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नवीन शिक्षा नीति- शालेय शिक्षा

नवीन शिक्षा नीति

केवल कृष्ण सेठी

शालेय शिक्षा


भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति की घोषणा कर दी है। इस में उन्हों ने कस्तूरीरंगन समिति की लगभग सभी बातें स्वीकार कर ली हैं विशेषतया शाला शिक्षा के बारे में। कस्तूरीरंगन समिति के प्रतिवेदन में शाला शिक्षा के बारे में उन के विचार यहॉं प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो नई शिक्षा नीति के अंग माने जा सकते हैं।


कस्तूरीरंगन समिति का गठन जून 2017 में किया गया था। इस से पूर्व 2015 में शिक्षा नीति के संदर्भ में कई स्तर पर सम्मेलन हुये थे। वर्ष 2016 में टी एस आर सुभ्रामनियम समिति ने इन पर विचार किया था तथा अपना प्रतिवेदन शासन को दिया था किन्तु इस पर आगे की कार्रवाई नहीं हो पाई। इस कारण नई समिति का गठन किया गया। यद्यपि अपेक्षा थी कि यह समिति पूर्व में किये गये कार्य को आगे बढ़ाये गी किन्तु इस में सदस्यों द्वारा नये सिरे से विचार किया गया। इस का प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया जिसे सार्वजनिक जानकारी के लिये प्रकाशित किया गया तथा जनता के विचार जानने के लिये एक अगस्त 2019 तक का समय दिया गया। कई लाख सुझाव प्राप्त हुये जिन का विवरण तो उपलब्ध नहीं है परन्तु उन पर विचार के पश्चात नई शिक्षा नीति घोषित की गई हैजो, जैसा कि पूर्व में कहा गया है अनुशंसाओं के अनुसार ही है। इन का सार प्रस्तुत किया जा रहा है।


शाला पूर्व शिक्षा


समिति द्वारा अपना विचार शाला पूर्व शिक्षा से आरम्भ किया गया है। उन का निश्चित मत है कि शाला पूर्व शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाये। समिति का कथन है कि विद्वानों का मत है कि बुद्धि का 85 प्रतिशत विकास छह वर्ष की आयु से पूर्व हो जाता है। यह भी अनुमान किया गया है कि इस स्तर पर एक रुपये के निवेश का लाभ दस रुपये तक होता है।

देखा गया है कि 2 से 4 वर्ष तक तो आँगन वाड़ी का कार्य ठीक रहता है किन्तु बाद में शैक्षिक कार्य के अभाव में मातापिता बच्चों को शाला में भेजना पसन्द करते हैं तथा 4 से 6 वर्ष के बच्चे आँगनवाड़ी में कम आते हैं।


इस लिये यह आवश्यक है कि वर्तमान में कार्यरत आँगनवाड़ियों में ही यथा सम्भव 3 से 8 वर्ष समूह में शिक्षा का प्रबन्ध किया जाये। इन में संख्या, भाषा तथा सरल समस्याओं के समाधान की बात सिखाई जाये। इन में स्वास्थ्य सम्बन्धी जाँच एवं पोषण सम्बन्धी कार्य भी किया जाये। स्वच्छता, परिवार से अलग रहने की आदत, साथियों के साथ सम्पर्क एवं परस्पर सहयोग की भावना विकसित की जायें।


समिति की अनुशंसा है कि शालापूर्व शिक्षा को शिक्षा के अधिकार अधिनियम का अंग बना दिया जाना चाहिये। तथा इस के शैक्षिक भाग को मानव स्रोत मन्त्रालय के अन्तर्गत कर दिया जाना चाहिये। एन सी ई आर टी को इस के लिये पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिये। इस आयु में संख्या, भाषायें, तथा सरल प्रश्नों के बारे में बताया जाना चाहिये। इस के लिये विशेष प्रशिक्षित शिक्षक रखे जायें। इस आयु में बच्चे भाषाओं कों सरलता से सीखते हैं अतः इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिये। इस आयु में मौलिक बातें जैसे सहयोग भावना, जिज्ञासा, सहनशीलता, सिखाई जाना चाहिये।


इस संदर्भ में विशिष्ट अनुशंसायें हैं -

1. शिक्षा के अधिकार अधिनियम का विस्तार कर इस में शाला पूर्व स्तर भी शामिल किया जाये।

2. आँगनवाड़ी का विस्तार किया जाये तथा इसे 8 वर्ष तक के बच्चों को देखने का दायित्व दिया जाये। इस में कक्षा एक तथा दो के लिये शिक्षा का उचित प्रबन्ध किया जाये।

3. यथा सम्भव प्राथमिक शाला को आँगनवड़ी के साथ ही रखा जाये।

4. शासन स्तर पर शालापूर्व शिक्षा का दायित्व भी शिक्षा मन्त्रालय को दिया जाये जो पाठफयक्रम एवं अध्यापन पद्धति को देखे गा।

5. यथा सम्भव स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री का उपयोग कर शिक्षा समाग्री तैयार की जाये।

6. वर्तमान में आँगनवाड़ी में कार्यरत व्यक्तियों को छह महीन का विशेष प्रशिक्षण दिया जाये ताकि वे शिक्षा का दायित्व सम्भाल सकें।


साक्षरता एवं संख्या ज्ञान


मुख्य अनुशंसायें निम्नानुसार हैं -

1. समिति की राय में शालेय शिक्षा की हालत शोचनीय है। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में स्थिति इतनी खराब है कि पाँचवीं कक्षा के छात्र दूसरी कक्षा की पुस्तक भी नहीं पढ़ पाते। अध्यापक छात्र अनुपात 30ः 1 से भी अधिक है। अघ्यापक स्थानीय क्षेत्र से नहीं होते तथा भाषा के कारण आपसी वार्तलाप में कठिनाई होती है। छात्र अनजानी भाषा में पढ़ने से भी उकताते हैं। इस का समाधान करने के उपाय स्वयं स्पष्ट हैं।

2. एक से एक का तरीका सब से उत्तम है। वरिष्ठ छात्र कनिष्ठ छात्रों को पढ़ा सकते हैं। इस के लिये एक राष्ट्रीय टयुटर कार्यक्रम बनाया जाना चाहिये।

3. छात्रों के स्वास्थ्य का विशेष घ्यान रखा जाये। दोपहर भोजन के साथ साथ नाश्ता भी दिया जाना चाहिये जिस से उन में पढ़ने की स्फूर्ति बनी रहे गी।

4. संख्या ज्ञान तथा पठन क्षमता पर कक्षा एक से तीन में अधिक ध्यान दिया जाये। कक्षा 4 तथा 5 में लिखने का अभ्यास करवाया जाना चाहिेये। भाषा सप्ताह तथा संख्या सप्ताह का आयोजन किया जाये तथा इन के माध्यम से इन विषयों में रुचि पैदा करने का प्रयास किया जाना चाहियेे। पाठ्यक्रम पुस्तक के अतिरिक्त अभ्यास पुस्तिका भी दी जाना चाहिये।

5. माता पिता के साथ सम्पर्क बढ़ाने के लिये समाज से भी स्वयंसेवक लिये जाना चाहिये जो माता पिता से अधिक बेहतर सम्पर्क कर सकते हैं। वह शाला त्यागी छात्रों को वापस लाने में भी सहायता कर सकते हैं।

6. छात्रों का सतत अनुकूलित आंकलन होना चाहिये न कि केवल वर्ष के अन्त में परीक्षा द्वारा।

7. कक्षा एक में तीन में प्रारम्भिक महीने केवल शाला के वातावरण में समाहित होने के लिये दिये जाना चाहिये।

8. अध्यापक को छात्र के मातापिता से कम से कम वर्ष में दो बार मिलना चाहिये।

9. अध्यापकों को विशेष रूप से प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये ताकि वह छात्रों को साक्षरता तथा संख्या ज्ञान के लिये प्रेरित कर सकें तथा उन्हें एक पुख्ता नींव प्रदान कर सकें।

10. पुस्तकालय सेंवाओ का विस्तार किया जाये तथा इन का पठन सप्ताह इत्यादि में खुल कर उपयोग किया जाना चाहिये।


शाला त्यागी


समिति ने पाया है कि कक्षा 5 के पश्चात बड़ी संख्या में छात्र आगे की पढ़ाई छोड़ देते हैं। आठवीं कक्षा के पश्चात तो इन की प्रतिशतता और बढ़ जाती है। अनुमानित है कि 6 वर्ष से 18 वर्ष के बीच के 6.2 करोड़ बच्चे वर्ष 2015 में शाला से बाहर थे।

इस का एक कारण उच्च स्तरीय शालाओं का कम होना है। प्रत्येक 100 प्राथमिक शालाओं की तुलना में 50 उच्च प्राथमिक, 20 माध्यमिक तथा 9 वरिष्ठ माध्यमिक शालायें हैं। शाला त्याग का एक बड़ा सम्भावित कारण है कि उच्च कक्षा वाली शालायें घर से बहुत दूर हैं।

कई बच्चे फासले के कारण नहीं वरन् शिक्षा के रोचक अथवा उपयोगी न होले के कारण भी शाला त्याग देते हैं।

इस का समाधान इस में है कि वर्तमान शालाओं को उच्च कक्षाओं के लिये भी निरन्तर रखा जाये। शिक्षा के अधिकार सम्बन्धी अधिनियम में संशोधन कर कक्षा 12 तक सभी छात्रों के लिये शाला अनिवार्य हो तथा निशुल्क हो। इन में गुणात्मक शिक्षा की व्यवस्था हो, ताकि 2030 तक पूर्व प्राथमिक शाला से ले कर कक्षा 12 तक सौ प्रतिशत बच्चे शाला में ही रहें।

जो शालायें निवास स्थान से अधिक दूर हैं, उन के लिये परिवहन की विशेष व्ववस्था की जाना चाहिये, जैसे साईकल प्रदाय, रिक्शा प्रयोग के लिये वित्तीय सहायता, बसें, परिवहन भत्ता, अच्छी सड़कें इत्यादि। लड़कियो की सुरक्षा का विशेष प्रबन्ध होना चाहिये। रास्ते में छेड़ छाड़ की स्थिति न आये, इस कारण विशेष पुलिस व्यवस्था होना चाहिये।

कई बच्चे स्वास्थ्य के कारण भी शाला त्याग देते हैं। इस लिये शालाओं में स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये। इस के लिये वहाँ के निवासियों को भी स्वच्छता, टीकाकरण, बीमारियों इत्यादि के बारे में ज्ञान दिया जाना चाहिये।

जो बच्चे शाला त्याग देते हैं, उन्हें वापस ला कर विशेष सहायता दे कर पुनः नियमित कक्षाक्रम में लाया जाना चाहिये। 15 वर्ष से अधिक आयु के बच्चों को प्रौढ़ शिक्षा का विकल्प भी दिया जाना चाहिये। इस के लिये राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय संगठन का विस्तार किया जाना चाहिये तथा राज्यों में भी क्षेत्रीय भाषा के लिये इसी तरह के संगठन बनाये जाना चाहिये। इन मुक्त शाला संगठनों में तीसरी, पाँचवीं तथा आठवीं कक्षा के समकक्ष पाठन की व्यवस्था की जा सकती है। इसी तारतम्य में निजी शालाओं, गुरूकुल, मदरसा इत्यादि को खोले जाने के लिये अनिवार्य शिक्षा अधिनियम में कुछ ढील दी जाये गी जिस में बच्चों की सुरक्षा, गुणवत्ता का प्रावधान तथा लाभहीन व्यवस्था का ध्यान रखा जाये गा।


अध्यापन कला तथा पाठ्यक्रम


दस जमा दो की व्यवस्था 50 वर्ष से कार्य कर रही है किन्तु इक्कीसवीं शाताब्दी की चुनौती का सामना करने के लिये इस में परिवर्तन आवश्यक है। इस का मुख्य कारण आधारभूत शिक्षा पर अधिक महत्व देना है। इस की भी आवश्यकता है कि कक्षा 12 तक की शिक्षा अनिवार्य की जाये। 14 वर्ष का बच्चा अपने भविष्य के बारे में सोचने लगता है। विश्वविद्यालय, व्यवसाय चयन पर उस के विचार केन्द्रित हो सकते हैं। इन के लिये उसे सभी विकल्पों की तथा तत्सम्बन्धी विषयों की जानकारी होना चाहिये ताकि वह उचित निर्णय ले सके। इस कारण नौवीं से बारहवीं कक्षा तक उसे कई विषयों का परिचय दिया जाना हो गा तथा इस में लचकीलापन भी रखना हो गा।

संक्षप में यह व्यवस्था 5 + 3 + 3 + 4 हो गी। आधारभूत शिक्षा (3 वर्ष शाला पूर्व के तथा कक्षा 1 एवं 2) में वह खेल खेल में ही सीखे गा। कक्षा 3 से 5 उस में पाठ्यपुस्तकें भी जोड़ी जायें गी। कक्षा 6 से 8 में अधिक संरचना युक्त शिक्षा हो गी। सभी विषयों का अध्यापन उन के आधार सिद्धाँतों तथा मुख्य बिन्दुओं तक सीमित रखा जाये गा ताकि विषयों को अधिक गहराई से जानने का अवसर उपलब्ध हो सके। कक्षा 9 से 12 में उसे विभिन्न विषयों के बारे में अग्रवर्ती जानकारी उपलब्ध हो पाये गी। इस अवधि में 5 से 6 विषयों में अधिक गहराई से अध्ययन किया जाये गा ताकि इन विषयों में आत्मसात करने का अवसर प्राप्त हो सके तथा आगे की व्यवसायिक अध्ययन में सहायक हो।

सभी स्तर पर भारतीय तथा स्थानीय परम्पराओं की जानकारी के साथ साथ नैतिकता सम्बन्धी विचार, वैज्ञानिक सोच, डिजिटल संज्ञान, भाषा पर अधिकार, एवं संवाद कला पर उचित ध्यान दिया जाना चाहिये।

इस के लिये कला, खेल, पर भी ध्यान दिया जाये गा जो जीवन को समग्र बनाने में सहायक होती हैं। समग्रता का यह विचार महाविद्यालय स्तर पर उच्च शिक्षा में भी निरन्तर रखा जाना उचित हो गा।

शाला अध्यापन में छात्र को रोज़गार क्षेत्र में परिवर्तनशील विभिन्न व्यवसायों के बारे में बताया जाये गा ताकि वह अपने लिये उपयुक्त विषय चुन सके जो उस के पसंदीदा घन्धे के अनुरूप हो।


अध्यापन कला


अल्पायु बच्चे अपनी घरेलू भाषा में कही गई बात को सरलतापूर्वक ग्रहण कर सकते हैं अतः पाठ्य पुस्तकें स्थानीय भाषा में ही होना चाहिये। कम से कम पाँचवीं कक्षा तक तथा यथा सम्भव आठवीें कक्षा तक, अध्यापन का माध्याम भी स्थानीय घरेलू भाषा ही होना चाहिये। उस के पश्चात इसे एक विषय के रूप में पढ़ाया जा सकता है। इस के लिये, आवश्यक हो तो, द्विभाषीय शिक्षा सामग्री भी तैयार की जा सकती है। इस व्यवस्था को स्थापित करने के लिये अध्यापकों को भी उसी क्षेत्र से चुनना आवश्यक हो गा। भारतीय भाषायें सदियों में विकसित हुई हैं, अधिक वैज्ञानिक हैं, तथा हर प्रकार के विचार उन में व्यक्त हो सकते हैं। अंग्रेज़ी के ज्ञान का उपयोग कई बार यह तय करने के लिये किया जाता है कि कोई व्यक्ति शिक्षित है अथवा नहीं। यह उचित नहीं है विशेषतः जब प्रस्तुत कार्य से इस का कुछ लेना देना न हो। इस के कारण किसी को रोज़गार से वंचित रखने का कोई तुक नहीं है।


इस विचारधारा के कारण ही कई रोज़गार आर्थिक रूप से पिछड़े हुये लोगों को वंचित रखा जाता है यद्यपि उन में से कई अत्यन्त बुद्धिमान एवं निपुण लोग है जिन की कमज़ोरी केवल यह है कि वेे वर्तमान तथाकथित उच्च वर्ग की भाषा नहीं जानते हैं। इस से माता पिता में अप्राकृतिक तौर पर आंग्ल भाषा के सीखने पर ज़ोर दिया जाता है। यह बच्चे के हित में नहीं होता है। परन्तु यह महत्वपूर्ण है कि जो बच्चे स्नातक स्तर पर अथवा स्नातकोत्तर स्तर पर विज्ञान सम्बन्धी विषय पढ़ना चाहते हैं, उन्हें द्विभाषीय होना चाहिये अर्थात अंग्रेज़ी जानना चाहिये। अन्य विदेशी भाषायें जैसे जापानी, फ्राँसीसी, स्पैनिश भी इस स्तर पर सिखाई जा सकती हैे।


यह सामान्य अनुभव है कि अपनी भाषा, संस्कृति तथा परम्परा में दक्ष व्यकित तकनालोजी प्रगति में भी अग्रणी रहता है। संस्कृत, तमिल, पाली, प्राकृत जैसी शास्त्रीय भाषाओं का सौंदर्य अतुलनीय है। संस्कृत का भारतीय भाषाओं के विकास में तथा ज्ञान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।


समिति का विचार है कि शालेय शिक्षा में कक्षा 6 से 8 के बीच छात्र को दो वर्ष किसी एक परम्पारिक भाषा का अध्ययन करना चाहिये। उसे कला सम्बन्धी एक विषय भी लेना चाहिये जिस से उस के संवाद की - लिखित तथा मौखिक - क्षमता में वृद्धि हो गी।


आधारभूत शिक्षा में बच्चों द्वारा अपनी कृति प्रस्तुत करने तथा उसे समझाने (शो एण्ड टैल) की विधा बहुत उपयोगी पाई गई है। इसी प्रकार शारीरिक शिक्षा, मन तथा शरीर को स्वस्थ रखने के महत्व के बारे में भी बताया जाना चाहिये। पेहलियों, बौद्धिक खेल, तथा कौशल आधारित गणित के माध्यम से भ्ी बहुत कुछ सीखा जा सकता है।


हमारे देश को सुचारु रूप से चलाने के लिये के लिये व्यवसायिक शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है। इस कारण इस को आरम्भ से ही पाठ्यक्रम का भाग बनाया जाना बहुत आवश्यक है। एक अन्य अत्यन्त आवश्यक भाग डिजिटल साक्षरता का है। इस में वास्तविक आज की स्थिति को आधार बनाया जाना चाहिये।


अघिक वरिष्ठ स्तर पाठ्यक्रम को इन बिन्दुओं पर विकसित किया जाये गा -

1. कम्मपयूटर आधारित सोच, जो किसी प्रोग्राम को लिखने में सहायक हो गी।

2. प्राोग्राम बनाने तथा अन्य कम्प्यूटर कार्य का ज्ञान


इस के अतिरिक्त नैतिक शिक्षा के बारे में भी प्रारम्भ में ही ज़ोर दिया जाना चाहिये। इसी से वे अच्छे नागरिक बन सकें गे।

सभी पाठ्यपुस्तकों में आवश्यक आधार सामग्री होना आवश्यक है जिस में चर्चा, विश्लेषण तथा उदाहरण शामिल हों गे। इन में राष्ट्रीय परिपेक्ष्य को ध्यान में रखा जाये गा किन्तु साथ ही स्थानीय संदर्भ तथा स्थिति विवरण की भी गुंजाईश रखी जाये गी। यथा सम्भव, अध्यापकों को राष्ट्रीय स्तर पर तैयार विभिन्न पाठ्यपुस्तकों में से चुनने की गुंजाईश रहे गी। इस से वे अपनी शैली के अनुसार अध्यापन करा सके गे तथा छात्रों की रुचि को भी ध्यान में रख सकें गे।


एन सी ई आर टी द्वारा तैयार आधार पाठ्य सामग्री तथा राज्यों द्वारा स्थानीय स्थिति के अनुरूप पूरक सामग्री सहित यह पुस्तकें छात्रों को अपनी आन्तरिक प्रतिभा को निखारने में योगदान दे सकती है।


परीक्षा सम्बन्धित विचार


छात्रों की योग्यता का आंकलन का लक्ष्य ही रट्टा लगाने की परमम्रा से हट कर अधिक रचनात्मक, ज्ञानवर्धक, विलेषण शक्तिवर्घन, तथा सिद्धाँतो की स्पष्टता को आंकने वाली होनी चाहिये। इस में छात्रों, अध्यापकों तथा समस्त शाालेय प्रणाली को अध्यापन कला को विकसित करने में सहायता मिलना चाहिये। कुछ विशिष्ट विषयों पर ध्यान केप्द्रित करने के स्थान पर सम्पूर्ण विकास का अवसर प्रदान किया जाना चाहिये।


अभी केवल कक्षा 10 तथा 12 में परीक्षा का आयेाजन किया जाता है जो प्राप्त तथा स्मरण किया गये ज्ञान पर, न कि रचनात्मक समझ पर आधारित है। यह परीक्षायें भी निर्धारित समय पर ही होती हैं जिस में छात्रों द्वारा अवसर खो देने की सम्भावना रहती है। यदि छात्र इस में उपस्थित न हो सके तो उसे पूरे एक वर्ष प्रतीक्षा करना पड़ती है। दूसरे यह परीक्षा भी पूर्व निर्धारित कुछ ही विषयों में होती है। तीसरे इन परीक्षाओं में प्राप्त अंक जीवन भर बाूंधे रखते हैं। इस स्थिति में परिवर्तन की नितान्त आवश्यकता है।


इस के स्थान पर छात्र को किन्हीं भी विषयों के चयन का विकल्प दिया जाना चाहिये। परीक्षा में भी ज्ञान के सही आंकलन पर ज़ोर दिया जाना चाहिये। परीक्षा इतनी सरल होना चाहिये कि जो छात्र शाला में ध्यान देता रहे, वह परीक्षा में सफल हो जाये। छात्र को यह भी सुविधा दी जाना चाहिये कि वह जिस सीमेस्टर में विषय ले, उस के अन्त पर उस में परीक्षा दे सके।


उन्हें यह भी अनुमति होना चाहिये कि यदि वह दौबारा किसी विषय में परीक्षा देना चाहे तो दे सके। विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षाओं में भी ऐसे ही सिद्धाँत अपनाने चाहिये। प्रत्येक विश्वविद्यालय द्वारा इस परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर प्रवेश दिया जाना चाहिये। विश्वविद्यालयों द्वारा अलग अलग परीक्षा की व्यवस्था समाप्त की जाना चाहिये।


शाला स्तर पर भी समय समय पर छात्रों के ज्ञान की विकास की दृष्टि से परीक्षण करते रहना चहिये। इस से छात्रों तथा अध्यापका - ंदोनों - को ही लाभ हो गा। वे अपनी प्रगति की जाँच कर सकें गे तथा सुधारात्मक कार्रवाई कर सके गे। इस में पुस्तकों के साथ परीक्षा देने की पद्धति को भी अपनाया जा सकता है।


कक्षा 3, 5 तथा 8 पर राज्य स्तर पर परीक्षा की भी व्यवस्था होना चाहिये।


जैसा कि पूर्व में कहा गया है वर्ष में एक बार परीक्षा होने की पद्धति छात्रों के हित में नहीं है। सीमेस्टर अंत में वर्ष में दो बार परीक्षा होना चाहिये। जब कम्प्यूटर द्वारा आंकलन की विधि विकसित हो जाये गी तो मण्डल परीक्षाओं को माँग अनुसार आयोजित करने की अर्हता बढ़ जाये गी तथा तदनुसार मा1ग आधारित परीक्षा आयोजित की जा सके गी।


समग्र विकास की दष्टि से प्रत्येक छात्र को माध्यमिक स्तर पर दो सीमेस्टर में गणित, दो में विज्ञान, एक में भारतीय इतिहास, एक में विश्व इतिहास, एक में वर्तमान भारत सम्बन्धी विषय, एक में नैतिकता तथा दर्शन, एक में अर्थशास्त्र, एक में वाणिज्य, एक में कम्पयूटर, एक में कला, दो में व्यवसायिक शिक्षा के सीमेस्टर लेना अनिवार्य हो गा। इस के अतिरिक्त तीन भाषाओं में मण्डल की आधार परीक्षा लेना आवश्यक हो गी। इन के साथ ही वे विषय भी हों गे जो वह अपनी भविश्य की योजना के अनुसार लेना चाहें गे। इन में उच्च स्तरीय अध्ययन हो गा। यह गणित, साँख्यिकी, विज्ञान, कम्पयूटर प्रोग्रामिंग, इतिहास, कला, भाषा तथा व्यवसायिक विषयों में हो सकते हैं। कुल मिला कर छात्र को 24 विषयों में परीक्षायें लेना हों गी। इस तरह प्रत्येक सीमेस्टर में तीन विषय का औसत आ जाये गा।


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