किस्सा एक वारदात का
हैलो ।....... हॉं मै. बोल रहा हूॅं. .........हाॅं. हाॅं., कहिये ..........हैलो .... गुड मार्निगं सर, मै. शर्मा बोल रहा हूॅ. .......... जी सर .......... जी सर ..........ठीक है सर, मै. समझ गया सर ....... जी हाॅ., जी हाॅ., ...... नमस्कार सर।
शर्मा ने फोन वापस क्रैडल पर रख दिया। सामने बैठे डिप्टी कलैक्टर की तरफ देख कर बोले,
‘‘हाॅं, तो आप कह रहे थे’’
‘‘जी, मैं ने व्यापारियों को बुला कर बात की थी। उन का कहना है कि अगर आप यह इजाज़त दे दें कि तेल किसी भी भाव पर बेचा जाये तो हम लोग स्टाक ला सकते हैं’’, खाद्य अधिकारी ने कहा।
‘‘लेकिन यह कैसे हो सकता है। हम खुद कह दें कि वह किसी भी भाव पर बेच सकते हैं। यह तो सरासर कानून की खिलाफत हो गी’’।
‘‘वह तो ठीक है सर, लेकिन अगर स्टाक न आया तो ......’’
‘‘एकाध रेड करने से कुछ हो गा’’
‘‘माल तो है सर, लेकिन इतना कम है कि रेड से ज़्यादा मिलने वाला नहीं है। और फिर एक जगह रखा भी तो नहीं है’’
‘‘एक जगह रखने का तो प्रश्न ही नहीं है। लेकिन कम से कम रिकार्ड पर तो आ जाये गा कि हम ने कुछ किया है। सरकार तो रोज़ पूछती है- आप के द्वारा क्या कार्रवाई की गई है। बताने को तो हो गा’’
‘‘रेड तो मैं एकाध जगह आज कर दूॅं गा। लेकिन यह अखबार वाले तो उस में भी हमारी बुराई ही करें गे’’
‘‘हाॅं, यह खतरा तो मोल लेना ही पड़े गा। अखबार की बात तो भुला दी जाती है पर यह सरकार का पचड़ा? ’’
‘‘जी, सर’’
‘‘अच्छा, हम तो न कहें गे लेकिन व्यापारियों को कहिये, वह माल लायें तो सही। फिर देखें गे कि भाव का क्या करना है। समझ गये न। इंस्पैक्टरों को भी बतला देना’’
‘‘जी, सर’’
डिपटी कलैक्टर जब चले गये तो शर्मा जी ने एस पी को फोन लगाया। वैसे तो फोन का एक्सटैंशन था और वह अधीक्षक को फोन लगाने को कह सकते थे पर कभी कभी सीधा फोन भी लगा ही लेते थे। दूसरे अधीक्षक को पता लग जाता था कि किस से बात हो रही है। इसी लिये उन्हों ने सीधा ही डायल किया।
‘‘मैं एस पी साहब के बंगले से आरक्षक बैजनाथ बोल रहा हूॅ’’
‘‘मैं कलैक्टर बोल रहा हूॅं। एस पी साहब से बात कराओ’’।
‘‘जी सर, साहब अभी बाथ रूम में हैं, सर’’
एस पी साहब ज़्यादतर बाथरूम में ही रहते हैं। यहीं के नहीं, सभी ज़िलों के। यह एक स्टैर्ण्डड जवाब था जो हर काॅंसटेबल हर किसी को उस समय देता था जब साहब अपनी टेबल की जगह किसी दूसरी जगह पर बैठे होते थे। शर्मा जी को याद आया कि कैसे वह एक डी आई जी के यहाॅं मिलने गये थे और फोन की घण्टी झनझना उठी थी तो डी आई जी ने अर्दली के अभाव में स्चयं ही फोन उठाया और कह दिया - अभी साहब बाथ रूम में हैं।
वह उस का पहला काल था डी आई जी के यहाॅं। नई नई सर्विस थी। बहुत ही अजीब लगा था उन्हें। तब डी आई जी ने बताया था कि किसी भी असुविधाजनक काॅल के लिये यह एक फिल्टर था। एस पी केवल उन से बात करते थे जो बात करने लायक थे। इसी लिये आज भी शर्मा जी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ था और न ही निराशा। इस लिये उन्हों ने आरक्षक बैजनाथ से कहा कि बाद में बात करा देना। लेकिन इस से पहले कि वह फोन रखते, आरक्ष्क बैज नाथ ने कहा, ‘‘हज़ूर, एस पी साहब आ गये हैं, बात कर लीजिये’’
‘‘मैं स्कसैना बाल रहा हूॅं। गुड मार्निंग सर। कहिये क्या खबर हैं’’
‘‘वह फोन आया था फिर उस साले का ।।।।’’
‘‘क्यों ।।।।’’
‘‘अरे वही पुराना किस्सा। ज़रा उस केस को देख लीजिये गा’’
एस पी साहब हॅंसे। ‘‘अरे वह तो अब अदालत में भी इस्तगासा पेश हो गया। अब क्या हो सकता है। यह लोग तो कुछ समझते ही नहीं। तीन बार तो मैं बता चुका। फिर भी डी आई जी से फोन कराया। अभी कल शाम को ए आई जी के यहाॅं से हैडक्वार्टर से फोन आया था। मैं ने उन से कहा - हज़ूर, घर की खेती है क्या। जब चाहा भुट्टा तोड़ लिया। लेकिन यह बेचारे भी क्या करें। सब समझते हैं लेकिन मंत्री को कहने की हिम्मत नहीं पड़ता। कुछ प्रामिस तो नहीं किया’’ एस पी ने शंका व्यक्त की।
‘‘प्रामिस क्या? वही कलैक्टरों का पुराना हथियार - देख लूॅं गा। उम्मीद है सब ठीक हो जाये गा। मैं एस पी से बात करूॅं गा। लेकिन यह बीमारी कब तक चले गी’’
‘‘सैशन सुपर्द हो जाये तब तक तो रहे गी’’
‘‘और उस में महीनों लग जायें गे’’
‘‘आप जल्दी करा दें न’’
‘‘कैसे’’
‘‘ ज़रा डी जे से बात कर लें’’
‘‘और जूडिशिरी की स्वतन्त्रता का क्या हो गा’’
‘‘आप कौन कनविक्शन के लिये कह रहे हो। वह ज़रा जल्दी कर दें, बस। दो चार ग्वाह लिये और बस’’
‘‘ अच्छा, तो आप समझते हैं, वह रिवीज़न वगैरा के लिये नहीं जायें गे। हज़ूर बड़ी पार्टी है। कम से कम तीन बार तो जायें गे हाई कोर्ट में। तब तक गवाह बदल ही जाये गे’’
‘‘तो फिर?’’
‘‘चलने दें, जैसे चलता है। फोन ही तो सुनना है, सुन लें गे’’।
और बात चीत खत्म हो गई।
2।
इस स्टेज पर यह बताना आवश्यक है कि यह सब क्या है और क्यों है। इस के बिना पाठक को कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा हो गा। पात्रों का परिचय दिये बिना कहानी शुरू करना नई परिपाटी है और हम ने इस का पालन कर लिया है। आजकल तो कहानी खत्म भी हो जाती है और पाठक को स्वये ही पात्रों के बारे में धारणा बनाना पड़ती है। पर पात्रों का परिचय ही न दें, इतनी हिम्मत हमारी नहीं है। छोटी कहानी के लिए तो फिर भी चल सकता है लेकिन लंबी कहानी के लिए तो बताना ही पड़ेगा कि हमारे नायक कौन थे और नायिका का भी नाम बताना पड़ता है पर अभी तो बात करते हैं नायक की। नायिका का नाम या काम अभी तक तो कहानी में आया नहीं और आगे भी आये गा, यह भी नहीं कह सकते इस लिये नायिका का परिचय देने की अभी कोई आवश्यकता नहीं है।
शर्मा जी, तो आप जान ही गये हों गे कि कलेक्टर है। यह उन का पहला पहला जिला है। नई-नई कलेक्ट्री की शान होती है लेकिन अब आठ दस महीने में यह शान थोड़ी सी धुंधली पड़ गई। समय ने बालों की साज-सज्जा को थोड़ा बिखरा कर रख दिया था लेकिन फिर भी पहला ज़िला तो पहला ज़िला ही होता है। शर्मा जी अपने से ज्यादा भाग्यशाली सुपुत्रों और सुपुत्रियों को पीछे छोड़ कर आगे निकल आए थे। भारत की प्रथम सेवा में प्रवेश पा चुके थे लेकिन उन का भूतकाल उन्हीं के समान परिश्रमी था और वह भी गिरता पड़ता हुआ सब रूकावटों को पार करता हुआ अब उन्हीं के पीछे पीछे आ खड़ा हुआ था। बस इतनी दूर कि दिखाई ने दे पर उस की आवाज़ शर्मा जी को सुनाई देती थी। बहुत सुखद अनुभव नहीं था पर मनुष्य की कमजोरी यही है कि वह अपने कड़वे अनुभव भी साथ ले कर चलता हैं। पर शायद यही अनुभव उस के लिए आवश्यक भी है। उन्हीं की बदौलत शर्मा जी आज भी अपने स्थान पर अडिग खड़े हैं। झुके लेकिन इतना नहीं कि बिछ जाऐं। अकड़े लेकिन इतना नहीं कि टूट जायें। पर यह सब तो आप को धीरे-धीरे पता चल ही जाये गा जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़े गी।
हाॅं तो, शर्मा जी का यह पहला जिला का। यूॅं तो तीन चार स्थानों पर घूम कर वहां पर आए थे और बचते बचाते आए थे। इसी लिये अभी अकेले थे।। eligible किन्तु elusive कोई बंधन नहीं था। यद्यपि रौअब डालने के लिए एक का नाम सोच रखा था। दिल टूटने की प्रैक्टिस भी कर रखी थी। उन के अनुसार उन की पहली मोहब्बत अब दो बच्चों की मां थी जब कि वह बाप बनना तो क्या, उस से मोहब्बत का इज़हार भी नहीं कर पाए थे।
दूसरे पात्र जिन का ज़िकर आया है, वह हैं श्री स्कसैना, एस पी साहब। वह पुलिस में उप अधीक्षक पुलिस के रूप में भरती हुये थे और उम्र पा कर आई पी एस में आ गये। उप अधीक्षक रहते हुये कुछ ऐसी बात हुई कि जब पदोन्नति मिली तो कमाण्डैण्ट, एस ए एफ बना दिये गये। ज़िले में एस पी की जो भूमिका होती है, उसे देखते हुये एस ए एफ में नियुक्ति फीकी पड़ जाती है। इसे लूप लाईन भी कहा जाता है। ऐसे पद हर सेवा में होते हैं जिस में वेतन तो बराबर मिलता है पर वह शान नहीं मिलती जो दूसरे पद में होती है। खैर, कुछ साल तक एस ए एफ में रहने के बाद श्री स्कसेना को ज़िला मिला पर फिर किस्मत ने धोका दिया और पाॅंच छह महीने के बाद ही वापस एस ए एफ में भेज दिये गये। अब 50 वर्ष के आयु में फिर एक बार ज़िला मिला है। जैसे चालर्स द्वितीय - इंगलैण्ड के राजा - कहा करते थे - ‘‘मैं फिर से यात्रा पर नहीं जाना चाहता - i do not want to go on my travels again ’’, वही स्थिति श्री स्कसैना की थी। इस कारण बचते बचाते चल रहे थे। उन के परिवार में श्रीमती के अतिरिक्त तीन और सदस्य भी थे - एक बेटी और दो बेटें। बेटी सोलह साल की हो रही थी और बेटे चौदह और दस साल के।
और भी पात्र जैसे जैसे इस कथा में आते हैं, उन का ब्यौरा दिया जाये गा। पर कई तो बस आते हैं, जाते हैं, उन का परिचय तो क्या नाम देने की आवश्यकता भी नहीं है।
3।
और यह मामला।
हुआ यह कि एक थे डा- वाडिया। अच्छे सुलझे हुए शल्य चिकित्सक थे। आज के करीब 3 साल पहले जिले में आए थे। लंदन से frcs थे। हाथ अच्छा था। ऑपरेशन शायद ही कोई नाकामयाब हुआ हो। बड़े से बड़ा ऑपरेशन करने से हिचकते नहीं थे। गजब के भाग्यशाली थे। कहते हैं एक बार वह किसी गांव में ऑपरेशन करने लगे। क्लोरोफार्म सुंघा दिया। ऑपरेशन करने लगे तो पता चला कि एक हथियार तो अस्पताल में ही रह गया। फिर क्या था। तुरंत मोटरसाइकिल निकाली और तूफान की रफ्तार से गयें और तूफान की रफ्तार से लौटे और ऑपरेशन कर दिया। और वह भी कामयाब। सब डॉक्टर उन से जलते थे। उन्हें नीचा दिखाने के फिराक में रहते थे। लेकिन सफलता के पश्चात सफलता उन के कदम चूमती थी। एक धाक थी।
लेकिन सफलता केवल सफलता के लिए उन्हें प्रिय न थी। art for art's sake की उक्ति उन्हों ने सुनी तो थी पर यह उन पर लागू हो सकती थी, इस की कल्पना भी उन्हें नहीं थी। उन्हों ने इस के बारे में कभी सोचा नहीं था। वो सफलता का दाम वसूल करने में व्यस्त थे। उन्हें सोचने की फुरसत ही नहीं थी। नौकरी तो सरकार ने दी थी पर सफलता तो सरकार ने नहीं दी थी। वह तो उन की अपनी थी और उस की कीमत लेना वह कोई गलत बात नहीं मान रहे थे। इसी लिए चाहे मरीज घर पर आए या अस्पताल में, उन की बंघी रकम तो उन को मिलना ही चाहिए। चाहे वह राशि शुरू में दे दे या जब मरीज ऑपरेशन टेबल पर लेटा होे। उस समय तक आपरेषन शुरू नहीं होता था जब तक रकम नहीं मिल जाती थी।
कहते हैं कि पैंतीस की उम्र तक सभी समाजवादी होते हैं। डा। वाडिया इस समय 37 साल के हो गए थे। तीन चार साल पहले वह पूरे समाजवादी थे। इसी लिए अमीर हो या गरीब वह सब से ऑपरेशन के हिसाब से एक सी रकम वसूलते थे। जैसे-जैसे सफलता बढ़ती गई वैसे ही वह रकम भी बढ़ती गई। पर समाजवाद कायम रहा। लेकिन जमाना केवल समाजवाद का, समानता का ही नहीं था। आवाज उठी कि कमजोर वर्गों को, दलित वर्गों को निहित स्वार्थों से, प्रतिक्रियावदियों से बचाया जाए। समाजवादी गली गली चिल्लाने लगे - असली समाजवाद तभी संभव है जब प्रतिक्रियावादी समाप्त हो जाए ंगे। दलित वर्ग की सहायता करना राष्ट्र का प्रथम कर्तव्य है। सिंडीकेट से बचें, उन की ताकत को समाप्त करें।
डा. वाडिया भी इसी रौ में बह गए। पूंजीपतियों की ताकत खत्म करना चाहिए, यह उन को अच्छा लगा। उन की ताकत उन की पूंजी में है, यह भी वह जानते थे। और फिर अब तक वह पैंतीस से ऊपर भी हो चुके थे। इस सभी का प्रभाव हुआ कि उन्हों ने अपना तरीका बदल दिया। सब से समान रकम लेने की बजाय उन्हों ने पूंजीपतियों से ज्यादा रकम मांगना शुरू कर दिया। मांगी गई रकम देने की शक्ति से मिलाई जाने लगी। ऑपरेशन अगर डॉक्टर साहब एक आदिवासी से एक सौ रुपए ले कर कर देते थे तो उसी के लिए पूंजीपतियों को ₹500 तक देना पड़ सकता था।
जैसा कि अपेक्षित था। डा. साहब द्वारा इस प्रकार समानता लाने के प्रयत्नों ने पूंजीपति समाज को झंझकोर कर रख दिया। जलती में तेल का असर तो तब हुआ जब डॉक्टर साहब ने सफैद टोपी पहनने वाले मशहूर और महरूफ समाजवादियों को भी इस सिलसिले में छोड़ने से इनकार कर दिया। समाजवादी जोकि समानता के नारे लगा लगा कर अपना गला खराब कर चुके थे, इस बात को ले कर दुखी थे कि उन के गले की मरम्मत के लिए उन्हें कुछ मुआवज़ा देना पड़ेगा और यह मुआवज़ा उन के पास जमा राशि पर से किया जाए गा। इस बात का लिहाज़ नहीं किया जाए गा कि वे कमजोर लोगों तथा दलितों को ऊंचा उठाने में अपनी आवाज उठाते रहे है। ज़ख्म पर नमक छिड़कने के माफिक हो गया कि डॉक्टर साहब ना केवल उन की घाेषित पूॅंजी का हिसाब रखते थे बल्कि उन के काले धन को भी जोड़ देते थे। यह असहनीय था। आखिर काला धन जनता की सेवा के लिए ही तो था। इसी से चुनाव जीतने थे। जिस से समाजवाद लाना था। इसी से दलित कमजोर वर्गों को चुनाव के दिन ऊंचा उठा कर अपने को सब के समकक्ष मानने के लिए शराब भी पिलाना था। आवाज उठाने वालों को भी कुछ तो देना था। लेकिन डॉक्टर साहब ने इस सब को नहीं देखा। उन्हें तो बस अपनी सफलता के दाम वसूलने थे। तो हुआ यह कि मौका तलाशा जाने लगा।
मौका मिला जनवरी की एक रात को। एक सेठ के लड़के अपने नई मोटरसाइकिल पर अपनी क्षमता दिखा रहे थे। गवाह तो एक ही था जो उन के पीछे की सीट पर बैठा हुआ था। लेकिन उन्हें अपने जौहर तो दिखलाना ही था। इसलिए पूरी रफ्तार से मोटरसाइकिल शहर की तरह चली आ रही थी। शाम के झुटपटे का वक्त था। सामने से एक बैलगाड़ी आ रही थी और एक पुलिया भी सामने आ गई थी। बैलगाड़ी पुलिया के ऊपर थी। रोकने की कोशिश तो बहुत की गई पर मोटरसाइकिल रुकने को तैयार न थी। इस कशमकश में गाड़ी फिसली और दोनों सवार सड़क पर गिर गये। गाड़ीवान शायद सो रहा था इसलिए बैलगाड़ी अपनी गति से चलती रही और यह दोनों सड़क के किनारे पर पड़े रहे। ड्राइवर को तो काफी चोट आई थी और साथी बेहोश हो गया था। समय अपनी रफ्तार से चलता रहा और खून अपनी गति से बहता रहा। ना कोई गवाह देखने के लिए था और न कोई व्यक्ति कुछ करने को। यह तो पता नहीं कि वह कितनी देर पड़े रहे। लेकिन एक बैलगाड़ी आ रही थी, उस ने इन को देखा। अभी तक साथी को कुछ होश आ गया था। उस ने और गाड़ी वाले दोनों ने मिल कर सेठ के लड़के को उठाया और शहर की तरफ ले चले। साढ़े आठ बजे तक वे अस्पताल पहुंच गए। उस समयं हॉस्पिटल में केवल एक लेडी डॉक्टर थी। उस ने मरीज को देखा और मायूसी में सिर हिला दिया। तुरंत खबर फैली और लोग बाग इकठ्ठे हो गये। डा. साहब घर पर नहीं थे और पता लगा कि सिनेमा देखने गये हैं। लोग सिनेमा की तरफ भागे। डा़ वाडिया को ढूंढा और उन से चलने को कहा। उस में थोड़ी सी पिक्चर ही बाकी रह गई थी। पूरा समाजवादी गिरोह पूरी वर्दी धारण किए हुए साथ था। इस लिए पिक्चर को बीच में ही छोड़ कर उठना पड़ा। उठे, अपनी कार को ढूंढा और अस्पताल आ गए।
लेकिन तब तक हालत बदल चुकी थी। लेडी डॉक्टर ने कुछ नहीं कहा था लेकिन लोग बाग सब समझ गए थे। बड़े आदमी थे इस लिए काफी लोग जमा हो गए थे। समय एवं परिस्थितियां दुर्घटना को बदलने लगी। साढे आठ बजे के बदले सवा आठ हुए, फिर आठ। डाक्टर को किस वक्त किस ने बताया, यह भी लोगों के लिए चर्चा का विषय बन गया। जाने कब डाक्टर के पुराने इतिहास को याद किया गया और कब किस समय यह फैसला हो गया कि मौत केवल डाक्टर साहब के घर पर ना होने के कारण ही हुई है। अगर वह पिक्चर देखने ना जाते तो मौत ना होती। क्यों ना होती, यह तो तर्क वितर्क का विषय नहीं था, यह तो धारणा का विषय बन कर रह गया।
और इसी कारण जब डॉक्टर वाडिया अस्पताल पहुंचे तो उन की कार पर पत्थर गिरने लगे। और पत्थरों के साथ नारेबाजी तो ऐसे हैं जैसे धूप के साथ छाया। डॉक्टर और उन के परिवार वाले अपने घर के अंदर भागे और फिर कुछ अक्ल आई तो पिछवाड़े से निकलकर एक दूसरे क्वार्टर में। वहां एक डॉक्टर थे जो कि काफी बवदजतवअमतेपंस कंट्रोवर्शियल थे। उन के बारे में अलग अलग राय थी। कुछ लोग तो उन्हें पागल करार देते थे और कुछ केवल सनकी। बहर हाल वह बंदूक ले कर अपने क्वार्टर के सामने खड़े हो गये। यह स्थिति देख कर भीड़ का ध्यान डाक्टर की तरफ से हट कर उन के मकान की तरफ मुड़ गया। कार के शीशे तो चूर चूर हो ही चुके थे, अब उस की सीटें निकाली गई। पत्थर से रेडिएटर इत्यादि की भी खबर ली गई। फिर घर के दरवाजों की बारी आई। दो एक फोटो अपने फ्रेमों से बिछड़ गए। फिर मेजो, कुर्सियों को इकट्ठा किया गया ताकि आगे की कार्यवाही की जा सके।
लेकिन तभी रंग में भंग डालने के लिए पुलिस आ गई और यह कार्यवाही रुक गई। लेकिन पुलिस वाले कम थे। वह कार्रवाई रोकने में तो सफल हो गये पर भीड़ ज्यों की त्यों रही। कलेक्टर एस पी को खबर भेजी गई। रिज़र्व लाइन को भी खबरदार कर दिया गया।
10 बजते बजते स्थिति काबू में आ गई। भीड़ अस्पताल के गेट के सामने थी और डॉक्टर को उन के हवाले करने के लिए चिल्ला रही थी। पुलिस गेट के अंदर थी और उन्हें देने को तैयार न थी। कलेक्टर और एस पी लोगों को समझाने में लगे हुए थे। उन का कहना था कि जो भी दोषी हो गा उस को सजा दी जाए गी, उस के खिलाफ कार्रवाई की जाये गी। लेकिन लोग दोषी की नहीं, डाक्टर की बात कर रहे थे और यही स्टेलमेट गतिरोध था। और सज़ा की चिन्ता नहीं थी, वह तो उसे खुद ही दे लें गे।
ग्यारह बजे तक 20 पुलिस वाले और मिल गए। होमगार्ड के 25 जवान भी ट्रेनिंग में से ले लिए गए। इस फोर्स के आने के पर कलेक्टर की रणनीति बदल गई। मेन गेट को खाली करा लिया गया क्योंकि फोर्स को अंदर आना था। लेकिन फोर्स अन्दर नहीं आई। सड़क पर फैल गई और धीरे-धीरे लोगों को पीछे हटाना शुरू कर दिया। सड़क पर आवागमन बंद कर दिया गया। पुलिस थाना और अस्पताल के बीच का रास्ता साफ हो गया। इस बीच लोगों को मनाने की कार्यवाही भी चलती रही। कई नेता भी वहां पहुंच गए थे। उन्हें इस बात का अवसर दिया गया कि वे अपने को सब के सामने पेश करें।
साढ़े ग्यारह बजे फिर रणनीति बदली। लोगों को कहा कि अब घर जायें अथवा कार्रवाई की जाये गी। डॉक्टर को सौंप देने की बात तो अपने आप समाप्त हो गई थी। चेतावनी के पश्चात चेतावनी को देखते हुए कम और बढ़ती हुई सर्दी के कारण ज्यादातर लोग अपने अपने घरों को लौट गये। बचे हुए लोग पुलिस की संख्या से कुछ कम ही थे इसलिए वह भी घर चल दिए।
बारह बजे तक स्थिति शांत हो गई। पुलिस गार्ड डॉक्टर के लिए लगाई जा कर उस दिन का ड्रामा समाप्त कर दिया गया।
दूसरे दिन दोपहर का का माहौल देखा गया। स्थिति शांत थी। कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। अब गिरफतारियों का दौर चला। वह तो होना ही था, इसे जानते हुए ज्यादातर लोग गायब थे। लेकिन पांच हिरासत में लिए गए। बाप और भाईयों को क्रियाक्रम के लिए छोड़ दिया गया। । कुल 13 लेागों की सूची तैयार हुई कुछ को अगले दो दिनों में पकड़ा गया। बाकी सात आठ दिन तक छुपे रहे लेकिन कब तक।
कुछ दिनों के बाद चालान पेश कर दिया गया। चूंकि शहादत मजबूत थी और जिला प्रशासन ढील नहीं दे रहा था। पकड़े जाने वाले सेठ के परिवार के थे या उनके हमदर्दी। पूंजीपति, समाजवादी ओर कुछ पहुंच वाले भी इन में शामिल थे।
फिर शुरू हुई वह कार्रवाई जिस से यह कहानी आरम्भ हुई है।
(विनंति — वास्तव में एक पूरा उपन्यास लिखा जाना था पर सरकार ने रंग में भंग डाल दिया। एक स्थान पर थे जहॉं काम कम और आराम अधिक था। फुरसत के समय में लिख् सकते थे। सरकार ने स्थानान्तर कर ऐसे पद पर कर दिया जहॉं रिवायत के मुताबिक सर खुजाने की फुरसत नहीं थी। यद्यपि वास्तव में सर तो फाईल पढ़ते पढ़ते भी खुजाया जा सकता है। पर कहावत तो कहावत है, इस लिये हम ने भी लिख दी। खैर, उपन्यास जहॉं था, वहीं तक रह गया। यह भाग भी कोविड द्वारा जनित विश्राम का परिणाम है नहीं तो इतने सालों यह घूल खा रहा था और दीमक इसे खाने की फिराक में थी। बचते बचाते इतना तो रह ही गया हे सो पेश है)
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