आर्य समाज और शिक्षा प्रसार
- kewal sethi
- Sep 5
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आर्य समाज और शिक्षा प्रसार
आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द द्वारा मुम्बई में अप्रैल 1875 में की गई। वह वेद आधारित समाज की रचना के पक्षधर थे। उन्हों ने अपने विचार 1876 में प्रकाशित पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में व्यक्त किये हैं। बाद में इस का पुनरीक्षण कर 1882 में प्रकाशित किया गया। 1876 में स्वामी दयानन्द ने ऋग्वेद भाष्य भी प्रकाशित किया।
आर्य समाज की शाखायें कई राज्यों में स्थापित की गई जिन में पंजाब भी शामिल था। पंजाब में विशेष रूप से इस का प्रचार हुआ। पंजाब में लाहौर में जून 1877 में आर्य समाज के दस मौलिक नियम को अंतिम रूप दिया गया। आर्य समाज में शिक्षा पर विशेष ज़ोर दिया गया है। नियम आठ में कहा गया है, ‘‘अज्ञान को दूर किया जाये तथा ज्ञान को बढ़ाया जाये’’।
स्वामी दयाननद ने शिक्षा पर दो पुस्तकें लिखी थीं। एक संस्कृत वाक्य प्रबन्ध और दूसरी व्यवहार भानूं। सत्यार्थ प्रकाश में दूसरे तथा तीसरे अध्याय में उन्होंने शिक्षा के बारे में अपने विचार व्यक्त किये हैं। उन का विचार था कि आठ वर्ष की आयु तक माता पिता को ही शिक्षा देना चाहिये। इस में उच्चारण पर विशेष ध्यान देना चाहिये। दूसरा मुद्दा अनुशासन का था।
स्वामी जी ने संस्कृत आधारित कुछ शालायें आरम्भ की जिन में संस्कृत अष्टाध्यायी एवं महाभाष्य पर ज़ोर दिया गया। इस के पष्चात आयुवेद (चिकित्सा), धनुर्वेद (शासन), गंधर्ववेद (संगीत) पर विद्या ग्रहण करना प्रस्तावित था। यह योजना सफल नहीं हो पाई सम्भवतः इस कारण कि उस स्तर के अध्यापक नहीं मिल पाये परन्तु इस से आर्य समाज के कार्यकर्ताओं का उत्साह मद्धिम नहीं पड़ा। इधर आर्य समाज के सदस्यों की संख्या पंजाब में भी बढ़ रही थी। इस का अनुमान इस तालिका से हो सके गा।
वर्ष संख्या पुरुष महिला
1891 14030 8103 5927
1901 9183 ? ?
1911 100846 57956 42890
1921 223168 124860 98308
? उपलब्ध नहीं
इन सदस्यों में सभी जातियों- ब्राह्मण, खत्री, अरोरा, बनिया, जाट इत्यादि शामिल थे।
वर्ष 1886 में लाहौर में आर्यसमाज शाला आरम्भ की गई तथा 1902 में हरिद्वार में गुरूकुल कॉंगड़ी। एंग्लो संस्कृत शाला तथा संस्कृत शाला लाहौर में आरम्भ की गई। इन में संस्कृत एवं वेद पर उतना ज़ोर नहीं था। अपने विद्यालय आरम्भ करने के पीछे मष्ंाा यह थी कि अपनी भारतीय संस्कृति के अनुरूप शिक्षा होना चाहिये। सरकार द्वारा चलाई जा रही षालाओं में पष्चिमी संस्कृति का वर्चस्व था।
वैसे सनातन धर्म सभा द्वारा 1901 में एक शाला लाहौर में ही आरम्भ की गई थी किन्तु उस प्रकार की व्यवस्था विभिन्न नगरों में सभा द्वारा शालायें आरम्भ करने के लिये समिति बनाने का विचार नहीं आया। अलग अलग नगरों में वहीं के लोगों ने शालायें संचालित कीं।
स्वामी दयान्न्द के स्वर्गवास के पश्चात जिन लोगों ने आर्यसमाज का नेतृत्व ग्रहण किया उन्हों ने एंग्लो वैदिक शिक्षा का सिद्धांत अपनाया। इस में अंग्रेज़ी तथा विज्ञान को अपनाया गया किन्तु दूसरी ओर वैदिक शिक्षा में हिन्दी संस्कृत साहित्य को अपनाया गया। स्वामी दयानन्द के मृत्यु के दस दिन बाद हुई आर्य समाज की बैठक में एंग्लो वैदिक महाविद्यालय स्थापित करने का निर्णय लिया गया जो स्वामी जी का स्मारक हो गा। इस के लिये जनता से चन्दा लिया गया। इस सभा के अध्यक्ष श्री लाल चन्द थे। इसी बीच लाला हंस राज ने बिना वेतन के हैड मास्टर बनने की पेषकष की। इस अभियान के तीसरे षीर्ष व्यक्ति श्री गुरू दŸा विद्यार्थी थे। इसी श्रृंखला में लाला लाजपत राय का नाम लेना भी उचित हो गा।
हाई स्कूल पहली जून 1886 को आरम्भ किया गया तथा दो वर्ष बाद इसे बारहवीं तक बढ़ाया गया। एक वर्ष के भीतर इस में 500 छात्रों ने प्रवेष किया। यद्यपि षाला का आरम्भ जनता के चन्दे से हुआ किन्तु बाद में उन्हों ने शासन से मान्यता प्राप्त की तथा अनुदान भी प्राप्त करना आरम्भ किया ताकि छात्र छात्रवृति प्राप्त कर सके। 1893 में लाहौर षाला में बी ए की कक्षायें तथा 1895 में एम ए संस्कृत आरम्भ की गई।
इसी बीच अन्य नगरोें में भी छात्रों तथा छात्राओं के लिये विद्यालय आरम्भ किये गये। आर्य समाज के सिद्धॉंत के अनुरूप उस समय सह शिक्षा नहीं थी। जालन्धर में प्रथम कन्या विद्यालय स्थापित किया गया। दस अन्य स्थानों में भी कन्या विद्यालय स्थापित किये गये। बाद में इस आन्दोलन का विस्तार हुआ तथा विभिन्न नगरों में आर्य समाज शालायें स्थापित की गईं।
आर्य समाज का विचार निशुल्क शिक्षा प्रदान करने का था परन्तु बजट की कमी के कारण ऐसा नहीं हो पाया। परन्तु फीस जो ली गई, वह शासकीय विद्यालयों से आधी थी। इसी प्रकार प्रवेश शुल्क भी कम रखा गया। बाद में जैसे विŸा स्थिति सुधरी, आरम्भिक कक्षाओं में शुल्क समाप्त कर दिया गया। आगे की कक्षाओं में इसे कम किया गया।
यह उल्लेखनीय है कि हिन्दी को शिक्षा का माध्यम रखा या। अंग्रेज़ी माध्यम केवल हाई स्कूल में था। उर्दू तथा फारसी भी बाद की कक्षाओं में विषय के रूप में अपनाये गये थे। संस्कृत तीसरी कक्षा से अनिवार्य थी।
डी ए वी शिक्षा श्रृंखला अगले वर्षों में भी फलती फूलती रही। इस समय उन के लगभग 900 विद्यालय भारत और भारत के बाहर कार्यरत हैं। इस के अतिरिक्त 75 महाविद्यालय भी उन के द्वारा प्रबंधित हैं। यह भारत की सब से बड़ी गैर सरकारी शिक्षा संस्था है। भारत के बाहर नेपाल, मारिशयस, सिंगापुर तथा यूनाईटिड किंगडम में भी इन के द्वारा प्रबंधित शिक्षा संस्थान हैं।
(मूल संदर्भ - the dayanand anglo vedic school of lahore – ankur kumar – manohar -2025
supplemented by websites and other sources)
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