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नवीन शिक्षा नीति सम्बन्धी विचार

  • kewal sethi
  • Jan 26, 2024
  • 3 min read

नवीन शिक्षा नीति सम्बन्धी विचार

आज श्री के रामाचन्द्रण, प्रसिद्ध शिक्षा विद्, की वार्ता थी। उन का विषय था - क्या वर्ष 2047 तक भारत को प्रथम पंक्ति का विकसित देश बनाया जा सकता है।

उन के विचार के अनुसार इस के लिये सब से पहले हमें तब तक 95 प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य प्राप्त कर लेना चाहिये। कम से कम पचास प्रतिशत विद्यार्थी उच्च श्क्षिा में प्रवेश लेने वाले होना चाहिये। उन का कहना था कि एशिया के जितने भी देश आर्थिक दृष्टि से स्मृद्ध हुये हैं, उन सब में साक्षरता दर नब्बे से अधिक थी। शिक्षा का स्वरूप भी ऐसा होना चाहिये कि विद्यार्थी समस्या समाधान का माध्यम बन सकें। केवल परीक्षा पास करना लक्ष्य नहीं होना चाहिये। वास्तव में छात्र इस प्रकार तैयार करना हों गे कि वह स्वतन्त्र रूप से सोच सकें। सब से बड़ी आवश्यकता सहज बुद्धि की है। केवल किताबी ज्ञान से काम नहीं चले गा। दूसरे शब्दों में इस का मतलब है कि हर छात्र के पास कौशल होना चाहिये। नई शिक्षा नीति इसी ध्येय को ले कर चल रही है। संचार एवं संवाद के लिये छात्र को तैयार किया जाना हो गा।

नई शिक्षा नीति में दूसरी विशेषता विषय चुनने में लचीलापन प्रदान करने की है। केवल किसी एक ही निकाय - विज्ञान, यॉंत्रिकी इत्यादि - में ही सीमित रहने की बात आज के कम्प्यूटर युग में पूर्ण शिक्षा नहीं कहलाये गी। अधिक आवश्यकता सीखने की क्षमता में वृद्धि करने की है। सूचना जानकारी के तो आजकल बहुत साधन हैं। उन से वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना नई कला है।

नई शिक्षा नीति की तीसरी विशेषता शालापूर्व शिक्षा की है। तीन वर्ष की आयु से ही बच्चे की शिक्षा आरम्भ करने का अर्थ है कि उस की नींव पक्की हो तथा वह वैसे गुण अन्तर्सात कर सके जो जीवन यापन के लिये आवश्यक हैं अर्थात सहयोग, आदर, सहनशीलता, शालीनता इत्यादि गुण।

मूल्योें की बात की जाती है किन्तु अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मूल्य आधारित शिक्षा दी जाये। छात्रों को कुछ उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि छात्र को स्वयं ही पर्यावरण से इस का अनुभव होना चाहिये।ं मूल्यों के लिये समाज के सामान्य क्रिया कलाप का भी इस में येागदान रहता है। यदि चारों ओर भ्रष्टाचार ही विद्यमान है तो बच्चे से उम्मीद करना कि वह इस से बचे गा, कठिन बात है।

सही शिक्षा के लिये शाला में तथा बच्चे के माता पिता में सम्पर्क होना बहुत आवश्यक है। अध्यापक सामाजिक सम्बन्धों की एक सक्षम तथा प्रभावकारी कड़ी है। परन्तु इस में दूसरी कड़ी, अर्थात माता पिता भी उतनी ही महत्वपूूर्ण है। इन दोनों के साम॰जस्य से ही बात बन सकती है।

भारत में इस समय लगभग 80 लाख अध्यापक हैं। इन सभी को पुनर्विन्यास एक लम्बी एवं कठिन प्रकिया है। आन लाईन प्रशिक्षण द्वारा इस का प्रयास किया जा सकता है परन्तु इस के लिये उपयुक्त साफ्टवेअर तैयार करना हो गा। इस बात का प्रयास किया जा रहा है कि अध्यापक प्रशिक्षण महाविद्यालय में ही अध्यापन में ही उन्हें इस ओर संवेदनशील किया जाये ताकि छात्र केन्द्रित शिक्षा आ सके। कार्यरत शाला अध्यापकों के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम आरम्भ किया गया है जो आन लाईन होने की अपेक्षा है।

शिक्षा मे सात सूचकांक हैं जिन की ओर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इन में वित्तीय साक्षरता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मणन शक्ति इस का दूसरा महत्वपूर्ण अंग है। प्रजातान्त्रिक मूल्यों को भी इस में शामिल करना हो गा। अपनी संस्कृति को समझने तथा उस को ग्रहण करना आवश्यक है। इसी के साथ वित्तीय अधिकार और विस्त्तार के बारे में भी शिक्षा का योगदान महत्वपूर्ण है।

उच्च शिक्षा में भी प्राध्यापकों के लिये भी उच्च शिक्षा आयोग ने आन लाईन कार्यक्रम आरम्भ करने का प्रस्ताव किया है।


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