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दिल्ली की दलदल

  • kewal sethi
  • Jan 29
  • 1 min read

दिल्ली की दलदल


बहुत दिन से बेकरारी थी कब हो गे चुनाव दिल्ली में

इंतज़ार लगाये बैठे थे सब दलों के नेता दिल्ली में

कुछ दल इतने उतवाले थे चुन लिये सब प्रत्याषी

कौन भला कब छोड़़ कर चल दे, शंका मन में थी

कुछ इंतज़ार में थे कोई तो आ कर नाव पार लगाये

क्या पता बिना पतवार के किस मंझधार में फंस जायें

कुछ को उलझन थी, इतने उम्मीदवार कतार में खड़े

दुविधा थी सामने बड़ी, किस को लें, किस को छोड़ें,

वक्त अपनी चाल चलता रहा, आयोग खामोश था

आखिर उस की भी समय सीमा थी यह होश था

जैसे ही प्रोग्राम उन्हों ने सुनाया सब रण में कूद गये

नये नारे बने नये गीत बने नये वायदे हुये, खूब हुये

पर इन से काम न बनता देख नई्र तरकीब लगाई

तरह तरह के इलज़ामों की जैसे बाढ़ थी आई

पर सब से बड़ा इलज़ाम का सेहरा किस को जाता

एक से एक धुरन्दर, सच झूट से कौन था घबराता

पर ईनाम तो एक को ही मिल सकता है आखिर

कौन वह है जो है इस दलदल में सब से षातिर

नहीं मैं नहीं बतलाऊॅं गा, मुझ को ही सब घेरें गे

कहें कक्कू कवि वे यह फैसला आप पर छोड़ें गे

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