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एवरो और हम

  • kewal sethi
  • Feb 3
  • 2 min read

एवरो और हम

बात थोड़ी पुरानी है जब एवरो प्लेन एअर इंडिया में हुआ करते थे। दिल्ली से ग्वालियर और भोपाल की उड़ान सप्ताह में तीन दिन हुआ करती थी। ग्वालियर में हमारी नियुक्ति थी और भोपाल जाना ही पड़ता था - कभी महीने में दो बार, कभी तीन बार। इंदौर, रायपुर का रास्ता भी भोपाल से ही था।

एक बार चले। हवाई जहाज़़ आया और मुसाफिर कुछ उतरे, कुछ चढ़े। हम चढ़ने वालों में थे। मौसम सुहाना था। रात को हलकी बारिश हो गई थी इस कारण हवा ठण्डी थी। ठीक समय पर जहाज़ चलने के लिये तैयार हो गया। रनवे पर जाने के लिये उस ने थोड़ा बैक किया पर थोड़ा ज़्यादा ही कर गया। नतीजा, हवाई जहाज़ के पहिये पक्की जगह से हट कर कच्ची जगह पर उतर गये। वर्षा के बाद के जिस सुहाने मौसम की हम ने बात की थी, वह सुहाना नहीं रहा।

पहला काम तो यह किया गया कि सभी या़ित्रयों को उतरने को कहा गया। उस के बाद पायलट ने कोशिश की कि जहाज़ कुछ आगे को आये पर कामयाब नहीं हुआ। दस बारह मिनट एअरपोर्ट अधिकारियों ने सोचा। उड़ान कैंसल करें और मदद दिल्ली से बुलाई जाये। पता नहीं वह कब आ पाये गी। और हम सोचते रहे, हमारी मीटिंग का क्या हो गा।

फिर किसी को एक ख्याल आया। क्या जहाज़ केा धक्का लगा कर पक्की जगह पर लाया जा सकता है। एअर पोर्ट पर तो गिने चुने लोग थे, इस कारण यात्रियों को कहा गया कि वह सहयोग करे। इस कारण हम सब ने मिल कर ज़ोर लगाया। कुछ इंजिन पर पायलट साहब ने कोशिश की। और जहाज़ वापस अपनी जगह पर आ गया। एवरो था तो काम बन गया, बोईग होता तो?

जाने से पूर्व यह ज़रूर हुआ कि सब यात्रियों को चाय पिलाई गई जो मीनू में तो नहीं थी। यह नहीं कह सकते कि उस के पैसे एअरलाईन ने दिये या हम में से किसी दरियादिल यात्री ने।

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