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जापान का शिण्टो धर्म

जापान का शिण्टो धर्म


प्रागैतिहासिक समय में यानी 11,000 ईसा पूर्व में, जब जापानी खेती से भी बेखबर थे तथा मवेशी पालन ही मुख्य धंधा था, तो उस समय उनकी पूजा के लक्ष्य को दोगू कहा गया। दोगु की प्रतिमा एक स्त्री के रूप में थी जिस में छाती तथा नितम्ब को बड़ा बनाया जाता था। शायद इस का अर्थ महिला प्रजनन शक्ति को बताने का था। कई बार इस मुजस्समे को उन की कबर के पास भी तोड़ कर रखा जाता था जिस का शायद मकसद था कि अब प्रजनन शक्ति समाप्त हो गई है।

लगभग 320 ईसा पूर्व में जो संस्कृति आई उसे यायोई संस्कृति कहा जाता है। उस समय जापानी लोगों ने खेती का धंधा अपना लिया था। उस में पूजा के लिये जो प्रतिमा बनाई गई, वो पहले ही प्रकार के थे। परंतु उन की शकल अब देवीस्वरूप थी। हर ग्राम की अपनी देवी अथवा देवता था। इन्हें कामी कहा गया। इन को मेगातोमी भी कहा गया। यही शिण्टो धर्म का आरम्भ था। उस समय तक जापानी कबीलों में बटे हुये थे जिन्हे उजी कहा जाता था। हर कबीले का अपना देवता था जिसे उजीकामी कहा जाता था।

वर्ष 300 ईसवी पूर्व में बाहर के आक्रमणकारी आये जिन्हें कोफुन कहा जाता है। उस में सरदार का वर्चस्व था। इन्हीं लोगों में यामाटो नाम के सम्राट ने जापानी समाज के सभी कबीलों को एकजुट किया।

वर्ष 538 के आस पास बौद्ध मत का प्रवेश जापान में हुआ। किन्तु उस का स्वागत सामान्य जापानी लोगों ने नहीं किया। वर्ष 592 में बौद्ध मत को शासकीय रूप से मान्यता दी गई लेकिन आम जनता पर इस का प्रभाव नहीं पड़ा। वह पूर्ववत अपने शिण्टो धर्म में ही रहे। ये बात काबिलेगौर है कि बौद्ध लोगो ने कभी भी अपना मत फैलाने की ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की। वर्ष 794 से 1185 तक के समय का हिईयन काल कहा जाता है। इस में कामी की प्रतिमा के साथ ही बुद्ध की प्रतिमा भी कायम की गई। इस जापानी धर्म को रयोतू शिण्टो अर्थात दौहरा शिण्टो कहा जाता था।

वर्ष 1185 में शोगुन काल का आरंभ हुआ। इस में सैनापति ही शासक था तथा सम्राट केवल नाम के लिये थे। शोगुन काल में बौद्ध मत को शासकीय मान्यता तो नहीं दी गई परन्तु उस का प्रचार जारी रहा। इसी समय चीन से कन्फ्यूशियस तथा ताओ का मत भी प्रचलित हुआ। शिण्टो मत भी विद्यमान रहा। इन्हीं का मिला जुला रूप शिण्टो धर्म का वर्तमान स्वरूप है। यह तब से पूरे समय तक चलता रहा जिसे वर्ष 1730 में अशासकीय मान्यता दी गई। इस में शिण्टो मत के पुराने ग्रन्थों कोजीकी तथा निहोनशोकी को मान्यता दी गई।

वर्ष 1868 में मैजी क्रॉंति हुई। शोगुन का वर्चस्व समाप्त हुआ और फिर से जापान के सम्राट को सर्वोपरि होने को मान्यता दी गई। शिण्टो मत को सरकारी धर्म मान कर प्रचार किया गया। वर्ष 1870 में ईसाईं मत के कुछ मिशनरी जापान में आये लेकिन उन का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। आज भी जापान में केवल 6 लाख लोग ही ईसाई मत को मानने वाले हैं। वर्ष 1945 तक द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होने तक शिण्टो धर्म सरकारी धर्म रहा।

वर्ष 1945 के पश्चात जो सरकार बनी, उस ने अपने को धर्म से अलग रखा किंतु आम जनता में अभी भी शिण्टो मत ही चला आ रहा है।

शिण्टो धर्म सही अर्थों में जापानी जीवन का अभिन्न अंग है। उदाहरण के तौर पर सोमू कुश्ती के दौरान रेफरी एक जापानी पुजारी की वेश भूषा में आता है। कुश्ती के मैदान में नमक छिड़का जाता है जो कि एक पुरानी शिण्टो रस्म है। शिण्टो शोक्या नाम की मूर्ति शिण्टो तथा बुद्ध का मिला जुला शोधित रूप है। इसी प्रकार सॉंझा त्यौहार मे शिण्टो और बौद्ध रस्मों का मिला जुला रूप ही होता है। इस में प्रधान देवता को निकोशी कहा जाता है।

एक चीनी अभिलेख में जापान के लिए ‘वा’ राज्य के नाम से वर्ष 397 ईसवी में वर्णन किया गया है जिस से जापान के पुराने रीति रिवाज का पता चलता है। किसी की मृत्यु के बाद 10 दिन तक उस का शोक मनाया जाता था। शव को दफनाने के लिये केवल एक ही कफन का प्रयोग किया जाता था। इस लेख में बताया गया है कि जापान में एक महिला शासक भी पिम्पीको नाम से रही थी।


जापानी देवता

जापानी सभ्यता का आरम्भ इजानागी एवं इजानामी द्वारा किया जाना माना गया था। इन्हीं के संतान द्वारा जापानी आस्तित्व में आये। इन्हों ने ही एमेरेतुसु - सूर्य देवी - को जन्म दिया गया था। अमेरेतुसु का एक वंशज यामाजकुशी बाद में जापान का सम्राट बना।

जहॉं तक कामी का संबंध है, उन की संख्या असीमित है। हर जीवित अथवा जड़ वस्तु के लिए एक कामी रहता है। जड़ प्रणियों में पहाड़ आदि भी शामिल है। कामी अच्छे स्वभाव के भी हैं और कुछ दुर्भावनायुक्त स्वभाव के भी हैं। परन्तु जापानी सभ्यता यह मानती है कि कोई भी प्राणी पूर्णतया शुभ अथवा अशुभ नहीं होता है। और समय के साथ वे बदल सकता है। इनारी नाम वाली एक कामी को चावल की देवी माना जाता है। हूगो नाम के कामी को भी शुभ माना जाता है। सुसानो नम का कामी स्वर्ग से आता है और अपना काम पूरा करने के पश्चात स्वर्ग को ही वापस लौट जाता हैं। दुर्भावनापूर्वक कुछ कार्य किसी कामी द्वारा कार्य किए जाते हैं परंतु बाद में सुधार हो जाता है। इनारी के साथ सात देवताओं को और माना जाता है जो विभिन्न कार्य के प्रभार में हैं। दाईको बेरेन रसोई की देवता है तथा बावरचियों एवं होटल इत्यादि द्वारा पूज्य है। इबिसु नाम की देवता मत्स्य आखेट का देवता है। बैंटन नाम का देवता संगीत और कला के प्रभार में है। फुकुरोकुजु देवता लोक प्रियता; होतै संतोष एवं उदारता; जुरोजिन आयु; तथा बिशममोनटेनं परोपकार के देवता हैं।

यह माना जाता है कि मृत्यु के पश्चात पूर्वज कामी बन जाते हैं। इस कारण मृत्यु के पश्चात भी उन का सम्मान परिवार द्वारा किया जाता है। परिवार में पूजा स्थल बनाया जाता है। टोक्यो में स्थित मैजी पुजागृह एक महत्वपूर्ण समारक है जो सम्राट मैजी (1817-1912) की याद में है। विभिन्न युद्धों में मृत्यु प्राप्त सैनिको की याद में टोक्यों में यशुकुनी नाम का पुण्यस्थान हैं जिस के बारे में कई बार विदेशियों द्वारा आपत्ति भी की जाती है क्येांकि द्वितीय महायुद्ध में मारे जाने वाले भी इन शहीदों में शामिल हैं।


देव युग

जापानी परम्परा में एक युग को देवताओं का युग कहा जाता है।ं इस की मुख्य सामग्री दो महाकाव्य से मिलती है। इन में से पहली वर्ष 712 ईसवी में लिखी गई थी। नाम है कोजिकी। दूसरी है निहोनशोकी, जो वर्ष 720 ईसवी में लिखी गई थी। इन पर चीन का प्रभाव देखा जा सकता है। कोजिकी महाकाव्य दरबारी कवि असेवो यसुमारो द्वारा लिखा गया था। इस में अलग अलग कबीलो का प्राचीन इतिहास शामिल किया गया। इस में तत्कालीन शासन कर रहे यामामोटो कबीले को अधिक महत्व दिया गया है। इस का विरोध कुछ विद्वानों द्वारा किया गगया जिस पर से विद्ववानों की एक समिति को कार्य दिया गया जिन्हों ने निहोनशोकी महाकाव्य लिखा। यह प्राचीन चीनी भाषा में लिखा गया है।

कथा के अनुसार जब पृथ्वी का आकार नहीं बना था तब अदृश्य देवताओं की सात पीढ़ियॉं हुई थीं। आठवीं पीढ़ी में इजानागी नो मिकोटो तथा इजाकामी नो मिकोटो नाम के देवता और देेवी थे। उन्हों ने एक बरछे सेे सागर का मंथन किया और उस मे ंनमक लग गया। इस नमक के टपकने से आनागारो द्वीप का निर्माण हुआ जो प्रथम भूखण्ड था। उन के सम्भोग से प्रथम संतान एक दैत्य था। उन्हों ने देवताओं से सहायता चाही और फलस्वरूप कई्र कामी को जन्म दिया। उन्हों ने कई द्वीप भी बनाये। सब से अंतिम संतान अत्यन्त गर्म थी जिस से इजाकामी की देह जल गई तथा वह मृतकों की नगरी योमी में चली गई। इजानागी उस की तलाश में योमी में गया किन्तु इजाकामी, जो कुरूप हो चुकी थी, ने आने से इंकार कर दिया तथा योमी के रक्षकों ने उसे भगा दिया।

इस के बाद जब इजानागी पवित्र नदी में स्नान कर रहा था तो उस ने अपनी बायीं ऑंख से सूर्य की देवी अमेरेतेसु को जन्म दिया। दायी ऑॅंख से चन्द्रमा की देची ज़कोयामी को जन्म दिया। नाक से सुसानों का जन्म हुआ। सुसानो प्रचण्ड देव था। इजानागी तब सन्यास ले कर कुयुशु द्वीप पर चला गया जहॉं उस का तथा इजाकामी का मंदिर स्थित है। जाने से पूर्व उस ने अपनी शक्ति अमेरेतुसु को दे दीं। ज़कोयामी को रात की देवी बनाया तथा सुसानो को सागर का देवता। सुसानो अमेरेतुसु से जलता था और दोनों में इस बात पर मुकाबला हो गया कि अधिक संतानें किस की होती हैं। सुसानों की अधिक हुई पर अमेरेतेसु की नर संतान अधिक थीं। सुसोनों को इस पर क्रोध आया और उस ने तूफान मचा दिया। अमेरेतेसु ने अपने को अंधकार की गुफा में छुपा लिया जिस से विश्व में अंधेरा छा गया। देवताओं के अनुरोध पर वह बाहर आई। सुसानो का स्वर्ग से निकाल दिया गया और वह ‘ही’ नदी के पास इज़ुमो में रहने लगा। अमेरेतुसु के शासन की पुष्टि की गई्र और उस का पोता जिम्मु तेनो पहला सम्राट बना। इस के साथ ही देवताओं का युग समाप्त हो गया।

एक अन्य वृतान्त के अनुसार सुसानों ने एक देवी को दैत्य से मुक्त कराया तथा उस से विवाह कर लिया। उस दैत्य की पूॅंछ में एक हार था जो सुसानो ने अमरतेसु को शॉंति प्रस्ताव के साथ दिया। उस ने अपना महल ईजूमो के पास बनाया। उस की संतति ने विश्व पर राज किया। इन में से एक ओकुनिनुशी था जो बहुत प्रतापी था। अमेरेतुसु ने अपने पौते हानिनिगी को भेजा जिस के पास तीन जादुई वस्तुयें थीं - एक दर्पण, एक तलवार (जिसे कुसानागी कहा गया) जो सुसानों ने अमेरेतुसु को दी थी, तथा एक प्रजनन आभूषण। इस आभूषण का प्रयोग सुसानों ने संतान प्राप्ति के लिये कर अमेरेतेसु को हराया था। होनोनिगी ने ओकुनिनुशी से सुलह कर ली और उसे वचन दिया कि उसे सदैव जापानी सम्राट का रक्षक माना जाये गा। यह परिवार जिम्मी तेनो ने आरम्भ किया था। ओकीनिनुशी का स्मारक ईजूमो तरैशी में है जो जापान का ़िद्वतीय क्रम का पुज्य स्थान है।

बौद्ध मत के अपने दिव्य प्राणी हैं। उन्हें बुत्सु तथा वेशात्सु कहा जाता है। इन में से एक अमिदा है जो पवित्र भूमि को देखते हैं। दूसरे कनपेन है जो बच्चों तथा ज़च्चा की रक्षा करते हैं। एक तिज़ो हैं जो कम आयु में दिवंगत हुये बच्चों को देखते हैं। यह भी कामी माने जाते हैं। कई बार एक ही देवता दोनों द्वारा मान्य किये जाते हैं जैसे कि हाचीमान। हाचीमान योद्धा हैं जो सम्राट ओजिन का ही एक रूप माना जाता है। हाचीमन की पूजा बौद्ध मंदिरों तथा शिण्टो पूजा गृहों में की जाती है। वह नारा में बौद्ध मंदिर तोदाजी में विराजमान हैं तथा कामाकुरा में शिण्टो पूजा गृह में उन की उपस्थिति है। बच्चों को पूजा के लिये प्रथम बार इन्हीं स्थानों में ले जाया जाता है। इस अवसर को अमियामैरी कहा जाता है।

ऐत्हासिक अथवा परम्परा से हाचीमन के अतिरिक्त अन्य दिव्य विभूतियॉं भी हैं जैसे कि सुगावारा नो मिचिज़ाने, जिसे तैनजिन (स्वर्ग के व्यक्ति) भी कहा जाता है। वह 845 से 903 ईसवी तक हेइयन दरबार के विद्वान थे। दूसरे दरबारी उन से जलते थे तथा मनगढंत शिकायतों पर उसे देश निकाला दे दिया गया। वह उस काल में कुयुशु द्वीप पर दुखी रहते हुये मृत्यु को प्राप्त हुये। उन की मृत्यु के पश्चात राजधानी (वर्त्रमान क्योटो) में आग और बीमारी ने घर कर लिया। राजा को यह यकीन हो गया कि यह सुगवारा के निरादर का ही परिणाम है। उसे प्रसन्न करने के लिये कितानो तेमानगु नाम का स्मारक बनाया गया तथा सुगवारा को कामी घोषित किया गया। इस के बाद राजधानी की हालत सुधरने लगी और सगुवारा शिण्टो देवकुल में उच्च स्थान पाये। उन्हें विद्या एवं विद्वता का प्रतीक माना जाता है। पूरे जापान में छात्र इस स्मारक पूजाघर का दर्शन करने आते हैं ताकि वह भी अपनी विद्या में पूर्णता प्राप्त कर सकें।


प्राचीण जापानी साहित्य

हम ने पूर्व में दो महाकाव्य कोजीकी तथा निहोनशोगी की बात की है। इन महाकाव्यों के अतिरिक्त 713 ईसवी से आरम्भ हो कर फुदोकी नाम के ग्रन्थ बनाये गये जिन में विभिन्न स्थानीय कामी के बारे में लिखा गया। इस के अतिरिक्त एंगीशिकी नो नाम के ग्रन्थ है जिन में शिण्टो कानून व्यवस्था की जानकारी है। इन की संख्या लगभग पचास है। यह वर्ष 901 से 922 ईसवी के काल में, जिसे एंगी काल भी कहा जाता है, में लिखे गये थे। इन में ंप्रार्थना तथा पूजा की विधि भी लिखी गई है। एक अन्य साहित्यक रचना मन्याशु है जिस का अर्थ दस हज़ार पत्तों का संग्रह है। इस में धार्मिक, पौरानिक, और सामान्य जीवन के प्रसंग हैं। यह सब से बृहद साहित्य संग्रह है जिस में क्लासिक जापानी में सैंकड़ों कवितायें, जिन्हें टंका कहते हैं, के अतिरिक्त लम्बी कवितायें, जिन्हें चोका कहा जाता है, शामिल हैं जो जापान के नारा काल के बारे में जानकारी प्रदान करती हैं।

समय समय पर और भी व्यक्ति कामी घोषित किये गये। जैसे कि पूर्व में बताया गया है सम्राट मैजी, जिन के काल में क्रॉंति हुइर्, को कामी माना गया है, तथा उन के लिये टोक्यों में सब से बड़ा पूजास्थल मैजी जिंजा के नाम से बनाया गया है।

हम जापान के पुरातन इतिहास की बात कर रहे थे। इन में फुदोगी नाम के ग्रन्थ भी हैं। यह स्थानीय कामी के बारे में है तथा 713 ईसवी में इन्हें लिखना आरम्भ किया गया था। इन की संख्या लगभग पचास है। इन में शिण्टो धर्म के विभिन्न नियमों की जानकारी भी मिलती है।

इस के अतिरिक्त एनजीशिक नोमें ग्रन्थ है जो एंजीवाल (901-922) द्वारा शुरू किये गये थे। इन में शिण्टो प्रार्थनायें जिन्हें नोरितो कहा जाता है, शामिल हैं। पूजा विधि की जानकारी, जिसे जिन्यों कहा जाता है, भी दी गई है। इन में विश्व की उत्पत्ति, जो देवताओं द्वारा सागर में दैविक बरछा डुबोने तथा उस से टपकने वाले नमक के द्वारा द्वीप का निर्माण के बारे में है, भी शामिल है। सब से प्रथम द्वीप का नाम आनोगोरो बताया गया है।

जैसा कि पूर्व में भी कहा गया है, शिण्टो धर्म किसी व्यक्ति द्वारा प्रारम्भ नहीं किया गया जैसा कि ईसाई अथवा इस्लाम में है। हिन्दू धर्म की तरह यह भी विभिन्न विद्वानों द्वारा पोषित है। इन में ओनो-मसुमारा हैं जिन्हों ने कोजिकी ग्रन्थ की रचना की। इन में मोतूरी नोरिनागा हैं जो अठारहवीें शताब्दि के विद्वान थे (1730-1800) जो कोकू गाकू अन्दोलन के अगवा थे। एक अन्य विद्वान मिकीनकायामा थे जिन्हों ने तेनरिको नाम के सम्प्रदाय की स्थापना की। उन के काल में दो बौद्ध विद्वान होनेन (1133-122) तथा रिचीरेन (1222 - 1282) थे, जिन से प्रभाव से उन्हों ने शिण्टो धर्म को पुनः सामने लाया तथा जापानी पहचान कीा चीनी विचारों को एक ओर कर स्थापना की।

प्राचीन ग्रन्थ कोजिकी पर टीका कोजिकी-देन लिखी गई कामोनो भावुची द्वारा। इस में कनफुयेसियस तथा बौद्ध मत का प्रभाव समाप्त किया गया जो आगे चल कर मेैजी क्रॉंति के रूप में प्रकट हुआ। इस में शिण्टो कामी के बारे में बताया गया है। इस समय 13 शिण्टो सम्प्रदाय की पहचान की गई। इस में भी भारत से समानान्तर व्यवस्था देखी जा सकती है।

जापान में जिन तेरह सम्प्रदायों को मान्यता दी गई, उन में से एक तेररिक्यो (स्वर्गीय सत्य) है। इस की नींव एक किसान की पत्नि मिकी नाकायामा ने वर्ष 1838 में रखी थी। उस ने दावा किया कि उसे देवता तेनतैशोगुण, जो महान योद्धा जनरल था, ने दर्शन दिये हैं और उसे कहा है कि वह तथा उस के तीन साथी ही असली कामी हैं और उन्हों ने मिकी को उन का सन्देश फैलाने के लिये चुना है। इस सन्देश को 1711 श्लोक में लिखा गया। कृति का नाम ओफुदेसाकी (स्वर्गीय कलम की नोक) है। यह सन्देश पंद्रह वर्ष में 1883 में पूरा हुआ। इस में स्वर्ग की कैफियत, कामी का जीवन तथा मनुष्य का क्या कर्तव्य है, यह बताया गया है। इस में सर्वोच्च सत्ता को ओयाकामी कहा गया है अर्थात पिता ईश्वर। यह सम्प्रदाय आगे चल कर बहुत प्रचलित हुआ। हालांकि इस में बौद्ध मत की थोड़ी झलक है परन्तु इस की भावना शिण्टो मत के कामी धर्म की ही है। विश्व तथा इस के सारे क्रियाकलाप कामी के इच्छानुसार ही चलते हैं।

जापानी इतिहास में यह माना जाता रहा है कि सम्राट केवल दैविक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है अैर उस की अपनी शक्ति अलग से नहीं है। विश्व के कार्यकलाप देवताओं की लीला है। सम्राट की पूजा का भी यही कारण है। शोग्ुण काल में वह केवल नाम का शासक था। मैजी काल में भी उस की यही स्थिति थी। किन्तु वह सदैव पूजनीय था। सम्राट को सीधे सीधे अमेरेतेसु का वंशज माना जाता है। 1947 में ही नया संविधान बनाते समय विजेताओं के दबाव में उस के दैवी स्वरूप का त्याग किया गया परन्तु जापान के वासियों के मन में वही धारणा है।

यह धारणा थी कि जापानी कौम दूसरी कौमों से अधिक सभ्य है तथा उसे दूसरों पर शासन करने का अधिकार है। 1947 के संविधान में इस के साथ विश्व कल्याण की बात जोड़ी गई। परन्तु अभी भी जापानी उसी धारणा का पालन करते हैं। सम्राट द्वारा ही चावल रोपण का श्रीगणेश किया जाता है। सम्राट द्वारा अपने पूर्वजों के पूजा स्थल मैजी में उसी प्रकार समारोहपूर्ण तरीके से जाना होता है।


नैतिक सिद्धॉंत

जापानी समाज में सब से महत्वपूर्ण बात परिवार, समूह, देश तथा देवताओं के प्रति श्रद्धा की भावना है। समाज में व्यक्तिगत एवं सामूहिक शुद्धता पर बल दिया जाता है। इसी में पर्यावरण के प्रति आदर का भाव भी आ जाता है क्योंकि वह सब देवता - कामी - हैं। शिण्टो धर्म के आधार को ‘वा’ कहा गया है। ‘वा’ का अर्थ कृपालू समरसता है चाहे वह मानव व्यवहार में हो अथवा प्रकृति के साथ। समाज में व्यक्ति का महत्व कम है तथा समूह का, परिवार का, कार्यालय का, देश का महत्व अधिक है। उन की प्रबल धारणा है कि यदि ‘वा’ नहीं है तो पूरे विश्व में अराजकता का माहौल हो जाये गा। जापानी समज में विस्तृत परिवार को मान्यता दी गई है जिस में पूर्वज भी शामिल हैं। उन का दृढ़ मत है कि सामाजिक नियमों का पालन किया जाना अनिवार्य है। देवता को अथवा एक दूसरे को झुक कर प्रणाम करना विनम्रता का द्योतक है।

‘वा’ में यह निहित है कि व्यवहार, मनोभाव, इच्छा सभी शुद्ध होना चाहिये। इस में प्रकृति तथा मानव जाति में संतुलन बनाये रखना भी शामिल है। नदियों को स्वच्छ बनाये रखना इसी के फलस्वरूप है जो सार्वजनिक रूप से समुदाय द्वारा किया जाता है तथा जिस मंें शिण्टो पूजा स्थल के प्रबंधक अग्रण्ीय भूमिका निभाते हैं। शुद्धता की इसी भावना के तहत घर के बाहर जूते उतारने की परम्परा है। उन का मानना है कि घर भी पूजनीय स्थल है। प्रतिदिन स्नान करना भी शुद्धता का ही अंग है। शिण्टो पूजा स्थल में जाने से पूर्व आचमन करना - हाथ मुॅंह धोना - अनिवार्य है। इसे ओसरै कहा जाता है।

देवता के प्रति पूर्ण समर्पण धर्म का अंग है। इस का एक उदाहरण देवता के समक्ष नृत्य कलगुरा है जो मिको लड़कियों द्वारा किया जाता है। मिको का अर्थ मंदिर में पूजा करने वाली कन्यायें है। इन लड़कियों को जिंजा कन्या कहा जाता है।

जापानी समाज में आत्मसम्मान को प्रथम स्थान दिया गया है। इसे ‘तातेमयै’ कहा गया है। यदि जापानी किसी प्रयास में असफल रहता है तो उसे आत्मगिलानी होती है तथा इस सीमा तक जा सकती है कि सम्मान की रक्षा के लिये हराकिरी की जाये जो एक मान्यता प्राप्त कृत्य है। समूह की भावना ऐसी है कि यदि रेल गाड़ी में विलम्ब हो जाता है तो पूरा रेलवे स्टाफ अपने आप को दोषी मानता है तथा सामूहिक क्षमा याचना करता है। यह माना जाता है कि क्षमायाचना से अपराध बोध कुछ कम होता है।

जापानी सभ्यता में सम्राट अथवा वरिष्ठ की आज्ञा का पालन करना व्यवहार की परिकाष्ठा थी। इस में मृत्यु पश्चात इनाम अथवा दण्ड का योगदान नहीं था। बौद्ध मत में कर्म को प्रधान माना जाता है तथा अंतिम लक्ष्य निर्वाण है किन्तु शिण्टो धर्म में निर्वाण अथवा पुर्नजन्म के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। परन्तु यह स्वीकार किया जाता है कि अपराध की नींव इच्छायें हैं। इस का निवारण समूह के प्रति समर्पण में ही है।

जापानी सभ्यता का एक और व्यवहार है कि प्रति बीस वर्ष में मंदिर का पूर्ण पुनर्निमाण किया जाता है। इस पवित्र कार्य को करने के लिये पूर्व निर्माण की हूबहू नकल कर नया भवन बनाया जाता है। एक जैसे दो भवन जब बन कर तैयार हो जाते हैं तो प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा नये भवन में की जाती है तथा उस के पश्चात पुराने भवन का नष्ट कर दिया जाता है। यह पुनर्निमाण उन बढ़ईयों द्वारा किया जाता है जो पुश्तों से यही कार्य करते आ रहे हैं। अमेरेतुसु मंदिर की यह परम्परा आठवीं शताब्दि से चली आ रही है। यह परम्परा धान की देवी तोथेसु के लिये भी है। इसी का विस्तार अन्य मंदिरों के लिये भी किया गया है।

जापान में वर्ष 604 ईसवी में एक संविधान बनाया गया था। इस के अनुच्छेद सात तथा सत्रह उल्लेखनीय हैं। अनुच्छेद 7 में कहा गया है - ‘‘योग्यता जन्म से नहीं आती। इसे अर्जित करना पड़ता है। हर कार्य के लिये उस के योग्य व्यक्ति को चुना जाना चाहिये न कि व्यक्ति को देख कर कार्य तय किया जाना चाहिये। सही व्यक्ति ही सही कार्य की सही देख रेख कर सके गा’’।

अनुच्छेद 17 में कहा गया है - ‘‘हर बड़ा निर्णय आपस में चर्चा के पश्चात ही लिया जाना चाहिये। छोटा मोटा निर्णय व्यक्ति द्वारा लिया जा सकता है पर बड़े निर्णय के लिये विचार विमर्श आवश्यक है’’।

वैसे तो जापानियों के लिये पूरा जापान ही पवित्र स्थान है किन्तु कामी के पूजा स्थल को विशेष दर्जा प्राप्त हैं। इन्हें जिंजा कहा जाता है। वैसे तो यह जिंजा किसी भी परिमाण के हो सकते हैं। मकान की छत पर भी इन की स्थापना हो सकती है। पर दूसरी ओर विशाल भी हो सकते हैं। बौद्ध पूजा स्थलं से अलग इन की पहचान इस प्रकार की जा सकती है कि बौद्ध विहार में पगोडा होता है जब कि कामी जिंजा में द्वार। यह द्वार सादे डिज़ाईन का ही होता है। दो सीधी बल्लियों पर दो आड़ी बल्लियौं। इन में ऊपर की बल्ली कुछ बाहर निकली होती है। माना जाता है कि इस द्वार से प्रवेश करने में मोह माया पीछे छूट जाती है और व्यक्ति शुद्ध हृदय से ही प्रवेश करता है। बाहरी स्थान को गेकू तथा भीतरी स्थान को नैकू कहा जाता है। द्वार का नाम तोरई है।

कामी पूजा स्थल का प्रकृति से गहरा सम्बन्ध है। किसी पेड़ अथवा अन्य प्राकृतिक स्थान के पास इन को बनाया जाता है। जापानी सभ्यता में प्रकृति के संरक्षण की बात सदैव से उस का अंग रही है। शिण्टो मत में प्राृकृतिक परिदृश्य को महत्व दिया जाता है। फुजी पर्वत सब से पवित्र स्थान है जिसे फुजी-सान भी कहा जाता है। इस के शिखर पर पूजा स्थल है जहॉं हज़ारों जापानी प्रति वर्ष यात्रा पर आते हैं। जब यात्रा करना कठोर मेहनत का कार्य होता था तो उस काल में इस का प्रतिबिम्ब स्थानीय तौर पर बना लिये जाते थे। अभी भी कुछ लोग ऐसे प्रतीकों की यात्रा कर लेते हैं।

नारा काल में जिंजा के स्वरूप में परिवर्तन आया तथा यह बौद्ध पूजास्थल के समान ही बनने लगे। दूसरी ओर प्रत्येक बौद्ध पूजास्थल में कामी को स्थापित किया गया। इस के लिये बाकायदा एक अभियान आरम्भ किया गया जिसे शूगेन्दु कहा जाता है। इस में बौद्ध बतात्सु तथा कामी दोनों की स्थापना की जाती है। यह पुजा स्थल अभी भी उत्तरी जापान में देखे जा सकते हैं।

फुजी पर्वत के अतिरिक्त प्राकृतिक परिदृश्य नदी, पहाड़ी, जल प्रपात भी कामी मााने जाते हैं। जल प्रपात में वाकायामा क्षेत्र में नाची जल प्रपात, अकीता तथा होनशू के क्षेत्र के जल प्रपात भी कामी माने जाते हैं। इन सब की प्रतिमा की यात्रा होती है। इन यात्राओं को मयकोशी का नाम दिया गया है। यामातो, जहॉं देवताओं का अवतरण हुआ था, को विशेष महत्व दिया जाता है।

सब से पवित्र तथा सब से बड़ा जिंजा इसे है जो इज़ुसु नदी के किनारे स्थित है। यह यायोई सभ्यता के काल में बना था जो 300 ईसवी पूर्व से 300 ईसवी तक थी। यह सूर्यदेवी अमेरेतेसु को समर्पित है। इस के हाथ में एक दर्पण है जो उस का पोता होनीनिगी स्वर्ग से अपने साथ लाया था। सम्राट प्रति वर्ष इस के दर्शन है आते हैं ताकि गत वर्ष में होने वाली घटनाओं की जानकारी देवी को दें तथा अगले वर्ष के लिये उन का आशीरवाद मॉंग सकें। इस जिंजा के गर्भगृह में केवल राजवंश के व्यक्ति तथा पुजारी ही जा सकते हैं।

अमेरेतुसु के इस पवित्र स्थान के बारे में एक लोक कथा है जो निहोनशोकी में आती है। अमेरेतेसु की प्रतिमा राजकुमारी तोयोसुकी इरी हीमा के पास थी जो उस ने राजकुमारी यामाटो हिमे को दी। यामाटो हिमे इस की स्थापना के लिये उपयुक्त स्थान की तलाश में देश के भ्रमण पर निकली। जब वह इजुटसु घाटी में पहुॅंची तो देवी ने कहा कि वह वहीं रहें गी। अतः वही इसे में उन के लिये जिंजा का निर्माण किया गया। यामाटो हिमे उस की प्रथम पुजारी थी। कालान्तर में पुरुषों ने यह पदवी सम्भाल ली। कई शताब्यिों बाद यहीं से फिर महिला पुजारी की प्रथा आरम्भ हुई। इसे बाद में दूसरे जिंजा ने भी अपना लिया। परन्तु अभी भी इस का कुछ विरोध हो रहा है।

छोटे जिंजा के प्रबंधन के लिये पूर्णकालीन पुजारी नहीं होता है तथा श्रद्धालुओं के बीच से एक व्यक्ति चुन लिया जाता है। श्रद्धालुओं के समूह को सोदैकै कहते हैं तथा सदस्यों को सौदै। इन सामूहिक जिंजा के अतिरिक्त हर घर में कामी-दान रहता है जिन में पूवर्ज, जो अब कामी बन गये हैं, का निवास रहता है। इन पूर्वजों के नाम भी टाईटन पर लिखे जाते हैं। परिवार का वरिष्ठ सदस्य कामी को साके (चावल की शराब) तथा चावल एवं सब्ज़ी पेश करता है। बड़े जिंजा में पुजारी भी वैसा ही करते हैं।


पवित्र समय

शिण्टो धर्म में कई प्रकार के त्यौहार - मस्तूरी - होते हैं। इन में वार्षिक त्यौहार ओबोन भी है। माना जाता है कि इस दिन पूर्वज कामी अपने घरों को लौटते हैं। यह मस्तूरी सामान्यतः अगस्त महीने में आता है तथा चन्द्रमा की तिथि से चलता है। इस दिन जापानी अपने जन्म स्थान की यात्रा करते हैं। इस के अतिरिक्त भी समय समय पर पूर्वज कामी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का रिवाज है। बौद्ध तथा शिण्टो दोनों के अनुयायी कामीदान अथवा बोतस्तूदान में रखे पटल पर कामी के नाम का पुनः नये पटल में लिख कर रखते हैं।

जापानी नव वर्ष का त्यौहार एक से तीन जनवरी को होता है। वर्ष 1873 तक यह चीनी नव वर्ष के साथ था परन्तु वर्ष 1873 से उस में परिवर्तन किया गया। इस समय विशेष पकवान बनाये जाते हैं जैसे ओजाज़ी- शोरबा - तथा मोशी - चावल की डिश - बनाये जाते हैं। इस समय तोहफों का आदान प्रदान भी होता है।

इस के अतिरिक्त अन्य वार्षिक अथवा द्विवार्षिक मस्तूरी भी है।ं यह दो दिन के त्योहार होते हैं। छोटी मस्तूरी में पूजा स्थल की पूजा के पश्चात प्रतिमा की मिकोशी को पास पड़ोस में घुमाया जाता है। बड़ी मस्तूरी, जिसे ताई साई भी कहते हैं, में मिकोशी को बड़े क्षेत्र में घुमाया जाता है जिस में शोतेनकोदै (व्यापारी संगठन), चोकई (निवासी संगठन) तथा सोदैकई (वरिष्ठ नागरिक संगठन) द्वारा बारी बारी से मिकोशी की यात्रा कराई जाती है। इस से मिकोशी के प्रति श्रद्धा भी व्यक्त होती है तथा आपसी व्यवहार भी बढ़ता है।

टोकयो के पास निशी बासेदा क्षेत्र में तीन वर्षीय ताईसाई होती है। इसे सितम्बर महीने में दो दिन अमेरेतेसु, जो कि यहॉं की देवी है, के उपलक्ष में मनाया जाता है। पहले दिन प्रातः बच्चे छोटी मिकोशी को धुमाते हैं। बाद दोपहर सोदै गुजी के नेतृत्व में प्रार्थना करते हैं। पूजा स्थल को चीड़ की शाखा - साका सी - से मंत्रों के बीच स्थल को पवित्र करते हैं। शाम को मैदान में मनोरंजक लोक कार्यक्रम होता है। इस प्रकार की मस्तूरी जापान में कई स्थानों पर मनाई जाती है। दूसरे दिन मिकोशी की क्षेत्र में यात्रा होती है। इस में आम तौर पर वा शट, वा शट का नारा लगाया जाता है।

बच्चे के जन्म पर ओमियो मैदी संस्कार किया जाता है। (ओमियो जिंजा का ही दूसरा नाम है)। जब बच्चा कुछ महीने का हो जाता है तो उसे जिंजा में ले जाया जाता है जहॉं कानुशी विधिवत मंत्रोचारण के साथ उसे परिवार में शामिल करता है।

कुदृष्टि अथवा प्रदूषण को दूर करने के लिये साकाकी हिलाते हुये कानुशी मंत्रोच्चारण द्वारा प्रदूषण को दूर करने का भी चलन है। विवाह में पति पत्नि को आशीरवाद देने के लिये भी शिण्टो धर्म में पूजा कर आशीर्वाद दिया जाता है। आजकल तो विवाह होटलों में होते हैं किन्तु पूर्व में यह जिंजा में ही किये जाते थे।

आम तौर पर मस्तूरी में जो प्रतिमा - शिवताई - की यात्रा नारों के साथ की जाती है किन्तु उत्तरी जापान में अतागो जिंजा में यह पूर्णतः खामोशी में किया जाता है जो कि एक असाधारण बात है। इस में गुजी तथा सहायक गुजी वाहन में रहते हैं जबकि दूसरे व्यक्ति पैदल ही चलते हैं। मिकोशी की यात्रा में पॉंच समुदाय के दो दो प्रतिनिधि यात्रा की अगवाई करते हैं। सब से आगे दानपात्र होता है जिस में श्रद्धालू अपनी भेंट चढ़ाते हैं। मिको - जिंजा कन्यायें - तथा सिकाकाई वाले पैदल ही रहते हैं। इस यात्रा को ग्योरेत्सु का नाम दिया गया है।


मृत्यु उपरान्त सिद्धॉंत

जापान का शिण्टो धर्म जीवन के लिये है। मृत्यु उपरान्त क्या होता है, इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। मृत्यु प्राप्त व्यक्ति कामी बनता है तथा परिवार के साथ ही रहता तथा उन की भलाई देखता है। इस काल में उसे तामा कहा जाता है। तैंतीस वर्ष के पश्चात वह अन्य कामी के साथ किसी पर्वत जैसे कुमानो, योजिनो इत्यादि पर निवास करते हैं। नरक या स्वर्ग की बात केवल एक बार जापानी पुरातन साहित्य में आई है जब अजानोगी अपनी पत्नि अजानोमी को डूॅंढने के लिये रसातल तक जाता है। पूर्व में दफनाने का रिवाज था किन्तु आजकल दाह संस्कार किया जाता है। वर्ष 300- 552 के काफुन काल में मुत्युप्राप्त राजसी लोगों के लिये भवन बनाने गये थे।

बौद्ध प्रभाव में मृत्यु उपरान्त जीवन की बात आरम्भ हुई है जिस में मनुष्य को दौबारा मनुष्य अथवा जानवर के रूप में जन्म लेना पड़ता है किन्तु सिद्धपुरुष निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं। माना जाता है कि मत्यु के 49 दिन पश्चात इमा (यम) द्वारा इस का निर्णय लिया जाता है कि क्या करना है।

यदि मनुष्य का जीवन कष्टमय अथवा अन्याय का शिकार होता है तो व्यक्ति के भूत बनने की बात भी आती है जो बदला लने के लिये घूमता है। इस का एक उदाहरण, जिस का पूर्व में भी जिकर किया गया है, सुगुवारा का है जिसे द्वेषवश निर्वासित किया गया था जिस के फलस्वरूप उस की आत्मा के रोष के कारण राज्य में अनावृष्टि तथा अन्य प्राकृतिक प्रकोप हुये थे जो तभी समाप्त हुये जब उसे सम्मानपूवक कामी घोषित किया गया तथा उस के नाम सें जिंजा स्थापित किया गया।


जापानी समाज

जैसा कि पूर्व में कहा गया है, तेरह सम्प्रदायों को मान्यता दी गई है। कुछ नये सम्प्रदाय भी बन रहे है। इन सम्प्रदायों की मुख्य भूमिका इन के सदस्यों को आपस में लाना है। ग्रामों से नगर में आये व्यक्ति इन नगरीय समाज के पूजा स्थान में सहजता महसूस नहीं करते हैं। इन लोगों ने अपने सम्प्रदाय बना लिये हैं जिसे सोका-गाकै कहा जाता है। इस प्रकार के कई शिंको शुक्यो (नये सम्प्रदाय) वर्तमान में हैं। कुछ सम्प्रदाय जैसे शुक्यो महिकारी (स्वर्गीय प्रकाश) में कम सदस्य हैं। दूसरी ओर तेनरिको में बीस लाख सदस्य हैं और इस का विस्तार जापान के बाहर हवाई द्वीप, ब्राज़ील इत्यादि देशों में, जहॉं जापानी गये हैं, में भी है।

जापानी समाज में आठवीं शताब्दि तक महिलाओं को कई अधिकार प्राप्त थे। कई सम्राज्ञी भी हुई है तथा कई महिलायें जिंजा में पुजारी भी रही हैं। आठवीं शताब्दि के बाद कनफुयेसियस मत का प्रभाव पड़ा जो कि पुरुष प्रधान व्यवस्था में विश्वास करता था। इस से महिलाओं का योगदान समाज में कम हो गया। पर बीसवीं शताब्दि में महिला अन्दोलन आरम्भ हो गये हैं। महिलाओं को अब पजारी बनने का अधिकार भी प्राप्त हो गया है। नब्बे की दशक के अन्त तक 21091 पुजारियों में से लगभग दस प्रतिशत महिलाये थीं।

मस्तूरी में मिकोशी की यात्रा का आवसर सौभाग्यशाली माना जाता है। पूर्व में केवल युवकों को ही इस का अवसर दिया जाता था। युवतियों को कार्य इन की देख रेख करना, खाने की व्यवस्था करना था। पर अब यह बदल रहा है। इस का आरम्भ इसे में अमेरेतेसु की जिंजा से हुआ। प्रधान गुजी ने कहा कि जब देवी महिला है तो महिलायें मिकोशी को क्यों नहीं उठा सकतीं। धीरे धीरे यह बात अन्य जिंजा के लिये मान्य की जाने लगी। इस का विरोध तो हुआ विशेषतः यसुकुनी जिंजा मे। यह जिंजा युद्ध में शहीद होने वाले योद्धाओं के लिये है जो अधिकतर पुरुष ही थे। अन्य क्षेत्रों में महिलाओं को अब बराबरी का दर्जा प्राप्त है।


(उपरोक्त विवरण सी स्काट लिट्टन के लेख पर आधारित है। यह लेख माईकल डूगन की सम्पादकता में पुस्तक ईस्टर्न रिलीजन्स में शामिल है जिस का प्रकाशन डुनकन बेरड पब्लिकेशन द्वारा किया गया है। जापानी भाषा का ज्ञान न होने के कारण जापानी नामों में त्रुटि हो सकती है। मूल पाठ एक सौ पृष्ठ का है।)


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