top of page

शिक्षा के ध्येय

  • kewal sethi
  • Aug 19, 2020
  • 9 min read

शिक्षा के ध्येय


शिक्षा के ध्येय क्या हैं, इस में शब्दों का अन्तर भले ही हो किन्तु यह सभी को स्वीकार्य हो गा कि इस का प्रथम तथा मुख्य ध्येय मानसिक शक्ति का विकास है। शिक्षक का कर्तव्य छात्र को यह बताने का नहीं है कि उसे क्या सेाचना है। अध्यापक द्वारा उसे सोचने के लिये तैयार करना है।


सोचने की प्रक्रिया का किस प्रकार प्रशिक्षण दिया जाये गा, इस पर विचार आवश्यक है। जब तक किसी बात पर मणन न किया जाये तब तक उस के बारे में आगे की बात सोचना सम्भव ही नहीं हो गा। इस कारण अध्यापक का दूसरा कर्तव्य छात्र को किसी विशिष्ट बात पर ध्यान केन्द्रित करने की आदत का विकास करने का प्रशिक्षण है। उस के ध्यान देने की शक्ति का जितना विकास हो गा, उतना ही वह शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ सके गा।

इस ध्यान देने की प्रक्रिया का एक परिणाम आस पास के सभी विचारों को एक सूत्र में पिरोना तथा एक केन्द्रित विचार अपनाना हो गा जो उस का जीवन भर पथ प्रर्दशन करे गा। इसी के भरोसे वह अपने विचारों को नियन्त्रित कर सके गा, अच्छे तथा बुरे विचारों में अन्तर कर सके गा तथा उसी दिशा में सोचे गा जो वह चाहता है अर्थात विचार भी उस के नियन्त्रण में रहें गे।


इन विचारों को ग्रहण करने के लिये मन को तैयार करना हो गा। परन्तु तब तक यह विचार मन में प्रवेश नहीं कर पायें गे जब तक कि मन शाॅंत नहीं हो गा। मन को शाॅंत करने के लिये साधना आवश्यक है। साधना क्या है? प्रति दिन कुछ समय बाहर की बातों को भूल कर अपने अन्दर झाॅंकना। यह धार्मिक प्रक्रिया नहीं है। केवल अपने को अपने से जोड़ना है अतः किसी को इस पर आपत्ति नहीं होना चाहिये।


व्यवहारिक रूप से यह कैसे किया जाये। इस का आरम्भ जीवन के प्रथम चरण में ही होना उपयुक्त हो गा ताकि यह जीवन भर की आदत बन सके। प्रति दिन शाला में कुछ समय ऐसा होना चाहिये जब छात्र पूर्णतया शाॅंत हो कर बैठें। किसी विशिष्ट पद्धति की आवश्यकता नहीं है, केवल मौन होना ही बहुत है। कई साधना पद्धति का तरीका है कि अपने श्वास पर ध्यान दिया जाये। वह कैसे अन्दर जाता है, कैसे बाहर जाता है, इस पर बिना हिले डुले ध्यान दिया जाना उचित हो गा। परन्तु यह एक उदाहरण है। हर कोई अपना तरीका अपना सकता है।


ध्यान देने से क्या लाभ हो गा। हम प्रकृति से जुड़ सकें गे। हम दूसरों के प्रति व्यवहार को समझ सकें गे। ध्यान देने से मानव ऊपर की ओर उठता है। त्रैत्तिरीयोपनिषद की भृगु वल्ली में भृगु अपने पिता से पूछता है कि ब्रह्म क्या है। पिता उसे निर्देश देते हैं कि वह इस के बारे में सोचे। भृगु सोचने के पश्चात इस बात को निश्चित करता है कि अन्न ही ब्रह्म है क्योंकि उस में ब्रह्म के सभी गुण हैं। समस्त प्राणी अन्न से परिणामभूत वीर्य से उत्पन्न होते हैं। अन्न से ही उस का शरीर सुरक्षित रहता है। पर पिता फिर सोचने को कहते हैं। तब भृगु पाता है कि प्राण ही ब्रह्म है। प्राण ही जीवन है। इस के जाने पर जीवन समाप्त हो जाता है। प्राण ही अन्न ग्रहण करने के योग्य बनाता है। पर पिता इस से भी संतुष्ट नहीं होते तथा पुनः सोचने के लिये कहते हैं। तब भृगु सोचता है कि मन ही ब्रह्म है। मन ही जीवन को बनाये रख्रने का साधन है। पति पत्नि के मानसिक मिलन से ही मानव पैदा होता है। मन द्वारा ही अन्न ग्रहण करने की प्रेरणा आती है। मन के मरने के बाद शेष बातें बेकार हो जाती हैं। पर पिता के अनुसार यह अन्त नहीं है। तब भृगु सोचता है कि विज्ञान ही ब्रह्म है। इसी से सब जाना जाता है। मन, प्राण, अन्न ग्रहण सब इस के आधीन हैं। विज्ञान अर्थात चेतन ही अंतिम है तथा इस कारण ब्रह्म है। पर इस के पश्चात विचार पर वह पाता है कि आनन्द ही अंतिम छोर है। ये आनन्दमय परमात्मा ही सब की अन्तरात्मा है। इस का लेश पा कर ही सब प्राणी जी रहे हैं। इसी आनन्दमय परमात्मा के कारण सभी चेष्टायें हो रही हैं। अन्त में प्राणी इसी में विलीन होता है। चेतन भी इसी आनन्द का हिस्सा है।


कहने का अर्थ यह है कि सोचने मात्र से भृगु कई पड़ाव पार कर अंतिम सत्य तक पहुॅंच पाता है। यह ध्यान देने की तथा सोचने की प्रकिया को वास्तविक शिक्षा बताती है। इस से यह भी शिक्षा मिलती है कि किसी की निन्दा नहीं करना चाहिये। न अन्न की, न प्राण की, न मन की। इसी प्रकार अन्न की अवहेलना नहीं करना चाहिये। तीसरे अन्न का उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये। पाॅंचों तत्व आकाश, वायु, जल, अग्नि तथा पृथ्वी के संसर्ग से ही अन्न का उत्पादन होता है। अन्न से ही शक्ति आती है। इस प्रकार एक प्रश्न पर विचार करने से कितनी महत्वपूर्ण बातें समक्ष में आ जाती हैं।


यह बात केवल ब्रह्म के लिये ही सही नहीं है वरन् शेष बातों के लिये भी इस की उपयोगिता है। जीवन में हर कदम पर विचार करना आवश्यक है तथा विचार करने की शक्ति को पोषण ध्यान केन्द्रित करने से होता है।

इस कारण शिक्षा में द्वितीय मुख्य प्रयोजन सोचने की शक्ति का विकास है जो ध्यान से ही प्राप्त हो गी।


अब तृतीय प्रयोजन की बात करें। शिक्षा का उद्देश्य छात्र का जीवन सफल बनाना है। यह तभी सफल बन सकता है जब उस का कार्य उत्तम श्रेणी का हो। यहाॅं पर हमारा आश्य किसी परीक्षा में अधिक अंक प्राप्त करने से नहीं है वरन् यह अपेक्षित है कि वह जो भी काम करे, उस में गुणवत्ता पूर्णरूपेन प्रकट हो। इस में परीक्षा का बाहर नहीं किया गया हे किन्तु परीक्षा ही सब कुछ नहीं है। एक उदाहरण। सत्तर की दशक में हजामत के लिये एक ब्लेड बाज़ार में आया था - इरास्मिक। पाॅंच ब्लेड का एक पैकट। वह इतना अच्छा था कि उस के लिये कतारें लगती थीं। सुपर बाज़ार द्वारा प्रत्येक ग्राहक को केवल एक पैकट दिया जाता था। माॅंग बहुत थी तथा पूर्ती कम। इस कारण उत्पादन बढ़ाया गया। एक वर्ष के बाद उसी बलेड के लिये बाज़ार में ग्राहक डूॅंढना पड़ता था। कारण उत्पादन बढ़ाने के चक्कर में गुणवत्ता को पूर्ववत नहीं रखा जा सका। उस की माॅंग गुणवत्ता के कारण ही थी। जब वही न रही तो माॅंग कैसे रह पाती। शिक्षा का उद्देश्य इस प्रकार की गुणवत्ता की ही बात है। इस ओर सदैव ध्यान रहे, यह पाठ जीवन के प्रथम चरण में ही समझाया जा सकता है। सदैव पूर्व से अच्छा करने की भावना का विकास इसी आयु में हो सकता है। यह उस पद्धति के विरुद्ध है जिसे चूहा दौड़ कहा जाता है। स्पष्ट है कि हर छात्र की अभिरुची अलग हो गी तथा उस के रुचि का कार्य भी अलग हो गा पर जो भी शाखा हो, उस में उसे उत्कृष्ठ श्रेणी तक ले जाना है। मुझे याद आता है कि प्रशिक्षण के दौरान एक पटवारी ने भी प्रशिक्षण दिया। उस का लेख इतना सुन्दर था कि उस के बराबर बाद में कोई नहीं मिला सिवाये मेरे सुपुत्र के। एक बार मैं ने उस के द्वारा जो नकशा बनाया गया था, उस में एक त्रुटि बता दी। चार घण्टे तक खेतों की कई बार पैमाईश कर उस ने मुझे प्रमाणित कर दिया कि उस का नकशा ठीक था पर मेरे द्वारा ही कुछ गल्त समझा गया था। यहाॅं उस को मेरे से कोई अपेक्षा नहीं थी। मैं उस का पर्यवेक्षण अधिकारी नहीं था, केवल प्रशिक्षणार्थी था। उस का मेरा सम्पर्क तीन अथवा चार दिन का ही था। पर उस की उत्कृष्ठता की भावना मुझे आज भी याद है जैसे वह कल की बात हो। कहने का अभिप्राय यह है कि उत्कृष्ठ कार्य कराने की यह भावना छात्र में शालेय समय में ही मन में भर दी जाना चाहिये। यही अध्यापन का मेरे विचार में तृतीय प्रयोजन है।


1948-50 की अवधि में हमारी शाला के एक अध्यापक थे। उन का कथन था - माया अंट की, विद्या कंठ की। जो पैसा अपने पास हो, वही हमारी पूंजी है। वही काम आये गा। किसी के पास जमा है तो वह हमारे त्वरित उपयोग के लिये नहीं है। इसी प्रकार विद्या वही है जो ज़बानी याद हो। प्राथमिक शाला में पहाड़ों का अभ्यास इतनी देर तक कराया जाता था जब तक कि वह कंठस्थ न हो जाये ताकि प्रश्न हल करते समय उस के बारे में सोचना तक भी न पड़े। यह स्थिति आज बदल चुकी है। पैसा तो बैंक में भी रह सकता है। डैबिट कार्ड, क्रैडिट कार्ड और मोबाईल में एप्प भी पैसा ही हैं जिन का तुरन्त उपयोग किया जा सकता है। इसी प्रकार जानकारी तो अब नैट पर उपलब्ध है। गूगल कीजिये, जानकारी पेश है। न हो तो किसी को सन्देश भेजिये, वह तलाश कर आप को मोबाईल पर भिजवा दे गा। पर अब भी इस बात की आवश्यकता है कि मालूम हो कि जानकारी की तलाश करना कहाॅं है। राजस्व विभाग का एक परीक्षापत्र होता था जिस में किताबें साथ में रखने की अनुमति थी। पर वह परीक्षापत्र सब से कठिन होता था। प्रश्न इस प्रकार के थे कि उस के लिये विशिष्ट जानकारी चाहिये होती थी। और जब तक पूर्व से कुछ ज्ञान न हो, उस सीमित तीन घण्टे की अवधि में उसे डूॅंढ पाना कठिन होता था। इस कारण यह आवश्यक है कि छात्र को इस बात का प्रशिक्षण भी दिया जाये कि किस जानकारी के लिये कहाॅं पर जाना है। इस का यह अर्थ नहीं है कि कुछ भी कंटस्थ नहीं होना चाहिये। मौलिक जानकारी तो पता होना ही चाहिये पर अधिक जटिल जानकारी देखी जा सकती है बशर्तें इस के बारे में ज्ञान हो कि उसे कहाॅं देखना है। इस के बारे में प्रशिक्षण की आवश्यकता है कि जानकारी कहाॅं पर हो गी तथा उस तक कैसे पहुॅंचा जा सकता हैं इस के लिये भी पूर्व में बताये गये कर्तव्य सहायक हों गे अर्थात इस के बारे में सोचने की कला को विकसित करना हो गा। यह आज के अध्यापन का अनिवार्य अंग होना चाहिये। इस प्रतिभा को विकसित करना ही अध्यापक का चौथा कर्तव्य है।


पाॅंचवाॅं कर्तव्य जिज्ञासा की भावना को विकसित कराना है। हमारे चारों ओर ऐसे व्यक्ति हैं जो यह मानते हैं कि उन्हों ने अपने विषय का तथा जीवन में काम में आने वाला ज्ञान प्राप्त कर लिया है तथा अब उस में समय समय पर थोड़ी बहुत अतिरिक्त जानकारी प्राप्त करने से अधिक कोई प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। वह दूरदर्शन तथा सामाजिक एप्प पर उपलब्ध जानकारी से ही संतोष कर लेता है। पर वास्तव में आगे बढ़ने के लिये इस से कुछ अधिक की आवश्यकता है। नये तथ्य, नई जानकारी प्राप्त करने की इच्छा ही जिज्ञासा है। जैसे कि पूर्व में कहा गया है, मानव को सदैव ऊपर की ओर उठने का प्रयास करना है। इस के लिये लक्ष्य के बारे में जानना बहुत आवश्यक है। विश्व में जितने भी आविष्कार हुए हैं अथवा जितनी खोज की गई है, वह सब इस जिज्ञासा की भावना का ही परिणाम है। कोलम्बस ने पृथ्वी के गोल होने की बात सुन कर ही सोचा कि यदि पूर्व से भारत में पहुॅंचने में कठिनाई है क्योंकि उस रास्ते में अनेक शत्रु हैं तो पश्चिम में जा कर क्यों नहीं भारत पहुॅंचा जा सकता। इसी जिज्ञासा ने अमरीका के महाद्वीप की खोज कराई। न्यूटन का जिज्ञासा हुई कि सेब नीचे क्यों गिरता है। वैसे तो अनेक लोगों ने सेब को गिरते देखा हो गा बल्कि प्रयास कर गिराया भी हो गा पर उन्हें इस की जिज्ञासा नहीं हुई और यह सेहरा न्यूटन के सर बंधा। भारत में हमारे ऋषियों को जिज्ञासा थी कि जीवन के आगे क्या है, मृत्यु के आगे क्या है। इस जिज्ञासा ने ही अद्वितीय दर्शन को जन्म दिया। इसी जिज्ञासा की भावना को प्रोत्साहित करना अध्यापक का पाॅंचवाॅं कर्तव्य है।


छटा तथा अंतिम कर्तव्य सहयोग की भावना को जागृत करना है। इस की आवश्यकता के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। यह प्रवृति आंगनवाड़ी से ही आरम्भ की जा सकती है। आजकल के एकल परिवार में आपसी मेल जोल कम ही रहता है तथा आंगनवाड़ी में ही प्रथम बार बच्चे को दूसरे बच्चों के साथ मिल कर कार्य करना पड़ता है। इसी में मिल जुल कर कार्य करना सिखाया जाना चाहिये जिसे प्राथमिक शाला तथा बाद में भी निरन्तर रखा जा सकता है। गृह कार्य देने की परम्परा तो पुरानी है पर इसे ही समूह में करने के साथ जोड़ा जाये तो इस से सहयोग की भावना बलवती हो गी जो जीवन भर काम आये गी। इस में संदेह नहीं है कि यह भावना खेलों के माध्यम से भी सीखी जा सकती है जिन में टीम बन कर खेलना अनिवार्य है। परन्तु इस का आरम्भ उस से भी पहले से होना उपयुक्त हो गा।


पूछा जाये गा कि इस में अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान का स्थान कहाॅं है। उस के बारे में हम ने कुछ नहीं कहा। विज्ञान की, इतिहास की, भूगोल की जानकारी कौन दे गा। वास्तव में देखा जाये तो यह सब ऊपर वर्णित कर्तव्यों में आ जाता है। हमारे आस पास क्या है, दूरस्थ स्थानों पर क्या है, यह जब जानने की जिज्ञासा हो गी तो भूगोल अपने आप इस में सम्मिलित हो जाये गा। क्या मानसिक शक्ति के विकास में यह बात नहीं आ जाये गी कि हमारा गणित दो आम और दो आम मिला कर चार आम प्राप्त करने से आरम्भ होता है पर शीघ्र ही इस से आगे बढ़ कर अंकों का बिना किसी वस्तु को ध्यान में लाये उस का योग पता लगा लेते हैं। यही मानसिक विकास का लक्षण है। स्थूल से सूक्षम की ओर बढ़ना। ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ना। अपने क्षितिज को फैलाते रहना। बात वही है, पर हम ने केवल इस को अन्य भाषा में प्रस्तुत किया है। एक सफल अध्यापक इन सभी कर्तव्यों को भली प्रकार निभाता है और वह ही छात्रों का प्रिय अध्यापक बनता है।


Recent Posts

See All
recalling story telling

recalling story telling the subject of today’s meeting was grandiose one – “Artificial General intelligence – myths, methods, madness. expected a wholesome menu of information. disappointment may be d

 
 
 
State of education

State of education Nearly 8,000 schools across India recorded zero student enrolments during the 2024–25 academic session, with West Bengal accounting for the largest share, followed by Telangana, acc

 
 
 
आर्य समाज और शिक्षा प्रसार

आर्य समाज और शिक्षा प्रसा र आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द द्वारा मुम्बई में अप्रैल 1875 में की गई। वह वेद आधारित समाज की रचना के...

 
 
 

Comments


bottom of page