अली बनाम मुआविया
और
शहादत
इस्लाम धर्म के बानी हज़रत मुहम्मद ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया था। इस्लाम का नेतृत्व उन के निकट के लोगों द्वारा तय किया जाना था। इन में उन के दामाद अली, उन के सुसर अबु बकर और अन्य थे। हज़रत मुहम्मद हिजरत के बाद मदीना में ही रहे जहाँ पर बहुत से लोग उन के अनुयायी बने। उन का विचार था कि हज़रत मुहम्मद के जाँनशीन मदीना से ही हों। इस का फैसला एक बैठक में किया जाना था जिस में नौबत सिरफुटोवल तक आ गई। मदीना वाले इस में मात खा गये और अबु बकर को खलीफा घोषित कर दिया गया। अली हज़रत मुहम्मद को दफनाने के चक्र में थे तथा इस बैठक में भाग नहीं ले पाये। उन्हों ने अबु बकर के प्रति तुरन्त वफादारी भी ज़ाहिर नहीं की।
हज़रत मुहम्मद की वफात के बाद कई अरब कबीलों ने मदीना का हुकुम मानने से इंकार कर दिया। इस के फलस्वरूप रिद्दा लड़ाईयों के नाम से अबु बकर द्वारा उन के विद्रोह का सामना करना पड़ा। उस समय अलीश् जिस ने तब तक वफादारी की शपथ नहीं ली थी, को इस्लाम को बचाने तथा यकजाई रखने के लिये अबु बकर का साथ देना पड़ा ओर उस ने अबु बकर को खलीफा रूप में मान्यता दे दी। रिद्दा युद्ध में विद्रोहियों को बुरी तरह कुचल दिया गया।
अबु बकर की मत्यु के समय उन्हों ने ओमर को खलीफा मुकरर कर दिया। ओमर ने ही अबु बकर को खलीफा बनने में मदद की थी। उसी का अहसान चुकाया गया। अली एक बार फिर छूट गये लेकिन उन्हों ने ओमर को भी मान्यता दे दी। और अपनी बेटी उम कुलथम की शादी भी उस से कर दी। स्वयं उस ने अबु बकर की बेवा आस्मा से शादी कर ली।
औमर की कुछ समय पश्चात हत्या कर दी गई। मरते समय उन्हों ने छह व्यक्तियों की समिति को खलीफा अपने में से चुनने का अधिकार दिया। उन में अली, ओतमन, ताल्हा और जु़बेर भी शामिल थे। इस समिति ने ओतमन को खलीफा चुना और अली की रज़ामन्दी के बिना उसे खलीफा घोषित भी कर दिया।
हज़रत मुहम्मद कुरैश कबीले से थे और उन के उत्तराधिकारी भीं लेकिन कुरैश में भी दो उप कबीले थे - हाश्मी और उम्मैद। हज़रत मुहम्मद, अली तथा अबु बकर हाश्मी उप कबीले से थे लेकिन ओतमन उम्मैद उप कबीले से। उम्मैद हाशमी से अधिक अमीर थे और हज़रत मुहम्मद के पहले वह ही आगे थे। ओतमन के खलीफा बनने से फिर से उन के आगे आने का रास्ता साफ हो गया।
इस्लाम के पहले दो खलीफा पाक साफ मुस्लिम थे जो तड़क भड़क में विश्वास नहीं करते थे। पर ओतमन उस तरह के नहीं थे। उन्हों ने खुद का हज़रत मुहम्मद के उिप्टी कहलाने की अपेक्षा अपने को खुदा का डिप्टी बताना आरम्भ कर दिया। उन का रहन सहन अमीराना था। साथ ही उन्हों ने अपने रिश्तेदारों को उच्च पद देने भी आरम्भ कर दिये। उम्मैद घराने के मरवान नाम के परिवार को हज़रत मुहम्मद ने जलावतन कर दिया था पर ओतमन उन्हों वापस ले आये और मरवान को अपना सैनापति भी नियुक्त कर दिया। उन के एक चचेरे भाई मुआविया को सीरिया का गर्वनर बनाया गया। उन के एक दूसरे चचेरे भाई वालिद कूफा के गवर्नर बने। वालिद दंभी आदमी थे तथा उन के कूफा के वासियों के प्रति ज़ुल्म का रवैया था। वह सरकारी खज़ाने को भी अपने लिये इस्तेमाल करते थे। परन्तु ओतमन उन के खिलाफ शिकायतों पर ध्यान नहीं देते थे।
एक बार हद ही हो गई जब वालिद शराब पिये हुये ही मसजिद में आया और वहाँ पर उलटी भी कर दी। ओतमन से माँग की गई कि वह वालिद को हटाये और उसे दण्ड दे। इस मांग में हज़रत आयशा, ताल्हा और ज़ुबेर भी थे। जब इस मांग का असर नहीं हआ तो मिस्र, कूफा से सैनिक मदीना ही ओर आने लगे और महल को घेर लिया। मसजिद में ओतमन पर हमला भी हुआ। ओतमन को वालिद को हटाना पड़ा लेकिन अब बात दण्ड देने की भी थी। अली को दोनों फरीकों द्वारा मध्यस्थ बनाया गया। सुलह के तौर पर मिस्र के गर्वनर को हटाना भी ओतमन को स्वीकार करना पड़ा। उस के स्थान परर मुहम्मद बिन अबु बकर को गर्वनर नियुक्त किया गया। मुहम्मद बिन अबु बकर आस्मा के बेटे थे जिससे अली ने शादी कर ली थी।
जब महुम्मद बिन अबु बकर मिस्र की ओर जा रहा था तो एक सवार को संदेहास्पद स्थिति में उस ओर जाते देखा गया। जब उस की तलाशी ली गई तो उस के पास मिस्र के गर्वनर के नाम पर संदेश था कि मुहम्मद बिन अबु बकर और अन्य को बन्दी बना लिया जाये और उन्हें सौ कौड़ों की सज़ दी जाये। इस का नतीजा यह हुआ कि यह सैनिक वापस मदीना लौट आये। महल को फिर से घेर लिया गया।
एक बार फिर अली को मध्यस्थ बनाया गया जो अभी भी सुलह और अमन के पक्ष में था। इस बीच मरवान के इशारे पर घेराव कर रहे लोगों पर पत्थर फैंके गये। इस में एक व्यक्ति की मौत हो गई। इस पर सैनिकों का गुस्सा भड़क उठा और उन्हों ने महल पर हमला कर दिया। ओतमन की हत्या कर दी गई।
अब मदीना वासियों तथा अन्य ने अली को खलीफा बनने को कहा। कुछ हिचकचाहट के साथ उस ने कबूल कर लिया। उस ने अपने को खलीफा कहलाने के स्थान पर इमाम कहलाना पसन्द किया। इस प्रकार वह पहले इमाम हुये। पर इस से सब प्रसन्न नहीं हुये। हज़रत आयशा जो हज़रत मुहम्मद की खास बीवी थी, और अली से जिस की बनती नहीं थी, उस ने अली को खलीफा मानने से इंकार कर दिया। उस ने अपने बहनोईयों ताल्हा और ज़ुबेर के साथ मिल कर अली को चुनौती देने का फैसला किया। मक्का वाले उन के साथ थे और ओतमन की हत्या की बदला लेने के लिये माँग कर रहे थे। अली ने ऐसा करने से इंकार कर दिया क्योंकि उस की नज़र में ओतमन स्वयं अपनी मौत के लिये ज़िम्मेदार था। आयशा ने बसरा की मदद से अली को सज़ा देने का सोचा। मक्का से सैनिक बसरा की ओर चले। उन्हें यकीन था कि वहाँ से मदद मिले गी। पर ऐसा नहीं हुआ। बल्कि वहाँ पर झड़पें हुई। मक्का की सैना ने बसरा के बाहर डेरा डाल दिया। परन्तु एक रात उन्हों ने बसरा पर हमला बोल दिया। दर्जनों लोग मोर गये औा गर्वनर को जेल में डाल दिया गया।
जब अली को आयशा के इरादे का पता चला तो मदीना से सैनिक भी बसरा की ओर आने के लिये चल पड़े। अली ने अपने बेटों हसन और हसैन को कूफा की ओर कुमक के लिये भेजा और खुद बसरा की ओर आया। वहाँ दोनों सैनाये आमने सामने डट गईं। अली अभी भी सुलह और अमन चाहता था और उस ने ताल्हा और ज़ुबेर से बात चीत की। तीन दिन की बात चीत का कोई हल न निकला। पर युद्ध का भी तय नहीं हुआ।
इस बीच मरवान के अध्यक्षता में एक गुट ने अचानक तड़के अली की सैना पर हमला कर दिया। इस के बाद तो युद्ध अनिवार्य सा हो गया। इस युद्ध को बैटल आफ कैमल अथवा जमेल युद्ध के नाम से जाना जाता है जिस में आयशा ऊँट पर सवार हो कर युद्ध का संचालन कर रही थी। इस युद्ध में ताल्हा और ज़ुबेर मारे गये और आयशा, जो कुछ ज़ख्मी हुई थी, को पकड़ लिया गया।
एक पारसा मुसलमान की तरह अली ने सभी मरने वालों को धार्मिक रीति से दफनाया। तीन दिन बाद जब आयशा ठीक हुई तो उसे ससम्मान मक्का जाने के लिये इजाज़त दी। बल्कि कुछ दूर तक साथ भी आया।
मक्का वासियों ने अब अली को खलीफा तो मान लिया पर दमिश्क के गर्वनर मुआविया ने मानने से इंकार कर दिया। मुआविया उम्मैद परिवार से था और उसे यकीन था कि ओतमन के बाद वह ही खलीफा बने गा। मुआविया को यकीन था कि आयशा अली के खिलाफ उस का ही काम कर रही है। जब आयशा को शिकस्त मिली तो उस ने अपनी चाल चलने की सोची पर उसे कोई जल्दी नहीं थी।
मुआविया के पिता अबु सूफयान मक्का के सब से अमीर व्यक्ति थे। वह हज़रत मुहम्मद के बड़े विरोधी थे लेकिन मक्का की फतह के बाद उन के हज़रत मुहम्मद से पारिवारिक सम्बन्ध कायम हो गये थे। हज़रत मुहम्मद की आठवीं बीवी उम हबीबा मुआविया की बहन थी। उस के कारण मुआविया को कुरान की आयतें लिखने के लिये नियुक्त किया गया था। हज़रत मुहम्मद की वफात के समय वह भी वहीं होने का दावा कर सकता था। दूसरे खलीफा ओमर ने उसे दमिश्क का गर्वनर नियुक्त किया था। पहले से ही अबु सफयान की बहुत से जायदाद सीरिया में थी। खलीफा ओतमन ने भी उसे फिर से वहीं नियुक्ति दी थी क्योंकि एक तो वह उम्मैद जाति से था और दूसरे योग्य भी था। ओतमन जब धिरा हुआ था तो उस ने मुआविया से कुमक भेजने को कहा था पर मुआविया कुमक नहीं ीोज पाया। ओतमन की बीवी ओतमन केमरने के पश्चात दमिश्क आ गई थी। उस ने ओतमन की हतयारों को दण्ड देने की मुहिम जारी रखी। पर ओतमन की राजनीति ऐसी थ्सी कि उस को कोई जल्दी नहीं थी।
अली के खिलाफत पर उस ने अपनी वफादारी दिखाने में भी कोई जल्दी नहीं दिखाई। वह इंतज़ार कर रहा था कि आयशा के विरोध का क्या हशर होता है। अली ने जब खिलाफत सम्भाली तो उस की मंशा भूतकाल से नाता तोड़ने की थी। इस कारण उस ने सब गर्वनर को वापस आने को कहा। मुआविया को छोड़ कर बाकी सब वापस आ गये। मुआविया की तरफ से केवल चुप्पी थी। अली को सलाह दी गई कि वह मुआविया को गर्वनर पद पर नियुक्त कर दे और बाद में उसे हटाया जायेे पर अली इस के लिये तैयार नहीं हुआ। वह इस प्रकार की चाल चलने के पक्ष में नहीं था।
कैमल अथवा जमेल युद्ध के बाद चार माह गुज़र गये और मुआविया ने कोई जवाब नहीं दिया। इस बीच आयशा को हार का मँह देखना पड़ा और मुआविया की वह आशा फलीभूत नहीं हो सकी। जब मुआविया ने जवाब दिया तो वह बिल्कुल विद्रोह की तरह था। अली को इस पर गुस्सा आना ही था तथा उस ने मुआविया को सबक सिखाने का फैसला किया।
अली ने कूफा को जो बसरा की जगह दमिश्क से 140 मील पास था, अपना मुख्यालय बनाया और वह एक प्रकार से राजधानी बन गई। स्थानीय लोग उस के साथ थे। पूर्व में अफगान, ईरानी इत्यादि जो मुसलमान बन गये थे, दोयम दर्जे के मुसलमान माने जाते थे जबकि असली मुसलमान अरब के ही माने जाते थे। अली ने इस नीति को बदल दिया और उन्हें बराबर का ही माना। इस से वे अली के पक्ष में थे।
मुआविया का रवैया यह था कि लोगों को अली के खिलाफ भड़काया जाये। उस ने कहना आरम्भ किया कि खलीफा शूरा द्वारा ही चुना जाता है। स्वयं से कोई नहीं बन सकता। अली चुना नहीं गया था। अली से पहले खलीफा शूरा के द्वारा वैसे ही चुने गये और अली को उन्हें मानयता देने के लिये मजबूर होना पड़ा। मुआविया अपने को खलीफा के रूप में देखना चाहता था।
सीरिया और इराक की फौजें सिफ्फन के मैदान में एक दूसरे के सामने डट गईं। दोनों पक्ष एक दूसरे की पहल का इंतज़ार कर रहे थे ताकि यह कहा जा सके कि ज़्यादती दूसरी तरफ से हुई है। कुछ झ़ड़पें हुईं पर नमाज़ के वक्त वह अपने अपने खैमे में लौट आते थे। अली सुलह अमन के पक्ष में थे और मुआविया को युद्ध की कोई जल्दी नहीं थी। मुआविया ने सार्वजनिक रूप से अली को खिलाफत छोड़ने के लिये कहा पर दूसरी ओर अपने नुमाईदे को बटवारे के लिये बात करने को कहा। वह सीरिया, मिस्र और फिलस्तीन देखे गा और अली ईरान, ईराक और अरब। अली ने इस प्रस्ताव को तुरन्त अस्वीकार कर दिया। वह इस्लाम का बटवारा नहीं देखना चाहता था। अली ने यह सुझाव दिया कि वह और मुआविया आपस में लड़ लें और सैना को लड़ने की आवश्यकता न हो। पर मुआविया इस के लिये तैयार नहीं हुआ।
अब युद्ध के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं था। तीन दिन तक युद्ध चलता रहा। ईराकी सैना विजय की ओर बढ़ रही थी। मुआविया ने अपने सिपाहियों को पवित्र कुरान की प्रतियाँ अपने भालों पर लगा कर उन्हें आगे बढ़ने को कहा। उन का नारा था - कुरान को ही हमारा फैसला करने दिया जाये। ईराकी सैना के आधे आदमियों ने लड़ाई रोक दी। वे कुरान का निरादर नहीं करना चाहते थे। इस प्रकार विजयश्री मिलते मिलते रह गई।
मुआविया ने प्रस्ताव किया कि दोनों पक्ष अपने अपने प्रतिनिधि चुनें और वे इस बात का फैसला करें कि कौन सही है। जब सैना ने लड़ने से इंकार कर दिया तो अनिच्छुक अली को भी मानना पड़ा।
मध्यस्थ को फैसला करने की कोई जल्दी नहीं थी। परन्तु ईराकी सैना के कई लोगों को लगा कि अली ने उन के साथ ज़्यादती की है और उन्हें जीत से महरूम रखा है। उन का नेता अब्दुल वहाब था। उस का तर्क था कि खिलाफत का फैसला मध्यस्थता से नहीं हो सकता, वह खुदा का फैसला है। अली ने मध्यस्थता स्वीकार कर अपना हक छोड़ दिया है। अब्दुल वहाब और उस के साथियों को खारिजी कहा जाता है। वहाब अपने को शुद्ध मुस्लिम मानता था और उस के साथी भी अली को अब काफिर मानते थे। जब वहाब की ज्यादियाँ बढ़ने लगीं तो अली के सामने युद्ध के अतिरिक्त कोई रास्ता न रहा। उसे अपने की पूर्व सैनिकों से लड़ना पड़ा। इस लड़ाई में वहाब और उन के कई साथी मारे गये।
इधर पंचों ने यह कहा कि अली को खलीफा मान लिया जाये और मुआविया सीरिया का गर्वनर रहे। जब अबु मूसा द्वारा यह फैसला सुनाया जा रहा था तो मुआविया के जनरल अम्र ने घोषणा की कि मुआविया ही खलीफा है। आपस में मारपीट हुई और बात खत्म हो गई। अबु मूसा मक्का लौट गये।
इधर मुआविया ने अब अपनी नज़र मिस्र की ओर की जहाँ अली को सौतेला बेटा मुहम्मद बिन अबु बकर गवर्नर था। जब अली को इस की खबर लगी ते उस ने भी अपने जनरल को उस ओर भेजा। जब वह मिस्र पहँचा तो उस का स्वागत किया गया और फिर, वहाँ के कस्टम अध्किाकारी ने, जो मुआविया से मिल गया था, उन्हें ज़हर दे कर मार दिया। सीरिया की फौज ने आसानी से मिस्र पर कब्ज़ा कर लिया। मुहम्मद बिन अबु बकर की लाश को घुमाया गया ताकि दूसरों को इबरत हो।
मिस्र की हार के बाद अली की मुश्किलें और बढ़ गईं। खारिजी फिर से समूहबन्द हो कर हमला करने लगे। कई गर्वनर ने खिराज भेजना बन्द कर दिया। अली की सैना ने भी कुछ करने से इंकार कर दिया। इसी बीच मसजिद में जब अली नमाज़ के लिये ग्या तो उस पर हमला किया गया। ज़ख्म गहरा नहीं था लेकिन खंजर ज़हर में डूबा हुआ था। अली की मौत हो गई। उसे कूफा से छह मील दूर नजफ में दफनाया गया।
ईराक वासियों ने अली के बेटे हसन को अपनी नया नेता तस्लीम कर लिया। उन का विचार था कि अली की हत्या के पीछे मुआविया का हाथ है और वह सीरिया से लड़ाई पर आमादा थे। पर हसन जानता था कि सीरिया की फौज का मुकाबला ईराकी सैना नहीं कर पाये गी। वैसे भी वह अली की तरह युद्ध के खिलाफ था। उधर मुआविया ने भी चाल चलते हुये हसन के मज़हबी बढ़त को मान्यता देने की बात कही और हकूमत ही अपने पास रखने की। उस ने यह भी वायदा किया कि अपनी मौत के बाद वह हसन को खलीफा बनाने के लिये कहे गा। हसन को यह भी डर था कि जो कूफा वाले आज उस के पक्ष में हैं, अगले दिन उस के खिलाफ भी हो सकते हैं जैसे वे अली के खिलाफ हो गये थे। जब उस ने यह बात कही तो उस पर हमला किया गया। उस की जांघ में चोट आई। वह बच तो गया पर उस का विचार निश्चय में बदल गया कि वह यह ज़िम्मेदारी कबूल नहीं कर पाये गा। उस ने खिलाफत छोड़ने का फैसला किया। अपने भाई हुसैन की बात भी नहीं मानी और मदीना के लिये रवाना हो गया। मुआविया ने कूफा में प्रवेश किया और तीन दिन का समय दिया कि लोग उस की ताहत कबूल कर ले।
कूफा वालों को इस में दिक्कत नहीं हुई लेकिन मुआविया को उन पर इतबार नहीं था। अली और हसन को भी उन्हों ने मान्यता दे दी थी और फिर उन के खिलाफ हो गये थे। इस कारण उस ने ज़ियाद को ईराक का गर्वनर नियुक्त किया। ज़ियाद ज़ालिम था और उस ने पूरे इराक में दहशत फैला दी। ज़ियाद मुआविया के पिता अबु सूफयान की नाजायज़ औलाद थी पर मुआविया ने उसे उस का जायज़ बेटा मान लिया। इस वजह से उस से खतरा नहीं था। ज़ियाद के बाद उस का बेटा उब्बेदुल्लाह ईराक का गर्वनर बना जो ज़ियाद जैसा ही था। मुआविया की हकूमत अब अलजीरिया से अफगानिस्तान तक थी।
हसन को दिये गये वायदा के खिलाफ मुआविया ने अपने बेटे यज़ीद को अपने बाद खलीफा मुकरर किया। इस प्रकार खिलाफत खानदानी बन गई। यज़ीद शराबी था पर फिर भी वह एक अच्छा जनरल था और कुशल प्रशासक भी। हसन की मौत मदीना पहुँचने के नौ साल बाद हो चुकी थी। इस कारण उस के अनुयायिाओं ने उस के भाई हुसैन का इमाम मान लिया था पर इस पर मुआविया की कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी।
हसन के त्यागपत्र के उन्नीस साल बाद जब मुआविया की मत्यु हो गई तो अली के बेटे हुसैन ने यह माना कि अब उसे खलीफा बनाया जाना चाहिये। हुसैन का विचार था कि अब खिलाफत फिर से अहले ब्यात - हज़रत मुहम्मद का परिवार - में लौट आये गी। मुआविया की मौत के बाद उस के लड़के यज़ीद ने खिलाफत सम्भाल ली थी। यज़ीद ने मदीना के गर्वनर को यह हुकुम दिया कि हुसैन उस की खिलाफत को मान्यता दे वरना उसे खत्म कर दिया जाये। पर मदीना के गर्वनर ने इस पर अम्ल नहीं किया। अभी भी हज़रत मुहम्मद के नवासे के खिलाफ ऐसा कदम सही नहीं माना जाता।
उधर कूफा में हुसैन की तरफदारी वाले कई लोग थे। उन्हों ने हुसैन को सन्देश भिजवाया कि वह कूफा आ कर अपना कार्यभार सम्भाल ले। उन का दावा था कि हुसैन के पहँचने पर उस का स्वागत हो गा और उसे खलीफा स्वीकार कर लिया जाये गा। हुसैन के चचेरे भाई मुस्लिम ने कहा कि बाहर हज़ार सैनिकों के साथ वह उस का कूफा में स्वागत करे गा।
पर दूसरी और उस को चेतावनी भी दी जाती रही कि कूफा वालों का भरोसा नहीं है। यज़ीद के पास ताकत है और वह उस का इस्तेमाल करे गा। लेकिन हुसैन ने इस सब की परवाह नहीं की। वह कूफा के लिये रवाना हो गया। उस के काफिले के साथ लोग जुड़ते गये। उधर कूफा के रवैये को मुस्लिम ने भी भाँप लिया और हुसैन को सन्देश भिजवाया कि वह लौट जाये। उस को भी हुसैन ने नज़र अंदाज़ कर दिया।
कूफा के गर्वनर उब्बैदुल्लाह ने एक दस्ता हुर्र की कयादत में हुसैन को पकड़ने तथा उसे कूफा लाने के लिये भेजा ताकि वह यज़ीद के प्रति वफादारी की सौगंध ले। हुर्र ने हुसैन को मनाने की कोशिश की पर नाकाम रहा। पर हुर्र ने उसे पकड़ने और उब्बैदुल्लाह के सामने पेश करने की कोशिश नहीं की। हुसैन ने अब कूफा की तरफ न जा कर रास्ता बदल लिया ओर कूफा के कुछ उत्तर में एक स्थान पर कयाम किया। उस के साथ उस समय केवल बहेत्तर व्यक्ति थे और उन के अतिरिक्त समूह में औरतें व बच्चे शामिल थे।
जब उब्बैदुल्लाह को हुर्र के हुकुम तामीली न करने का पता चला तो उस ने शिम्र नाम के व्यक्ति के साथ चार हज़ार सैनिक हुसैन को पकड़ने के लिये भेजे। उन्हों ने हसैन के कैम्प को घेर लिया। कैम्प नदी के पास ही था पर नदी तक जाने के सब रास्ते बन्द कर दिये गये। जो भी व्यक्ति नदी की तरफ जाता, उस में उस की हत्या कर दी जाती। हुसैन के नज़दीकी रिश्तेदार कासिम, अब्बास, उस के बेटे अली अकबर मौत के घाट उतार दिये गये। हुसैन के तीन वर्ष के बच्चे के प्रति भी दया नहीं दिखाई गई और एक तीर ने उस की भी जान ले ली।
दसवें दिन हुसैन अपने घोड़े पर सवार हो कर निकला और शिम्र के आदमियों पर हमला किया पर वह अकेला और दूसरी ओर चार हज़ार, शहादत निश्चित थी।
सभी मरने वालों के सिर काट कर ट्राफी के तौर पर उब्बैदुल्लाह के सामने लाये गये। औरतों बच्चों का जंजीरों में बॉध कर पेश किया गया। हुसैन का केवल एक बच्चा बचा जो बीमार होने के कारण चारपाई से उठ नहीं पाया और जब मारने वाले आये तो उस पर उस की बुआ, ज़ैनब जो हुसैन की बहन थी, लेट गई थी और मारने वाले औरत को देख कर रुक गये थे।
उब्बैदुल्लाह ने सब की शर्मनाक परेड करवाने के बाद उन्हें दमिश्क भेजा जहाँ वह यज़ीद के सामने पेश किये गये। यज़ीद ने रहमदिली दिखाते हुये उन्हें मदीना भिजवाने का प्रबंध किया।
हुसैन का बेटे, जो बच गया था, को चौथा इमाम शिया द्वारा माना जाता है। उस के बाद आठ इमाम और हुये। चौथे, पाँचवें और छटे इमाम मदीना में ही रहे। वे केवल धार्मिक नेतृत्व ही मानते रहे और उम्मैद खलीफाओं ने उन पर नज़र रखी पर कोई अन्य कार्रवाई नहीं की। करबला के साठ साल बाद उम्मैद परिवार का वर्चस्व समाप्त हो गया और अब्बासी परिवार सत्ता में आया। अब्बास हज़रत मुहम्मद के चचेरे भाई थे तथा इस प्रकार उन के परिचार से ही थे और इस प्रकार वह परिवार फिर से सत्ता में आ गया। उन्हें हुसैन के परिवार से डर था कि वह असली परिवार होने के नाते वे उन्हें चुनौती न दें। अब्बासी परिवार ने उन को ईराक में ला कर बन्दी रखा। उन की उम्र भी कम कम रही जिस के पीछे साज़िश बताई जाती है। समारा बन्दीगृह में बारहवें इमाम का जन्म हुआ जिसं एक गुफा में छुपा दिया गया। उसे महदी कहा गया और यह यकीन है कि मौका आने पर वह दुनिया के सामने आये गा।
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