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नियति

नियति


गंगा प्रसाद एक मामूली से दफतर में मामूली से कर्लक थे। मामूली से मकान में रहते थे। पर वे संतुष्ठ थे। अच्छा भला परिवार था। बीवी सुघड़ थी। गृहस्थी चलानेे में माहिर। बेटा था, होशियार, पढ़ाई में अच्छा। बेटी थी। सुन्दर, सुशील। और आदमी को क्या चाहिये। वह स्वयं आगे नहीं बढ़ पाये थे पर उन की दिली इच्छा थी कि उन के बच्चे आगे बढ़ें। उन्हों ने सब सर्फा कर के उन को शहर के सब से अच्छे स्कूल में और फिर कालेज में शिक्षा दिलाई थीं।

बेटे ने बी ए कर लिया। उसे अब नौकरी की तलाश करना चाहिये थी। नौकरी लग जाये गी तो फिर शादी की बात हो गी। शादी हो गी तो दहेज़ आये गा। वैसे गंगा प्रसाद को पैसे से मोह नहीं था न ही उन की बीवी को इस का लालच था। लेकिन दुनियादारी तो दुनियादारी है। कल को बेटी की शादी करना हो गी। कौन जाने, उन के समधी कितना दहेज़ मॉंगें। उन के पास तो पैसा था नहीं। बेटे का ही सहारा था। जो उस के दहेज में आये गा, उसी से बेटी केे हाथ पीले कर दें गे। अच्छी नौकरी लगी तो बेटे को कार भी मिल सकती हैं पर वह कार नहीं लें गे। तंग सी तो गली है, उस में कार आ भी कैसे पाये गी। कार के बदले वह नकद ले लें गे। बेटी की शादी के काम आये गा।

पर बेटे के विचार कुछ और थे। उस का मन दुनिया देखने का था। बचपन से उस छोटे से घर और छोटे से शहर के इलावा देखा ही क्या था। दोस्त यार तो विदेशों की बात बताते बताते थेकते नहीं थे। काश वह भी दुनिया को देख सकता। नौकरी के लिये तो सारा जीवन पड़ा है। बस एक बार घूम आये, फिर तो यहीं रहना ही है। एक दोस्त में सागर में क्रूज़ की बात बताई। बेटे को भा गई। पिता से कहा बस एक बार तो इच्छा पूरी कर दो।

पिता टाल नहीं ंसके। कौन रोज़ रोज़ फरमाईश करता है। आज्ञाकारी बेटा, साफ सुथरा जीवन। चलो इच्छा पुरी कर देते हैं। पी पी एफ से पैसा निकलवाया और क्रूज़ की टिकट ले दी। चार सप्ताह तक पूरी दुनिया घूमे गा, फिर इस में बन्ध कर रह जाये गा।

बेटा गया तो फिर वापस नहीं आया। एक दिन उस का पत्र आया। उसे क्रूज़ में एक फिलिपीन की लड़की से इश्क हो गया था। वह लड़की भी उस से प्रेम करने लगी थी। दोनों ने शादी कर ली है तािा अब वह मिलिपीन में ंरहे गा। उस ने अपना पता नहीं लिखा था पर लिफाफे से पताचला कि पत्र मनीला से लिखा गया है। पता नहीं तो क्या करें। आशीरवाद भी नहीं भेज सकते। उन का दहेज़ आने का सपना चूर चूर हो गया। अब बेटी का क्या हो गा। खैर जो होना था, हो गया। मन ही मन बंटे बहू को आशीरवाद दिया। शायद कभी लौट आये।

जीवन पुरानी पटरी पर चलने लगा। पी पी एफ भी गया, सो चिन्ता अधिक होने लगी। पर किया क्या जा सकता है। जीवन जो दिखाये।

बेटी के पेट में दर्द हो रहा था। मामूली बात है। डाक्टर को दिखाया। मुआईना करने के बाद वह बोली - आप की बेटी मॉं बनने वाली है। अचानक जैसे बिजली सी गिरी। अच्छी भली कालेज में पढ़ रही थी। यह क्या हुआ। पूछने पर उस ने लड़के का नाम बताया। वह काफी अमीर घर का था। पिता उस के बाप से मिला। अपनी बात बताई। बाप ने अपने बेटे को बुला कर पूछा। बेटे ने ज़िम्ेदारी से साफ इंकार कर दिया। लडकी के तो कई दोस्त थे। किस का यह किया है, उसे क्या मालूम। गंगा प्रसाद जी ने कहा कि आजकल साईंस का ज़माना है। डी एन ए से पता चल जाये गा, पिता कौन है।ं जब बेटी उस का नाम ले रही है तो उसे तो पता ही हो गा। आजकल हक तो अदालत से भी दिलाया जा सकता है।

लड़के बाप ने सलाह दी - ‘‘मेरी मानो, हमल गिरवा दो। रही अदालत की बात तो उस के तौर तरीके आप को मालूम नहीं। चक्कर ही काटते रह जाओं गे, हो गा कुछ नहीं। हॉं, तुम्हारे पास पैसा इफरात में है तो अलग बात है। पर अगर तंगी की हालत में हो तो मुकाबला नहीं कर पाओ गे। कुछ मदद कर दूॅं गा पर उस से ज़्यादा कुछ नहीं। रही गर्भपात की बात तो वह ज़िम्मा मेरा’’।

अब क्या? न गंगाराम कुछ जानता था, न उस की बीवी। किस से सलाह ले। कोई सलाह क्यों दे गा। सारे मौहल्ले में बात फैल जाये गी। सिर्फ़ ज़लालत ही हो गी।

वे दोनों सोच रहे थे - चूक कहॉं हो गई। अपने ऊपर खर्च न कर वह बच्चों का भविष्य सुधारने की चिन्ता करते रहे। उन्हें सब आराम दिया। अच्छे स्कूल में पढ़ाया, अच्छे कालेज में भेजा। घर के संस्कार सब बताये। घर की हालत को कभी नहीं छुपाया। फिर उन के साथ ऐसा क्यों हुआ। और आगे क्या हो गा।


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