गत दस वर्ष में भी इस प्रकार के अभियान चलाये जा रहे हैं जो पूर्व के ही प्रयासों का किंचित परिवर्तित रूप है। पर इन सब से अपेक्षित लाभ नहीं हो पाये।

इसी कारण आज भी संसार के सब से अधिक अनपढ़ इस देश में हैं। पैसे की कोई कमी नहीं है। राजीव गाँधी मिशन, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन इत्यादि के माध्यम से पैसे की व्यवस्था हो रही है। पर इन में उस वस्तु का अभाव है जो किसी अन्दोलन को सफल बनाता हैं। महात्मा फुले, ईश्वर चन्द्र्र विद्यासागर, मदन मोहन मालवीय, महात्मा हंस राज जैसे शुद्ध अन्तःकरणों का अभाव है। रामकृष्ण मिशन, दयानद ऐंग्लोवैदिक शिक्षा समिति जैसे संगठनों का अभाव है। एक समय था जब किरोड़ी मल, रामजस, जैसे सेठ शिक्षा के प्रसार में अग्रनीय थे। धार्मिक प्ररेणा के लोग हिन्दु कालेज के साथ साथ इसलामिया कालेज, खालसा कालेज, सनातनधर्म कालेज, डी ए वी कालेज भी चलाते थे। शिक्षा के प्रसार में इन संस्थानों का महान योगदान है।

आज इन समितियों का स्थान पब्लिक स्कूलों ने ले लिया है जो कहलाते पब्लिक स्कूल है पर हैं केवल निजी लाभ के साधन। इन के साथ साथ ही कोचिंग कक्षाओं, निजी टयूशनों की भी भरमार हो गई है। जैसे जैसे बी एड प्रशिक्षित अध्यापकों की संख्या बढ़ती गई, शिक्षा के स्तर में गिरावट बढ़ती गई। जैसे जैसे पी एच डी वाले आते गये वैसे वैसे महाविद्यालयों में शिक्षा के प्रति नज़रिया बदलता गया। पहले शिक्षा तथा विद्या को पवित्र मानने वालों अध्यापकों का बहुमत था। अब पैसे को महान मानने वालों का ज़माना है।

इस के साथ साथ ही प्रौढ़ शिक्षा के स्वरूप में भी परिवर्तन आता गया। सरकारीकरण में एक सब से बड़ी दिक्कत यही होती है। जब किसी कार्य को केवल वेतन से तोला जाता है तो उस से उकताहट भी जल्दी होती है। फिर इस उकताहट से उभरने के लिये इस में विविधता पैदा करने का प्रयास किया जाता है। कुछ इस का प्रभाव था और कुछ विदेशी अन्दोलनों का प्रभाव। यह जाना माना तथ्य है कि भारत में उस अधिकारी को सफल माना जाता था जिसे विदेश भ्रमण के अवसर प्राप्त होते हों। नेताओं के लिये भी यह उपलब्धि थी, और अशासकीय संस्थाओं के लिये भी। विदेशों से सीखने को बहुत कुछ मिल सकता है और वहाँ से सहायता भी खुले दिल से प्राप्त हो सकती है। पर उस का लाभ समाज को तभी मिल सकता है जब उस को राष्ट्रीय संदर्भ में ढाल कर अपनाया जा सके। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो पाया। इन विचारों को ज्यों का त्यों अपना लिया गया।

ब्राज़ील के एक अन्दोलन के प्रभाव में हम ने साक्षरता को केवल साक्षरता न मान कर सामाजिक चेतना के लिये अन्दोलन मान लिया। इस अन्दोलन के लक्ष्य बहुत उच्च हैं अेौर उस के विरुद्ध कुछ भी नहीं कहा जा सकता है पर अन्दोलन शासकीय अधिकारियों द्वारा नहीं चलाये जाते, इस तथ्य को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता।

प्रौढ़ शिक्षा इस चक्कर में गम्भीर विषय न हो कर एक प्रतीकात्मक उपलब्धि बन गई। इस के लिये ऐसे तरीके डूँढे गये जिस में प्रचार पक्ष उजागर हो सके। कहीं पुतलियों के माध्यम से तो कहीं प्रभात फेरियों के माध्यम से तो कहीं रात को मशालों के जलूस के माध्यम से प्रचार में हम लग गये। कहीं हम ने संगोष्ठियाँ करना शुरू की तो कहीं प्रदर्शिनियों का आयोजन किया। कहीं एन एस एस के सदस्यों को इस में लगाया तो कहीं इसे एन सी सी कैडट के लिये आवश्यक कार्य बताया। कहीं ‘ईच वन टीच वन’ का नारा दिया तो कहीं ‘एक एक पाँच पाँच को पढ़ाये’ की बात की। कहीं हम ने इस में वैज्ञानिक मनोभाव ेबपमदजपपिब जमउचमत को लाने का प्रयास किया तो कहीं सामाजिक क्राँति लाने का साधन मान कर इस की तारीफ की। कहीं पर्यावरण से इसे घेरना चाहा तो कहीं राष्ट्रीय एकता का लबादा पहनाना चाहा। इन सब में अपने में कुछ गलत नहीं है पर इन में किसी एक को ही प्रौढ़ शिक्षा मान लेना मौलिक गल्ती थी। परिणाम यह हुआ कि अन्दोलन बिखर कर रह गया। उस से अपेक्षित लाभ नहीं हो पाये।

और फिर इस सब की असफलता को छुपाने के लिये कारण बताये गये या तराशे गये। यह कहा गया कि गरीबी प्रौढ़ शिक्षा में लोगों के आने में बाधक है। यह कहा गया कि जनसंख्या का बढ़ना ही इस का कारण है। यह ऐसे कहा गया जैसे जनसंख्या नियन्त्रण का कोई सम्बन्ध प्रौढ़ शिक्षा से न हो। क्या वास्तव में इन का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। क्या गरीबी से भी प्रौढ़ शिक्षा का कोई सम्बन्ध नहीं है।

साक्षरता क्या है? इस का लक्ष्य क्या है? इस के बारे में विचारों में परिवर्तन होता रहा है। भारतीय प्रौढ़ शिक्षा संस्थान ने 1967 में ‘साक्षरता की प्रथम सीढ़ी’ के नाम से यूनैस्को की पुस्तिका ।ठब् व िस्पजमतंबल का अनुवाद प्रकाशित किया था। इस में प्रश्न पूछा गया था ‘क्या साक्षरता तथा पढ़ने लिखने में कोई अन्तर है?’ फिर उत्तर भी दिया गया था ‘हाँ। शिक्षा के कुछ विद्वान अब यह मानने लग गये हैं कि .....साक्षर व्यक्ति वह है जो पढ़ने लिखने की अपनी योग्यता का सरलता से उपयोग कर सके।’

भारत सरकार के 1971 में प्रौढ़ शिक्षा संस्थान के एक प्रकाशन (क्रमाँक 27) में कहा गया ‘अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि सतत तथा समन्वित सामान्य शिक्षा के साथ साथ श्रमिकों तथा मध्यवर्गीय कर्मियों के व्यवसायिक प्रशिक्षण का भी प्रयास किया जाना चाहिये। इस आधार पर बहुपक्षीय पहल श्रमिकों तथा कर्मियों के शिक्षण तथा प्रशिक्षण के लिये भी किया जाना चाहिये।’

1979 में सर्वोदय शिक्षा समिति ग्वालियर द्वारा प्रकाशित पुस्तिका में कहा गया है ‘अभावों, अन्यायों और शोषण में पल रहे आदमी में चेतना जगाने का कार्यक्रम ही प्रौढ़ शिक्षा है।’

दिसम्बर 2000 में मध्य प्रदेश प्रौढ़ शिक्षा संघ के उदघाटन के समय प्रकाशित पुस्तिका में श्री वी डी मेहता का कथन है ‘स्पष्टतः ही सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये हमें संवेदनशील लोक शिक्षा की कार्यात्मक तथा अनौपचारिक पद्धति को अपनाना होगा।’

इस प्रकार प्रौढ़ शिक्षा की कोई एक परिभाषा नहीं है, कोई एक लक्ष्य नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि विभिन्न व्यक्तियों द्वारा जो लक्ष्य बताये गये हैं वह प्रासंगिक तथा आवश्यक नहीं हैं। उन में से हर एक अपने स्थान पर सही है पर क्या यह सब मिल का भी प्रौढ़ शिक्षा की परिभाषा बन सकते हैं। क्या मौलिक परिभाषा कि अक्षर ज्ञान का सरलता से उपयोग ही इन सब को अपने अन्दर सम्माहित नहीं कर लेता है। क्या इन सब लक्ष्यों को एक साथ प्राप्त करना आवश्यक है। कहा जाता हे कि साक्षरता इन के लिये एक सीढ़ी भर है। पहुॅंचना तो यहाॅं तक है। क्या साक्षरता के भी स्तर होते हैं या होना चाहिये। क्या यह सब उपलब्धियाँ क्रमवार प्राप्त नहीं हो सकती। क्या इन सब को साधने का अर्थ पत्तों को पानी देना नहीं है जब कि जड़ को हम भूल ही जाते हैं। प्रौढ़ शिक्षा साक्षरता छोड़ कर यह सब हो जाती है। कबीर जी की वाणी में एक साधे सब सध जाये के अनुरूप हमें क्या साक्षरता पर ही ध्यान केन्द्रित नहीं करना चाहिये।

एक बार साक्षर हो जाने पर शेष सब बातों को स्वयंमेव ही प्राप्त किया जा सकता है। शायद यही कारण है कि इन को पकड़ कर रखा जा रहा है। हम इस धारणा में दृढ़ता से विश्वास करते हैं कि हमारे बिना कोई काम सिरे चढ़ने वाला नहीं है। इस कारण हम तब भी किसी की सहायता करना नहीं छोड़ते जब वह अपनी सहायता स्वयं करने के योग्य हो जाता है। यदि ऐसा हो जाये तो हमें लगता है कि हमारे पास कोई काम ही नहीं रह जाये गा। हमारीसार्थकता समाप्त हो जाये गी। इसी कारण हम प्रौढ़ शिक्षा को भी नई नई परिभाषाओं में उलझाते जाते हैं। जैसे जैसे हम उस की ओर बढ़ते हैं, मंज़िल दूर होती जाती है।

हम ने प्रश्न किया था क्या पूर्व में बताये गये लक्ष्य क्रमवार प्राप्त नहीं किये जा सकते। मुझे ताो इस में कहीं कोई शक की गुँजाईश नज़र नहीं आती है। शिक्षा की अन्य उपलब्धियाँ भी क्रमशः ही प्राप्त होती हैं। सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते हुए ही शिखर पर पहुँचा जा सकता है। कदम कदम चलते हुए ही मंज़िल प्राप्त होती है। सब से अधिक कठिनाई पहले कदम में ही होती है। इसे पार कर लिया जाये तो शेष रास्ता आसान रहता है। सब से अधिक कठिनाई उस अध्यापक को होती है जो यह समझ नहीं पाता कि छात्र को अथवा श्रोता को वह बात क्यों समझ नहीं आ रही जो उस के विचार में पूर्णतः सरल तथा सहज है। वह ऊँचाई को पा चुका है और उस की अपेक्षा है कि छात्र भी उस तक पहुँच जाये। यही हाल हमारे कुछ शिक्षाविदों का भी है। वह उन सभी लक्ष्यों को एक साथ पा लेना चाहते हैं जो वह उचित समझते हैं। चाहे वह सामाजिक न्याय की बात हो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो, कार्यकुशलता हो, चैतन्य जागृति हो अथवा कोई अन्य। पर यह शिक्षार्थी के प्रति न्याय नहीं है। एकदम किसी पर बोझ लाद दिया जाये तो वह गति नहीं पकड़ पाये गा। घीरे धीरे सीखने से तथा गति बढ़ाने से उपलब्धि अधिक हो सके गी। उस से भी अधिक उचित यह होगा कि उसे स्वयं अपना रास्ता डूँढने की सुविधा दी जाये। इस कारण जैसा कि यूनैस्को ने कहा था कि अक्षरज्ञान से प्रशिक्षार्थी को सहज एवं सरल ढंग से आगे बढ़ना चाहिये। शेष गौण है तथा इस अक्षर ज्ञान पर आधारित है। पूर्वाग्रह उचित नहीं है कि यदि किसी ने राष्ट्रीय स्वतन्त्रता अन्दोलन अथवा पर्यावरण इत्यादि के बारे में नहीं सीखा है तब तक उसे साक्षर नहीं माना जा सकता। यह धारणा गलत है। यदि कोई व्यक्ति केवल अपने अधिकारों के बारे में पढ़ सकता है और अपने को दिये गये अभिलेखों का अध्ययन कर समझ सकता है तो वह साक्षरता की सीढ़ी पर चढ़ना शुरू हो गया है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि उस की रुचि बनी रहे और वह निरक्षरता की ओर न लौटे।

पर सब से बड़ी बात यह है कि इन सफलताओं को समारोहों तथा संगोष्ठियों में तर्क वितर्क का विषय न बनाया जाये। उच्च विचार व्यक्त कर इन कम स्तर की प्राप्तियों को नकारा न जाये। साक्षरता को जानकारी के समकक्ष मानने की ज़िद छोड़ दी जाये। एक केवल ज्ञान है दूसरी कला है। साक्षरता जानकारी की दिशा में एक कदम हो सकता है पर केवल जानकारी साक्षरता की ओर नहीं ले जा सकती। उस के लिये आज के युग में और भी साधन हो सकते हैं। इस बात को मान्य किया जाना चाहिये।

यहाँ पर प्रश्न उठता है (और यह हमारे विषय का प्रथम भाग है) कि शासन की इस में क्या भूमिका होगी। यह सभी पक्षों द्वारा मान्य किया जाये गा कि प्रशासन एक अवैयक्तिक संगठन है। इस में मनुष्य की महत्ता नहीं होती, लक्ष्यों की होती है। प्रशासन स्वयं में स्वतन्त्र भी नहीं है। वह अशासकीय संगठनों की तरह त्वरित गति से निर्णय लेने में सक्षम नहीं है। उस का निर्णय केवल आज के संदर्भ में ही नहीं देखा जाता है। उसे भविष्य में भी कसौटियों पर पूरा उतरना चाहिये। प्रशासन केवल संगठनात्मक स्तर पर ही निर्णय ले सकता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिस में किसी अधिकारी को अपने निर्णय के बारे में न्यायालय के समक्ष, महालेखापरीक्षक या किसी आयोग के समक्ष अथवा फिर किसी अन्य समिति के समक्ष अपने निर्णय को सही ठहराने का प्रयास करना पड़ा हो। इस कारण उस का निर्णय न केवल सही होना चाहिये वरन् उस का पूरा विवरण भी होना चाहिये। उस के निर्णय को पश्चात प्राप्त ज्ञान के आधार पर गलत या अनावश्यक ठहराने वालों की कमी भी नहीं है। उस समय की परिस्थितियों का ज्ञान नस्ती में ही होना चाहिये। इसी कारण शासकीय अधिकारी द्वारा निर्णय लेते समय विभिन्न पहलुओं पर विचार करना पड़ता है जो अशासकीय व्यक्तियों को अटपटा लगता है।

उपरोक्त कारणों से ही आज की धारणा है कि शासन तथा प्रशासन का कम से कम हस्ताक्षेप किसी गतिविधि के संचालन में होना चाहिये। शासन द्वारा किसी विकास कार्यक्रम के लक्ष्य, संगठन तथा कार्ययोजना तो तैयार करना चाहिये तथा इस के लिये धन की व्यवस्था भी करना चाहिये पर उसे स्वयं इन में आगे नहीं आना चाहिये जब तक ऐसी परिस्थितियाँ न हों कि उस के बिना काम ही न चल पाये।

एक बार जब साक्षरता को औपचारिकता, पूर्व निर्धारित मान्यताओं, विदेशी विचारों से मुक्त किया जा सके गा तो सरकार की इस में विशेष भूमिका नहीं रह जाये गी। आम तौर पर देखा गया है कि जब किसी कार्यक्रम को सरकार के माध्यम से अथवा उस के नाम पर चलाया जाता है तो उस से लोगों की अन्य क्षेत्रों में अपेक्षायें बढ़ जाती हैं। जैसे यह माना जाता है कि सरकार द्वारा संचालित किसी परीक्षा को पास करने से शासकीय औपचारिक शिक्षा के किसी स्तर के बराबर उसे मान्यता दी जाये गी। भारत का वर्तमान संकट बढ़ती हुई अपेक्षाओं का परिणाम है। परन्तु इस का अर्थ यह नहीं कि सरकार का कोई दायित्व ही नहीं हो गा। सरकार का एक बड़ा योगदान धन की व्यवस्था करना है। यह सही है कि धन की व्यवस्था शासन द्वारा भी की जा सकती है तथा अन्यथा भी हो सकती है परन्तु इतने बड़े अभियान के लिये बिना शासन के वित्तीय सहयोग से कोई व्यापक स्तर पर कारवाई नहीं की जा सकती। यह भी स्पष्ट है कि जब शासन द्वारा पैसा दिया जाये गा तो उस के उपयोग के बारे में भी जाँच पड़ताल करना होगी। यह सरकार का जनता के प्रति दायित्त्व है। इसे न केवल किया जाना चाहिये वरन् अत्यन्त सख्ती से किया जाना चाहिये। परन्तु यह जाँच पड़ताल पैसे के उपयोग तक ही सीमित रहे तथा इसे किसी पूर्व निधाग्रित नीति को लागू करने के लिये प्रयोग में न लाया जाये तभी इस का वास्तविक लाभ होगा।


इस में जनता की, समाज की क्या भूमिका होगी। यह तो स्पष्ट है कि जब सरकार की भूमिका कम हो जाये गी तो उसी अनुपात में समाज की भूमिका बढ़े गी। समाज की भूमिका को समझने के लिये हम थोड़ा से रास्ते से अलग हो कर समानन्तर गतिविधि पर विचार करें।

यह सामान्य अनुभव हैं कि जब कोई व्यक्ति चोरी करते हुए पकड़ा जाये तो उस की प्रशंसा करने वाला कोई भी नहीं होता। भ्रष्ट से भ्रष्ट व्यक्ति भी किसी अन्य भ्रष्ट के पकड़े जाने पर अपनी नाराज़गी ही प्रकट करे गा तथा ईमानदारी का ही पक्ष ले गा। आप इसे दोगलापन कह सकते हैं परन्तु हमारे संस्कार ही इस प्रकार के हैं कि हम इस के अतिरिक्त कुछ कर भी नहीं सकते। थोड़ा और गहराई में जायें तो हम देखें गे कि समाज के ऊपर कितना निर्भर करता है। अमरीकी समाज में किसी लडके लड़की के मिलन पर कोई विपरीत प्रतिक्रिया नहीं होगी। भारत में कुछ ऐसे वर्ग को छोड़ कर जो पूरी तरह पाश्चात्य रंग में रंग गया है, प्रतिक्रिया इस के अनुकूल नहीं हो गी। समाज के संस्कार ही इस बात को तय करते हैं कि व्यक्ति की प्रतिक्रिया क्या होगी।

एक् और उदाहरण देखिये। हमारे यहाँ काम न करना बड़प्पन माना जाता है। जो व्यक्ति जितना बड़ा हो जाये गा उसे उतना ही काम से परहेज़ होगा। एक कहावत है -

‘‘सर्दियों में सूरज भी अफसर हो जाता है।

प्रातः देर से आता है, शाम को ज्रल्दी चला जाता है।।’’

इस कहावत का उद्गम इसी मनोभावना का प्रतीक है कि अधिकारी को काम नहीं करना चाहिये। उस का दायित्व अलग प्रकार का है। कार्यालय में चपड़ासी इत्यादि की संख्या से ही अधिकारी का रुतबा नापा जाता है। यदि किसी अधिकारी ने आप को बाहर बिठा कर प्रतीक्षा नहीं कराई तो वह अधिकारी कहलाये जाने योग्य नहीं है। समय पर न पहुँचना बड़प्पन की निशानी है। कई लोग विशेषतया नेता लोग इस पर गर्व भी करते हैं। उन के द्वारा विलम्ब से पहुँचने की जो माफी माँगी जाती है वह भी बड़ी अटपटी लगती है क्यों कि उस में कोई खेद झलकता नहीं है। एक तरह से वह यह जतलाते हैं कि वह इतने व्यस्त हैं कि समय पर पहुँच ही नहीं सकते।

इसी क्रम में यह बात भी आती है कि यह माना गया था कि बड़े आदमी को पढ़ने लिखने की आवश्यकता नहीं है। उस के आस पास बहुतेरे आदमी पढ़े लिखे होंगे जो उस का काम कर दें गे। धन हो तो दिमाग़ खरीदा जा सकता है, ऐसा कथन कुछ व्यापारी वर्ग में सुना जाता था। इस संस्कार से पढ़ने लिखने के विरुद्ध भावना बनती है। कोई व्यक्ति जब यह कहता है कि वह अनपढ़ है तो वह ग्लानि का अनुभव नहीं करता है। वह केवल एक तथ्य बताता है। पुस्तिका ‘साक्षरता की पहली सीढ़ी’ जिस का उल्लेख पहले किया गया है में एक प्रसंग आता है। ग्वेटामाला देश में कपड़ा मिल के संचालक ने एक स्कूल खोला। उस में धारणा थी कि ‘मज़दूरों में साक्षरता के प्रसार से मालिक तथा श्रमिकों दोनों को लाभ होगा।’ संचालक ने यह भी कहा कि ‘सवाल सिर्फ हमारी मिल में उत्पादन बढ़ाने का नहीं है - देश की आर्थिक उन्नति का है।’ इस प्रकार की भावना का उदय हमारे समाज में भी होना चाहिये। निरक्षर व्यक्ति केवल अपना ही नहीं देश का भी अहित करता है- यह प्रवृति अपनाना होगी। आज की प्रवृति तो है ‘मैं सुखी तो औरों का क्या’।

यदि हमें साक्षरता को सही अर्थों में सार्वभौमिक बनाना है तो इस मनोवृति को बदलना होगा। एक ऐसा माहौल तैयार करना होगा कि अनपढ़ व्यक्ति यह महसूस करे कि उस में कोई कमी है। यह किसी का मज़ाक उड़ाने से अथवा उस के प्रति अपमानजनक बर्ताव कर के प्रदर्शित नहीं किया जाना है। इसे हमारी स्वभाविक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आना होगा। यदि समाज के प्रत्येक व्यक्ति की ऐसी प्रतिक्रिया होगी तो चलाये जा रहे प्रौढ़ शिक्षा संस्थाओं को अपने छात्र डूँढने नहीं पड़ें गे। निरक्षरों को प्रेरित करने के लिये दिन में मशालें नहीं जलाना पड़ें गी। वह इस प्रतिक्रिया से ही प्रेरित हो जायें गे। और उस स्थिति में देश शीघ्र ही पूर्ण साक्षरता की ओर बढ़ सके गा।

ऐसा समाज तैयार करने के लिये अभियान सरीखी प्रचारात्मक कारवाई करने की आवश्यकता भी नहीं है। यह हम में से प्रत्येक को स्वयं ही करना है। यदि एक बड़ी संख्या में लोग ऐसा करें गे तो इस को फैलने में समय कम हीं लगे गा। केवल एक अनपढ़ को अपरोक्ष रूप से उस की कमी का अहसास कराना होगा। यदि ऐसा बार बार हो गा तथा विभिन्न लोगों से सुनने को मिले गा तो इस का मानस पर बड़ा प्रभाव पड़े गा। इस में करना कुछ भी नहीं है। केवल हम में से प्रत्येक व्य७ि को अपनी मनोवृति बदलना होगी।

इस अक्रिय (निष्क्रिय नहीं कहा गया है) भूमिका के साथ साथ एक सक्रिय भूमिका का भी सोचा जा सकता है। मेरे विचार में इस शीर्षक को चुनने के पीछे यही विचार था। किस प्रकार समाज अशासकीय संस्थाओं के माध्यम से साक्षरता फैलाने में भूमिका अदा कर सकता है। मैं ने इसे थोड़ा अलग रूप दे दिया है। पर जो रूप सोचा गया है उस के बारे में भी विचार किया जा सकता है। समाज का सहयोग तो अनिवार्य है ही विशेषतया जब हम सरकार के दायित्व को कम करने की सोच रहे हैं। समाज से अपेक्षा तीन क्षेत्रों में की जा सकती है। यह हैं - समय, ऊर्जा तथा पैसा। मैं ने जान बूझ कर पैसे को सब से बाद में रखा है। सब से बड़ी आवश्यकता समय की है। आज के व्यस्त पर्यावरण में समय दे पाना सब से कठिन है। चाहे वह रोटी रोज़ी के चक्कर में हो या कम से कम समय में अधिक से अधिक कमा लेने का चक्कर, समय निकाल पाना बहुत कठिन है। कुछ लोग हैं जो प्रौढ़ शिक्षा को व्यवसाय के रूप में अपना चुके हैं (यह बात किसी व्यंग्य के रूप में नहीं कही जा रही है। केवल तथ्यात्मक बात है। जैसे शाला में अध्यापन एक व्यवसाय है, वैसे ही प्रौढ़ शिक्षा भी व्यवसाय हो सकता है )पर मैं उन की बात नहीं कर रहा वरन् उन की बात कर रहा हूँ जो अन्य कार्यों में, व्यवसायों में व्यस्त हैं। उन को भी कुछ समय इस पुनीत कार्य के लिये निकालना चाहिये। और कुछ नहीं तो प्रौढ़ कक्षाओं में जा कर हौसला ही बढ़ाना काफी होगा। इस के बाद यदि ऊर्जा बचती है तो कक्षायें लेना, नवसाक्षर के लिये साहित्य तैयार करने का काम लिया जा सकता है। नवसाक्षरों के लिये सब से अच्छा साहित्य उन के द्वारा तैयार किया जा सकता है जो अपने क्षेत्र में पारगत हों। जो व्यक्ति केवल साक्षरता के क्षेत्र में हैं, वह भाषा को ही प्रधानता दें गे, ऐसा देखा गया है। तीसरी बात पैसे के द्वारा सहायता करने की है। पैसे की आवश्यकता तो रहती ही है। अतः उस का योगदान भी नगण्य नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि यह धारणा है कि अधिकतर राशि शासकीय स्रोत्रों से ही प्राप्त होगी क्योंकि उन का भी संकल्प है कि निरक्षरता को एक दशक में ही दूर करना है।



Recent Posts

See All
recalling story telling

recalling story telling the subject of today’s meeting was grandiose one – “Artificial General intelligence – myths, methods, madness. expected a wholesome menu of information. disappointment may be d

 
 
 
State of education

State of education Nearly 8,000 schools across India recorded zero student enrolments during the 2024–25 academic session, with West Bengal accounting for the largest share, followed by Telangana, acc

 
 
 
आर्य समाज और शिक्षा प्रसार

आर्य समाज और शिक्षा प्रसा र आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द द्वारा मुम्बई में अप्रैल 1875 में की गई। वह वेद आधारित समाज की रचना के...

 
 
 

Comments


bottom of page