top of page
  • kewal sethi

धर्म का स्वरूप



धर्म का स्वरूप

महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयाईयों को कहा

तपाच छेदाच च निकसात सुवर्णम इव पणिडत:।

परीक्ष्या भिकक्षावों ग्रहण मद वाचो न तु गौरवात।।

''हे भिक्षुगण! मेरे शब्दों को केवल इस कारण मत मानो कि वह मैं ने कहे हैं। उन्हें सत्य की कसौटी पर परखो उसी तरह जैसे बुद्धिमान व्यक्ति सोने को जला कर, काट कर और कसौटी से रगड़ कर ही खरा सोना मानते हैं।

यह बात उन्हीं के द्वारा कही जा सकती है जो अपने ज्ञान के प्रति न तो अभिमान रखते हैं और न ही उन को किसी से भय लगता है। वह सत्य की खोज में हैं और उन्हों ने अपनी लग्न से सत्य को पा लिया है। उपनिषदों में यह भी कहा गया है कि ''एकं सत्यं बहुधा वदन्ती विप्र:। इसी कारण इन मुक्त व्यकितयों को कोई भय नहीं सताता कि उन के द्वारा प्रतिपादित सत्य को चुनौती दी जाये गी।


एक उक्ति है ''येन महाजना: गता: सा: पंथा।

अर्थात जिस दिशा में महान लोग जायें, वही सही मार्ग् है।

परन्तु इस के साथ यह भी कहा गया है कि

न हि सर्वहित: कशिचदाचार: संप्रवर्तत्ते।

तेनैवान्य: प्रभवति सोऽपरं बाधते पुन:।।

अर्थात ऐसा आचार नहीं मिलता जो हमेशा सब लोगों के लिये समान हितकारक हो। वह कई बार एक दूसरे का विरोध करते हैं। ऐसे में यही सलाह दी जाती है कि उन पर विचार कर अपना स्वयं का निर्णय लिया जाये। (शांडिल्य सूत्र)

श्रीमद गीता में सब उपदेश देने के बाद भी भगवान कृष्ण अर्जुन को कहते हैं

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यदगुह्यतरं मया।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा करु।।

अर्थात करना अपनी समझ से ही है। गुरू केवल ज्ञान देता है निर्देश नहीं।


भारत में धार्मिक अन्वेषण में तीन चरणों में किये जाने की परम्परा है। प्रथम गुरू के शब्दों को सुनना, दूसरे उन शब्दों के अर्थ पर मनन करना। तीसरे उन के शब्दों पर ध्यान लगाना ताकि उन का वास्तविक अर्थ समझ में आ सके और अपने अनुभव के अनुरूप हो। मनन करने की प्रक्रिया में तर्क तथा शास्त्रार्थ भी शामिल था। इस में यह संभव था कि कोई व्यक्ति अपने स्वयं के गल्त या सही निर्णय पर पहुँचे पर इस में भारतीय परम्परा को आघात नहीं होता था क्योंकि अन्तत: सब का लक्ष्य सत्य को पाना था। इसी कारण धर्म भारतीयों के लिये केवल बौद्धिक सम्पत्ति न हो कर जीवन का अंग बन गया है।


गुरू नानक जी ने भी जपजी में सुनने पर ज़ोर देने (पौड़ी 8-11) में सुनने की बात कही गई है। इस के साथ साथ उस पर मनन करने (पौड़ी 12-15) भी शामिल की गई है। तथा ध्यान करने को (पौड़ी 16-19) भी महत्व दिया है। उन का कहना है

मन्ने मग न चले पंथ।

मन्ने धर्म सेती संबंध।।

मनन करने पर ही धर्म से सीधा सम्बन्ध कायम होता है। बताये हुए रास्ते पर आँख मूँद कर चलना आवश्यक नहीं है। हम में से हर एक को अपने लिये सत्य की खोज करना है। इस में पूर्व की खोज हमारी सहायक हो गी पर खोज करने की आवश्यकता रहे गी। किसी का पुण्य हमारे पाप को नष्ट नहीं कर सकता। उस के लिये हमें ही प्रयास करना होगा। तभी जीवन सफल हो पाये गा।


2 views

Recent Posts

See All

जापान का शिण्टो धर्म

जापान का शिण्टो धर्म प्रागैतिहासिक समय में यानी 11,000 ईसा पूर्व में, जब जापानी खेती से भी बेखबर थे तथा मवेशी पालन ही मुख्य धंधा था, तो उस समय उनकी पूजा के लक्ष्य को दोगू कहा गया। दोगु की प्रतिमा एक स

उपनिषदों में ब्रह्म, पुरुष तथा आत्मा पर विचार -3

उपनिषदों में ब्रह्म, पुरुष तथा आत्मा पर विचार (गतांश से आगे) अब ब्रह्म तथा आत्मा के बारे में उपनिषदवार विस्तारपूर्वक बात की जा सकती है। मुण्डक उपनिषद पुरुष उपनिषद में पुरुष का वर्णन कई बार आया है। यह

उपनिषदों में ब्रह्म, पुरुष तथा आत्मा पर विचार -2

उपनिषदों में ब्रह्म, पुरुष तथा आत्मा पर विचार (पूर्व अ्ंक से निरन्तर) अब ब्रह्म तथा आत्मा के बारे में उपनिषदवार विस्तारपूर्वक बात की जा सकती है। बृदनारावाक्य उपनिषद आत्मा याज्ञवल्कय तथा अजातशत्रु आत्

bottom of page