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  • kewal sethi

वर्क फ्राम होम

वर्क फ्राम होम

11.4.2020

कोरोना आया, कोरोना आया देखो कोरोना आया

फैलता पास पास रहने से यह, डाक्टरों ने समझाया

कर दिया लाक आउट घोषित, सब दफतर बन्द कराये

वर्क फ्राम होम करें गे लोग, सब को आदेश थमाया

बाबू साहब घर पर आये बीवी पर झाड़ने लगे रौब

घर पर ही दफतर लगे गा अब, उस को बतलाया

दे देना मुझ को नाष्ता समय पर, नहीं करना देर

तब लगूॅं गा काम में, उस को यह आदेश सुनाया

अगले दिन बीवी ने दिया नाश्ता एक दम समय पर

और साथ में टिफिन का डिब्बा भी हाथ में पकड़ाया

खा लेना घरू दफतर में, नहीं हो गा कोई व्यवधान

बीवी ने इस तरह से था अपना पत्नि धर्म निभाया

बाबू साहब बैठे काम पर एक फाईल उलटी पलटी

बीवी को आवाज दी, गर्म चाय का कप मंगवाया

दफतर में तो चपड़ासी आ कर दे जाता है रोज़ाना

आज उन्हों न इस रस्म को घर पर ही है निभाया

बीवी ने चाय पकड़ा दी, फिर किया दरवाज़ा बन्द

तभी फोन की बजी घण्टी, पंद्रह मिनट तक बतियाया

फिर बैठे खोल कर फाईल, कुछ नोट ही पढ़ पाये

तभी आ गई झपकी एक, तीस मिनट समय गंवाया

उठे फाईल को लिया पढ़, क्या करना है लिया सोच

पर डिकटेषन किस को दें, स्टैनो को पास न पाया

हाथ से लिखने बैठे, पर छूटा था कब का अभ्यास

किसी तरह से तीन चार वाक्य लिख कर निपटाया

इतने में लंच का टाईम हो गया, टिफिन खोल खाये

टी कल्ब की याद आई, साथी अफसर को फोन लगाया

इधर उधर की गप मारी, अपना हाल विस्तार से बतायें

पंद्रह बीस मिनट तक बात की, उस को भी कम पाया

बन्द किया जैसे ही फोन तो वह फिर से खटखटाने लगा

बाॅस की आवाज़ थी, गुस्सेे में था, यह आभास पाया

कब से कोशिश कर रहा पर फोन तुम्हारा रहता एन्गेज़

काम कर रहे हो या हाॅंक रहे गप्पें, घर भी दफतर बनाया

लाॅ डिपार्टमैण्ट को भेजनी थी फाईल, उस का क्या हुआ

अरजैण्ट है यह मामला, अभी तक तुम्हें समझ न आया

जी, नोट तो कल ही बना लिया था पर भेज नहीं सका

सुबह से इण्टरनैट डाउन पड़ा है, यह तुरन्त बहाना बनाया

सुबह से बच्चे बन्द कमरे में थे, सब्र की भी होती सीमा

लड़ पड़े आपस में, रोने लगे, घर को सिर पर उठाया

एक तरफ अफसर की डाॅंट, दूसरी ओर मचा यह शोर

कैसे कोई करे काम दफतर का, यह समझ में न आया

खैर किसी तरह दिन निकल गया, द्वार खोल बाहर आये

दफतर को किया बन्द और घर में फिर अपने को पाया

बीवी से कुछ बातें की, बच्चों के झगड़े का जाना हाल

टी वी खोल का बैठे, अपना पसन्दीदा सीरियल लगाया

मन में सोचें, एक दिन भी घरू दफतर में था मुहाल

न वो ठाठ बाठ, न वो गपबाज़ी, बुरा हाल इस ने बनाया

इक्कीस दिन का लम्बा लाकआउट है, कैसे पायें गे पार

देखते टी वी पर मन को इस उधेड़बुन में ही उलझा पाया

कहें कक्कू कवि, सब का है इस महामारी में ऐसा हाल

निकल जाये गा यह समय भी, कब क्या है टिक पाया

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