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संग्रहण बनाम जीवन

संग्रहण बनाम जीवन


सभ्यता का आरम्भ मनुष्य द्वारा प्रकृति पर नियन्त्रण के प्रयास के साथ हुआ। जीवन को सुखमय बनाना ही लक्ष्य रहा। अग्नि को स्वयं प्रजलवित करने से शुरू हुआ यह अभियान काफी सफल हुआ किन्तु औद्योगिक क्रॉंति के पूर्व इस में आंशिक सफलता ही मिल पाई। व्यक्तिगत परिश्रम एवं कठिनाई से प्रदत्त सामग्री के कारण जीवन कष्टमय रहा आया। औद्योगिक क्रॉति के फलस्वरूप शारीरिक शक्ति के स्थान पर यॉंत्रिक शक्ति तथा विद्युत शक्ति के कारण कार्य करना सरल हो गया। इस से बड़ी मात्रा में उत्पादन होने से सभी के लिये काफी सामग्री उपलब्ध हो गी और प्रसन्नता भरपूर हो जाये गी, यह आशा थी। पुरुषों तथा विशेष रूप से महिलाओं को श्रम साध्य कार्य से निजात मिल जाने की भी इस से अपेक्षा थी। औद्योगिक क्रॉंति के आरम्भिक काल में यह उम्मीद जग गई थी कि सभी लोगों को सभी प्रकार की प्रसन्नता का अवसर प्राप्त हो जाये गा, किन्तु समय बीतने के साथ निराशा ही हाथ लगी।


जल्दी ही यह अनुभव हो गया कि यह आराम केवल ऊपर के तबके को ही प्राप्त हुआ तथा नीचे के स्तर पर वही समस्या रही बल्कि उस में वृद्धि ही हुई। समाजवाद तथा साम्यवाद का नारा बुलन्द हुआ तथा रूस में साम्यवादी सरकार स्थापित भी हो गई। परन्तु सर्वहारा को उपलब्ध प्रसन्नता उतनी ही दूर रही। यह विरोधाभासी है कि उच्च वर्ग को भी उस प्रसन्नता का अनुभव नहीं हो पाया जिस की अपेक्षा थी।


इस के कारण खोज पाना उतना कठिन भी नहीं है। निम्नानुसार मुद्दों पर विचार किया जा सकता है -

1- प्रसन्नता केवल भौतिक सुविधाओं पर ही निर्भर नहीं है।

2- स्वतन्त्र जीवन बिताने की कल्पना में सरकारी तथा गैर सरकारी नियन्त्रण आड़े आ जाता है।

3- आर्थिक प्रगति कुछ देशों में सिमट कर रह गई तथा उन की प्रगति अन्य देशों के शोषण पर ही सम्भव हो सकी।

4- तकनीकी प्रगति ने पर्यावरण इत्यादि पर विपरीत प्रभाव डालने आरम्भ कर दिये जो आज मानव जाति के लिये बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रही है।


अल्बर्ट श्यैवाटज़र ने अपना नोबेल पुरस्कार लेते समय कहा था - ‘‘मनुष्य सुपर मनुष्य बन गया है तथा उस के पस सुपर शक्ति उपलब्ध है किन्तु वह सुपर कारणों तक नहीं पहुॅंच पाया है। शक्ति बढ़ने के साथ साथ वह अधिक गरीब होता जा रहा है। उस में प्रसन्नता का अनुभव महसूस होना आरम्भ नहीं हुआ। वास्तव में हमें यह सोेचना हो गा कि हम सुपर मनुष्य होने की कल्पना में मनुष्यता को क्यां खोते जा रहे हैं।


आखिर वह क्या कारण हैं जो अपेक्षाओं का पूरा नहीं करने दे रहे हैं।


एक तो हमारी यह धारणा है कि अधिक सम्पन्नता का अर्थ अधिक प्रसन्नता है।ं

दूसरे अपनी प्रसन्नता का आधार अन्य व्यक्तियों से अधिक सम्पन्न होना है। समानता भी इस के आड़े आती है। इस प्रवृति को समाप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया गया।


इतिहास बताता है कि रोम में कुछ व्यक्तियों को शेरो के सामने डालने से देखने वालों को अपार आनन्द मिलता था। सर्वे भवन्तु सुखिनः की भारतीय कल्पना सार्वजनिक नहीं हो पाई। इस के विपरीत सुखवाद का ही वर्चस्व रहा। जहॉं तक अमीर वर्ग अर्थात सामन्त वर्ग का सवाल था, उन के लिये शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही माना गया सुखवाद था। सतरहवीें तथा अठारहवीं शताब्दी में यह धारणा मध्यम वर्ग में भी पुष्ट होने लगी। अठारहवीं सदी के बाद कुछ व्यक्यिों ने नैतिक मूल्यों की बात करना आरम्भ कीं जो उन के द्वारा शरीर का सुख तथा जीव को दुख की अनुपस्थिति तक ही सीमित रही। इस के विपरीत पूर्व - चीन तथा भारत - में आत्मा को विचार के मध्य में रखा गया। आत्मिक सुख को ही वॉंछनीय लक्ष्य माना गया।


आरम्भ में सामन्तों ने ही समस्त स्रोत - भूमि, पूूंजी, श्रम - पर अधिकार कर लिया। जैसे जैसे सम्पदा बढ़ी, औेर मध्यम वर्ग आगे आया तथा जो गुण अथवा अवगुण सामन्तों में थे, वे मध्यम श्रेणी में भी आ गये। कुछ लोगों ने इस सुखवाद को अन्य नाम से पुकारा जैसे कि उपयोगितावाद। कृछ जैसे मार्कस, काण्ट, थोरो ने इस सुखवाद का विस्तार श्रमिक वर्ग में करने के लिये कहा। परन्तु मौलिक विचार वही रहा अर्थात भौतिक सुख की वृद्धि। इस में एक ओर औद्योगिक गतिविधि से बढ़ता हुआ उत्पादन था तथा दूसरी ओर दूरदर्शन, वाहन, तथा सहवास का वर्चस्व। एक ओर पूर्ण आलस्य था और दूसरी ओर सतत परिश्रम। दोनों ही परिस्थितियॉं थका देने वाली हैं। और वास्तविक सुख से दूर रखने वाली हैं। देखने में आता है कि अमरीका जैसे सम्पन्न देश में मानसिक रोगें की संख्या अनुपातिक रूप से बहुत अधिक है। दूसरी ओर पिछड़े देश में श्रमिकों की आर्थिक हालत नाज़ुक रहती है परन्तु मानसिक रोग का अनुपात कम ही रहता है।


एक और दावा यह किया गया था कि जब सब लोगों की अपनी आवश्यकता पूरी हो जाये गी तो आपस का वैमनस्य कम हो जाये गा तथा आपसी भाईचारा बढ़े गा। पर अनुभव से यह बात ठीक प्रतीत नहीं होती। समस्या यह है कि स्वकेन्द्रित व्यक्ति जितना हो, उस से अधिक चाहता है। इस कारण उस की सहकार्यकर्ता से हमदर्दी नहीं, केवल प्रतियोगिता होती है। जिन के पास उस से अधिक है, उन से उसे रश्क होता है। जिन के पास उस से कम होता है, उन से उसे डर लगता है। दोनों ओर ही सहभागिता का विचार नहीं आता है। इस कारण ही वर्गसंघर्ष समाप्त नहीं हो पाता। साम्यवाद अब एक कहानी बन कर रह गया है तथा वर्गसंघर्ष जारी है।


मध्यकालीन युग में (तथा पिछड़े देशों में अभी भी) व्यवसायिक सम्बन्ध नैतिक नियमों पर आधारित थे। पूॅंजीवाद ने इस में निश्चित रूप से परिवर्तन किया तथा आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार की बन गई जिस में सहभागिता एक गौण विषय है। इसी का परिणाम एक ओर कर्मियों के शोषण के रूप में सामने आई और दूसरी ओर छोटे दुकानदारों एवं व्यापारियों में कमी आई तथा बहृत व्यापार ईकाईयॉं उभर कर सामने आईं। ऐसी स्थिति में मुख्य प्रश्न यह नहीं होता कि मनुष्य के लिये क्या अच्छा हो गा वरन् यह कि कम्पनी के लिये क्या अच्छा हो गा। प्रकृति के साथ सामन्जस्य बनाने का प्रश्न ही नहीं है। वास्तव में प्रकृति के प्रति द्वेष का भाव ही है। इस के दोहन से ही उत्पादन बढ़ता है।


इस समस्या का अध्ययन कई व्यक्तियों द्वारा किया गया है। एक अध्ययन मीडोज़ (क्लब आफ रोम) द्वारा है और दूसरा मैसेरोविक द्वारा। दोनों में ऑंकड़ों की सहायता से बताया गया है कि यदि वर्तमान दिशा में चलते रहते हैं तो विश्व को भयंकर स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। दोनों राजनैतिक एवं आर्थिक परिवर्तन चाहते हैं। एक और अध्ययन अर्थ शास्त्री शूमेकर द्वारा है। उन का विचार है कि मनुष्य के विचार पद्धति में तथा सामाजिक संरचना में परिवर्तन किये बिना इस विश्व का तबाही से बचना कठिन है। हृदय परिवर्तन ही इस समस्या का निदान है।


यह नहीं कि आम नागरिक तथा राजनेता इस खतरे से आगाह नहीं हैं। पर कोई कुछ ठोस कदम उठाने को तैयार नहीं है। यह जानते हुये कि विश्व समाप्त होने की कगार पर है, वह कुछ कर नहीं पाते हैं। सम्मेलन, संकल्प, उच्च स्तरीय बैठकें इन के लिये आयोजित की जाती है जिस से यह आभास होता है कि वे खतरे को टालने के लिये कृतसंकल्प है। किन्तु किया कुछ नहीं जाता। एक उदाहरण आर्थर कोसलर का है जो फ्रानको का कट्टर विरेाधी था। यह मालूम था कि फ्रानको की सेना अगले दिन किसी भी समय पहूंच सकती है और उसे गोली से उड़ा दिया जाये गा। पर रात सरद थी, वर्षा हो रही थी और घर गर्म और आरामदेह था। इस कारण वह हिला नहीं। अगले दिन वह बन्दी बना लिया गया। दोस्तों की सहायता से कुछ्र महीने बाद उसे छोड़ा गया। यही हाल हमारे राजनैतिकों का तथा आम नागरिक का है। वे आज के आराम को नहीं छोड़ना चाहते और भविष्य के लिये कुछ नहीं करते।


एक दूसरा कारण यह भी है कि आज का नेता केवल अपना भविष्य देखता है। उसे विश्व के अथवा देश के भविष्य के बारे में चिन्ता करने के लिये समय अथवा प्रवृति नहीं होती। अपने स्वार्थ के लिये वह कोई भी अप्रिय कदम उठाने को तैयार नहीं है। सामान्य जनता भी उसी रौ में बहती है तथा आज की चिन्ता में कल को नज़र अंदाज़ कर देती है तथा उन्हीं नेताओं को फिर से चुन लेती है।


जो प​रिवर्तन शूमेकर तथा अन्य प्रस्तावित करते हें, वे इतने क्रॉंतिकारी हैं कि पूरी दिनचर्या और जीवन पद्धति ही बदल दें गे। सामान्य जन अपने आरामदेह पर्यावरण में इतना रच बस गया है कि कोई भी परिवर्तन - छोटा अथवा बड़ा - उसे भयावह लगता है भले ही इस में उस के आस्तित्व का प्रश्न निहित हो।


ऐसी स्थिति में क्या किया जा सकता है, इस पर विचार करना आवश्यक है।


इस विषय पर थोड़े विस्तार से बात की जाये। ओल्ड टैस्टामैण्ट में कहा गया है कि परमात्मा ने छह दिन में पूरी दुनिया बनाई। छटे दिन उस ने मनुष्य को अपने ही प्रतिरूप में बनाया तथा उसे पूर्व पॉंच दिन में बनाई गई सभी वस्तुओ पर आधिपत्य दिया। इन में जल, थल, आकाश के सभी जीव, पृथ्वी तथा सागर की पूरी सम्पत्ति थी। परमात्मा ने उन्हें आदेश दिया कि सभी विश्व का आधिपत्य लो तथा उस का उपभोग करो। इस प्रकार सभी सम्पत्ति को धारित करने का आदेश प्रथम स्थान परं ही है। यह मौलिक सिद्धॉंत अथवा परमात्मा का आदेश ही आज की व्यवस्था के लिये उत्तरदायी है।


इस के विपरीत पूर्व में जन्मे धर्म में क्रमशः विस्तार की बात की गई है। मनीषियों ने अपने दर्शन में पुनः अपनी स्थिति में लौटने का आवाहन किया है। आधिपत्य के स्थान पर त्याग की बात की गई है। इस में बनने पर ज़ोर है। इदं न मम - की बात बार बार दौहराई जाती है।


इस अन्तर को भाषा के विकास में भी इस बात को देखा जा सकता है कि किस प्रकार होने के स्थान पर अपनाने पर ज़ोर क्रमशः दिया जा रहा है। प ींअम ंिससमद पद सवअम 'आई हैव फालन इन लव' में प्रेम को एक गड्ढे के रूप में दिखाया गया है जिस में कोई गिर सकता है। वास्तव में शब्द हैं आई एम पद लव। इस से स्पष्ट है कि वास्तव में प्रेम तो एक क्रिया है जो हो जाती है। संज्ञा और क्रिया में यह अन्तर महत्वपूर्ण है।


मेरी एक समस्या है - वाक्यांश में भी समस्या को एक संज्ञा माना गया है जिस को और स्पष्ट करना आवश्यक है जैसे कि समस्या है कि रात को नीद नहीं आती। जब समस्या का इस प्रकार स्पष्ट किया जाता है तभी उस का समाधान भी खोजा जा सकता है। दिक्कत यह होती है कि समस्या को सम्पत्ति मान लिया जाता है। मेरी समस्या, मेरी कठिनाई्र, मेरे संदेह - इन सब में सम्पत्ति की बात निहित है। वास्तव में स्थिति और समस्या में भेद भुला दिया जाता है। रात को नींद न आना एक स्थिति है, समस्या नही। इस स्थिति को मानसिक अथवा भौतिक उपचार द्वारा परिवर्तित किया जा सकता है।


वास्तव में समस्या की जड़ यह है कि उपभोक्तावाद बढ़ गया है। उपभोग में यह निहित है कि वस्तु पर अधिकार हो तथा वह अपनी सम्पत्ति हो। चाहे भोजन हो अथवा अन्य वस्तु (रेडियो, टी वी इत्यादि) उस का अपनी सम्पत्ति होना अनिवार्य है।


इस के विपरीत जीवन में सम्पत्ति होने की नियम अनिवार्यता लागू नहीं होती है। मैं अठारह साल का हूॅं, इस वाक्यांश में सम्पत्ति की भावना नहीं आती है। इस में नित्य परिवर्तन होता रहता है। यह केवल एक स्थिति का वर्णन है। अपनत्व की भावना न होने से इस के प्रति लगाव अथवा मोह नहीं होता है। इस को ही जीवन्त स्थिति माना जाये गा।


हमारे जीवन में आरम्भ से ही संग्रहण की प्रवृति को प्रोत्साहित किया जाता है। शिक्षा में हमें कुछ तथ्य ग्रहण करने होते हैं जो हम अपने मस्तिष्क में रख लेते हैं अर्थात वह हमारी सम्पत्ति बन जाते हैं। इस का प्रयोग हम परीक्षा देते समय करते हैं किन्तु यह हमारे जीवन का भाग नहीं बन पाती। यदि हम जीवन की ओर से सोचें तो प्रत्येक तथ्य को ग्रहण करते समय यह सोचें गे कि इस का जीवन में क्या स्थान है। यही बात ज्ञान के बारे में भी लागू होती है। मुझे जानकारी है तथा मैं जानता हूॅं में अन्तर यह है कि एक सम्पत्ति है, दूसरा जीवन में उतारने योग्य तथ्य। पैरिस फ्रांस की राजधानी है, यह जानकारी मेरी है पर इस का मेरे जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि मुझे पैरिस पहुॅंचने के लिये यातायात की आवश्यकता है तो वह इस योग्य है कि उसे जीवन का अंग समझा जाये। इसी प्रकार चित्रकला की जानकारी तथा चित्र बनाने की कला में अन्तर है।


अधिकतर दार्शनिक जीवन के सत्य के बारे में जानना चाहते हैं। भारतीय मनीषियों ने सदैव दर्शन का अर्थ यह लगाया है कि अपने आप को जानो। अहं ब्रह्मास्मि में यह निहित हैं कि मैं ज्ञाता, ज्ञान तथा ज्ञेय हूॅं। ब्रह्म ही वह अंतिम तथ्य है जिसे हम अपने भीतर ही जान सकते हैं। यही विश्वास हे, यही धर्म है। इस में जानना आवश्यक है, धर्म कुछ क्रियायें नहीं हैं। किसी एक पुस्तक को अपना मानना और शेष का निरादर करना संग्रहण का ही रूप है। इन के सिद्धॉंतों का पालन करना जीवन है परन्तु उस में भी अपनत्व की भावना का त्याग करना हो गा।


वर्तमान काल को संग्रहण काल कहा जा सकता है। इस में सम्पत्ति धारण करना सब से महत्वपूर्ण है। वैसे तो यह प्रवृति आदि काल से ही चली अर रही है। पहले समूह ने मिल कर सम्पत्ति पर अधिकार जमाया; फिर यह परिवार तक सीमित हो गा तथा फिर यह व्यक्ति विशेष का स्थायी अधिकार बन गया। पितृसत्ताप्रधान समाज में पुरुष ने स्त्री को भी अपनी समपत्ति मान कर व्यवहार किया। इस में अमीर गरीब सभी शामिल थे। परन्तु इस शताब्दि की सब से महत्वपूर्ण सम्पत्ति अहम् है। अहम् ही वास्तव में अन्य सम्पत्ति के लिये उत्तरदायी है। अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहलाने की भावना हमें अधिक सामग्री इकठ्ठा करने के लिये कहता है। अमीर गरीब सभी में यह विद्यमान है।


सम्पत्ति धारण इस प्रवृति में भी बदलाव आया है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में नई संस्कृति में ‘उपभोग करो और फेंको’ को भव्य स्थान दिया गया है। इस से पूर्व विचार ‘उपभोग करो’ तक ही सामित था पर अब व्यक्ति जल्दी ही उपलब्ध वस्तु से उकता जाता है तथा नया माडल लेने के लिये बेताब हो जाता है।

एक बार फिर हम मूल कारण की ओर लौटें। सभ्यता का आरम्भ सम्पत्ति के अधिकार के साथ हुआ। इस से पूर्व्र सभी वस्तुयें संयुक्त रूप से धारित थीं। संयुक्त रूप से प्रयास कर शिकार किया जाता था तथा बॉंट कर ही उस का उपभोग किया जाता था। इस स्थिति में परिवर्तन सम्भवतः स्त्री के कारण हुआ। कोई विशिष्ट स्त्री किसी की सम्पत्ति हो गई जिस का प्रतिरक्षण अन्य पुरुषों से किया जाना था। परिवार के आस्तित्व में आने के साथ इस में और विकास हुआ। परिवार की अपनी वस्तुयें उन की सम्पत्ति मानी गईं। उक्त विकास के पश्चात भी कुछ वस्तुयें जैसे भूमि संयुक्त रूप से ही धारित रहीं। इस में परिवर्तन तब हुआ जब व्यक्ति का व्यक्ति पर अधिकार की स्थापना हुई। इस में कुछ व्यक्तियों के श्रम का प्रतिफल किसी अन्य व्यक्ति को मिलने लगा। धीरे धीरे इस का विस्तार हुआ और गुलाम बनाने का भी चलन आरम्भ हो गया जिस में मनुष्यों को ही सम्पत्ति मानने का सिलसिला शुरू हो गया।


लेकिन देखा जाये तो सब से बड़ी सम्पत्ति मनुष्य का अहम् सिद्ध हुआ। अहम् ही वास्तव में अन्य सम्पत्ति के लिये उत्तरदायी है। अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहलाने की भावना हमें अधिक सामग्री इकठ्ठा करने के लिये कहता है। अमीर गरीब सभी में यह विद्यमान है। जो है, उस से अधिक पाने की अभिलाषा एक सार्वलौकिक तथ्य है।


परन्तु इस सम्पत्ति अधिग्रहण में शारीरिक क्षमतायें इसे सीमित करती हैं। अंततः मनुष्य कितना भोजन कर सकता है अथवा सहवास कर सकता है। इस में परिवर्तन तब हुआ जब सम्पत्ति का स्वरूप वस्तुनिष्ट होने के स्थान पर मनोनिष्ट हो गया। मन की कोई सीमा नहीं है तथा वह अधिक पाने की लालसा सदैव बनाये रखता है। श्रेष्ठ कहलाने की भावना हमें अधिक सामग्री एकत्र करने के लिये कहती है। अमीर गरीब सभी में यह विद्यमान है। यही भावना सिकन्दर को विश्वविजय पर निकलने के लिये प्रेरित करती है। यही भावना अश्वमेध यज्ञ को उच्च स्थान प्रदान करती है। यही भावना मनुष्य को अपराध की ओर भी प्रेरित कर सकती है।


जहॉं तक सामान्य व्यक्ति का प्रश्न है, इस अधिग्रहण प्रवृति का विस्तार औद्योगिक क्रॉंति के साथ हुआ जब मनुष्य को कम परिश्रम से अधिक वस्तुयें मिलने लगीं। उस की अभिलाषायें नई उड़ान भरने लगीं। सम्पत्ति केवल कुछ की बपौती न हो कर सार्वजनिक हो गी, ऐसी आशा बंधने लगीं। इसी समय में समाजवाद तथा साम्यवाद का उदय हुआ। सभी को बराबर का हिस्सा मिले। आदर्श वाक्य बना - सब से क्षमता के अनुसार काम, सब को आवश्यकता के अनुसार दाम। इस समानता के समाज के लिये यह आवश्यक था कि अधिक सम्पत्ति बटोारने की प्रवृति पर लगाम लगे। सभी इस मत के हों कि दूसरे का हक भी मेरे जितना है। किन्तु यह पूर्व पोषित स्वभाव के विरुद्ध है अतः इस कारण यह नई भावना जम नहीं पाई। साम्यवादी देशों में भी असमानता पूर्ववत स्थिर रही। इस में संदेह नहीं कि औद्योगिक क्रॉंति के साथ उत्पादन बढ़ा तथा सभी को प्रदत्त भाग भी बढ़ा। परन्तु आधिपत्य के स्वभाव ने यह निश्चित किया कि अधिग्रहण सीमा में रहे। मनुष्य ने सम्पत्ति प्राप्त की पर उस कर रक्षा भी की। उसे अधिक समय तक अपने पास रखने का यत्न किया तथा जो उपलब्ध है उस का भरपूर उपयोग किया। इसी में उपयोगितावाद का उत्थान हुआ। उन्नीसवीं सदी तक यही प्रवृति रही।


उस के पश्चात प्रवृति में परिवर्तन हुआ। इस में अहम् ने बड़ी भूमिका अदा की। अपने को पड़ौसी से अधिक मानने तथा सिद्ध करने की प्रवृति ने जन्म लिया। अब सम्पत्ति अपने में संतोाजनक नहीं थी, उस के बारे में अन्य का जानना आवश्यक था। मेरा फोन उस के फोन से अधिक नवीन तथा अधिेक गुणों वाला है, यह महत्वपूर्ण हो गया यद्यपि यह स्पष्ट तौर पर ज्ञात रहता है कि दस में से नौ प्रक्रिया कभी भी अपनाने का अवसर नहींं आये गा किन्तु अहम की तुष्टि के लिये यह आवश्यक है। इस अस्वभाविक स्वभाव के लिये बहृत निगमों एवं अन्य द्वारा प्रचार एवं विज्ञापन भी काफी सीमा तक ज़िम्मेदार हैं।


सम्पत्ति अधिक दर्शाने के साथ साथ एक और प्रवृति भी जीवन के आड़े आती है। यह है दिखावट। व्यक्ति द्वारा अपने असली विचार प्रस्तुत नहीं किये जाते हैं। भले ही वह केवल अपनी सत्ता के लिये प्रयास कर रहा हो किन्तु कहे गा यही कि वह देश की भलाई के लिये ऐसा कर रहा है। भले ही वह अपने को दानदाता दिखाना चाह रहा हो किन्तु वास्तव में सम्पत्ति को बढ़ाना चाहता हो तो वह अपने जीवन के प्रति सच्चा नहीं है।


इस में युवा वर्ग की क्या भूमिका है। वह वर्तमान से संतुष्ठ नहीं हैं। उन के लिये कदम दर कदम बढ़ना स्वागत योग्य नहीं है। वह बदलाव चाहते हैं। पर वह अपना लक्ष्य तय नहीं कर पाये हैं। वे केवल निर्भरता तथा बंधन के विरुद्ध हैं। वह भूत काल में लौटना चाहते हैं जिस में सम्पत्ति का आधिपत्य महत्वपूूर्ण था। परन्तु सब नया ही हो, यह भावना भी बनी रही है। कुल मिला कर वह द्वन्दपूर्ण विचारों के बीच झूल रहे हैं।

हमें संग्रहण की इतनी आदत हो गई हैं कि हम इस से आगे कुछ सोच ही नहीं सकते। परन्तु जीवन वस्तुओ को इकठ्ठा करने से कहीं आगे है। संग्रहण से अलग यह अनुभव है। पर अनुभव को शब्दो में नहीं बताया जा सकता। जैसे ही अनुभव को शब्दों में बताते हैं, वह एक लेख, एक वस्तु बन जाता है और मेरा मेरा कहने से वह संग्रहण की परिभाषा में ही आ जाता हैं। नीला पारदर्शी शाीशा नीला क्यों दिखता है। इस कारण कि वह रोशनी के बाकी सभी रंगों का अपने में से गुज़र जाने देता है। केवल नीले रंग की तरंग को वह रोक लेता है। इसी कारण वह नीला दिखाई देता है। जीवन के साथ भी ऐसा ही है, जो मन में ठहर जाता है, वह ही अनुभव है। वह हर व्यक्ति का अपना है जिसे बॉंटा नहीं जा सकता।


जीवन के लिये मन का सक्रिय होना अत्यन्त आवश्यक है। सक्रिय होने का अर्थ आम तौर पर लगाया जाता है कि किसी ने क्या निर्मित किया हैं। चाहे वह कारखाने में श्रमिक हो अथवा दफतर में लिपिक, किस ने उत्पादन में कितना जोड़ा, यह देखा जाता है। वह व्यस्त हें किन्तु सक्रिय नही। उन की उस कार्य में रुचि हो अथवा नहीं, इस से भी सरोकार नहीं होता है। इस के पिवरीत सक्रिय व्यक्ति न केवल कार्य करते समय वरन् उस के बाद भी उस कार्य से जुड़ा रहता है। उसे जीवन्त व्यक्ति भी कहा जा सकता है। जीवन्त का अर्थ है कुछ नया करने की इच्छा एवं प्रयास। चित्र का सौंदर्य जिसे वह अनुभव करता है, उस का जीवन है।


सम्पत्ति में सब से प्रिय वस्तु है - जीवन। इस का दूसरा पक्ष है मृत्यु से डर। यह जानते हुये भी कि मृत्यु अवश्यंभावी है, मनुष्य वह सब तरीके अपनाता है जो इसे टाल सके। सम्भवतः इसी कारण हमारे दार्शनिको ने मोक्ष की कल्पना की थी जिस से जीवन तथा मृत्यु का चक्कर ही समाप्त हो जाये। इस का सरल उपाय उन्हों ने बताया कि सुकर्म किये जायें। तथा निष्काम कर्म किये जायें। कहा गया कि आत्मा अपने भीतर ही है तथा यह आत्मा ही ब्रह्म है। इस कारण भीतर की ओर झॉकना ही उचित हो गा। अच्छे कर्म ही हमारी वास्तविक सम्पत्ति है। अपने प्रति सच्चा रहना ही धर्म है, जीवन है।


एक अन्य परिघटना जो हमारे जीवन को नियन्त्रित करती है, हमारी समय के प्रति बंधन है। आज के युग में समय इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि हम अपने विश्राम के पल भी मसय देख कर ही तय करते हैं। विश्राम का महत्व इस से कम हो जाता है क्येांकि हम समय के बंदिश का ध्यान रखते हैं। यह भी वाह्यय परिस्थितियों का बंधन है। एक तरह से विश्राम भी कर्तव्य हो जाता है और विश्राम के क्षण हमारी सम्पत्ति बन जाते हैं। इस के स्थान पर केवल अपने ऑंतिरक संतोष के लिये आनन्द उत्सव मनाने की आवश्यकता है। सामाजिक जीवन में अधिक क्रियाशील होने की आवश्यकता है।


चूॅंकि समाज का प्रभुत्व इतना बढ़ गया है कि आदमी अपने बारे में स्वयं सोच भी नहीं सकता, अपने स्वयं की संतुष्ठि के लिये जीवन सापन कठिन हो गया है। वास्तव में होना यह चाहिये था कि जैसे श्रम साध्य उपकरण बनें गे, वैसे ही हमारे पास समय अपने अन्तर्मन की इचछानुसार कार्य करने के अवसर अधिक हों गे किन्तु वास्तव में हुआ इस के उलट है।


संक्षेप में उपभोक्तावाद को कम करने से ही मानव जाति के उत्थान का पथ प्रशस्त हो गा। सम्पत्ति की अंधी दौड़ के स्थान पर अंतरिक शॉंति को अधिक महत्व दिया जाना उपयुक्त हो गा। इस सम्बन्ध में कई विचारकों जैसे ई एफ शूमेकर ने अपना संदेह व्यक्त किया कि इस सीमित विश्व में असीमित उपभोग की बात अन्ततः विनाश की ओर ही ले जाये गी। इसी प्रकार पाल एलरिच का विचार है कि विश्व के स्रोत बढ़ती हुई जनसंख्या अन्ततः सब की मॉंग को पूरा करने में असमर्थ रहें गे। इस में तकनालोजी भी सहायक नहीं हो पाये गी तथा मानव मात्र ही को अपने विचारों में ही परिवर्तन करना हो गा ताकि केवल भौतिक संतोष के स्थान पर आत्मिक संतोष का अनुभव किया जा सके। पर्यावरण का विनाश तथा जलवायु परिवर्तन के कारण मानव जाति के पास अधिक समय नहीं हैं कि वह अपने मार्ग में परिवर्तन में विलम्ब करे।


इस संदर्भ में महत्मा बुघ के चार सत्य की बात दौहराई जो सकती है -

1- विश्व में दुख है।

2- दुख का कारण है

3- इन दुखों को दूर करने का मार्ग है।

4- इस के लिये सत्यमार्ग अपनाया जाना आवश्यक हो गा।


अंतिम तौर पर अपने प्रति जीवन्त होना ही मानव जीवन में प्रसन्न होने का एक मात्र मार्ग है।


क्या यह सम्भव है जब पूरा समाज उपभोगवाद से ग्रस्त है।


(संदर्भ - ईरिच फ्रोम की पुस्तक टू हैव आर टू बी - ब्लूमबरी अकादमिक - 2021 )


श्री ईरिच फ्राम द्वारा कुछ सुझाव दिये गये हैं जो पूर्णतः अव्यवहारिक प्रतीत होते हैं। इन में से कुछ इस प्रकार हैं।


1- बिना केन्द्रीकरण के औद्योगिक उत्पादन किया जाये।

2- योजना को पूर्ण रूप से विकेन्द्रीकरण के सिद्धॉंत के रूप में बनाया जाये।

3- बिना आर्थिक समस्या पैदा किये असीमित उत्पादन के तरीकों का विरोध किया जाये।

4- भौतिक उपलब्धि के स्थान पर मानसिक शॉंति के लिये कार्य वातावरण बनाया जाये।

5- वैज्ञानिक प्रगति को मानव जाति के लिये संकटमय बनाने पर रोक लगाई जाये।

6- बजाये अधिकतम भौतिक संतुष्टि के आनन्दमय वातावरण बनाया जाये।

7- व्यक्ति को आधारभूत सुरक्षा नौकरशाही से दी जाये।

8- व्यापार के स्थान पर व्यक्ति की जीवन की पहल शक्ति प्रदान की जाये।


इस से आगे कुछ और सुझाव दिये गये जो शायद और भी अव्यवहारिक हों गे। वर्तमान में जी डी पी बढ़ाने के चक्कर में इन पर कार्य करना कठिन है। यह हैं -

1- उत्पादन का लक्ष्य युक्तियुक्त उपभोग के लिये ही होना चाहिये।

2- राज्य को इस बात पर निर्णय करना हो गा कि कौन से उत्पादन हानिकारक नहीं हैं।

3- राज्य को इस बारे में सभी नागरिकों को शिक्षित कराना हो गा।

4- बहृत वर्गीय निगमों को केवल लाभ और विस्तार के लिये कार्य करना बन्द करना हो गा।

5- उपभेक्ताओं को संयुक्त हो कर अभियान चलाने हों गे कि उपभोग को कम किया जाये।

6- सभी नागरिकों को आर्थिक तथा राजनीतिक अभियान में भाग लेना हो गा।

7- बहृत निगमों में सभी सदस्यों को प्रबन्धन में भाग लेना हो गा।

8- राजनीति में भी केवल दर्शक बनने के स्थान पर सक्रिय भाग लेना हो गा।

9- राजनीति में तथा उद्योग में अधिकतम विकेन्द्रीयकरण करना करना हो गा।

10- अधिकारी द्वारा निर्णय लिये जाने के स्थान पर मानव आधारित निर्णय लेने हों गे।

11- मन पर उप प्रभाव डालने वाले सभी विज्ञापनों पर बंदिश लगाना हो गी।

12- सम्पन्न तथा पिछड़े देशों में अन्तर कम करना हो गा।

13- न्यूनतम वार्षिक आय को सुनिश्चित करना हो गा।

14- पुरुष आधारित सामाजिक व्यवस्था को समाप्त करना हो गा।

15- राज्य को परामर्श देने के लिये सांस्कृतिक परिषद की स्थापना करना हो गी।

16- प्रभावी सूचना प्रदान करने के लिये कार्य करना हो गा।

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