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सुकारनो तथा इण्डोनेश्यिा का स्वतन्त्रता संग्राम

सुकारनो तथा इण्डोनेश्यिा का स्वतन्त्रता संग्राम

केवल कृष्ण सेठी

जनवरी 2020


सुकारनो का जन्म 1901 में पूर्वी जावा में हुआ था। उन के पिता अध्यापक थे। सुकारनों आरम्भ से ही पढ़ाई में तेज़ थे। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात उन्हें एक डच विद्यालय में भेजा गया तथा उस के पश्चात उन्हों ने वास्तुशास्त्र महाविद्यालय बादुंग में शिक्षा प्राप्त की। यह उल्लेखनीय है कि उन की माता बाली द्वीप की थीं। सुकारनो में इस्लाम तथा हिन्दु दोनो धर्मों के संस्कार थे तथा ईसाई मत के विचार उन्हें डच शालाओं से मिले थे। शाला में सुकारनो अलग थलग रहते थे जिस का कारण सम्भवतः यूरोपीय छात्रों का बाहुल्य था। इस अलग रहने का कारण सम्भवतः उस का अहं भी था जो उसे दूसरों से मेल जोल नहीं करने देता था यद्यपि वह मौके के अनुसार प्रसन्नचित भी दिखता था।

इण्डोनेशिया वास्तव में कई द्वीपों का समूह था जिसे डच ईस्ट इण्डीज़ के नाम से जाना जाता था। वहाँ की राष्ट्रीयता की भावना सभी द्वीपों को एक सूत्र में परोने की थी। इस का आरम्भ 1908 में ही हो गया था, जब चिकित्सा महाविद्यालय में छात्रों ने बुदी उतोमो (उच्च उद्यम) नाम की संस्था स्थापित की। इन का ज़ोर शिक्षा तथा संस्कृति की रक्षा पर था। 1912 में इण्डीज़ पार्टीज बनी जो तुरन्त ही स्वतन्त्रता चाहती थी। दोनों ही दल कोई विशेष समर्थन प्राप्त नहीं कर पाये। 1912 में ही इस्लामिक दल बनाया गया जिस में बाद में साम्यवादी शामिल हो गये। 1921 में इन्हें निकाले जाने पर उन्हों ने साम्यवादी दल की स्थापना की। साम्यवादी दल ने काफी विस्तार किया और 1926-27 में हड़तालें भी आयोजित कीं पर इसे कुचल दिया गया। इस के बाद नई पौध ने अपनी गतिविधि आरम्भ की जिस में सुकारनों भी उभर कर सामने आये।

सुकारनो ने अपना कार्य इस्लामिक दल के साथ आरम्भ किया जिस में उन्हें उस के नेता जोकरोमिनोटो के साथ रहने का अवसर मिला। वहीं उन्हों ने अपने भाषण देने शुरू किये। वह एक बहुत सफल वक्ता सिद्ध हुये जिस का लाभ उन्हें पूरे जीवन में मिलता रहा। विश्वविद्यालय जाने से पूर्व सुकारनो ने जोकरोमिनोटो की बेटी से विवाह कर लिया। जब उन के सुसर को एक कथित गबन के आरोप में छह महीने कैद का दण्ड दिया गया तो सुकारनो पढ़ाई छोड़ कर वापस आ गये और रेल विभाग में लिपिक का कार्य कर परिवार की देख रेख की। जब जोकरोमिनोटो ने सरकारी सदन में सदस्यता लेने की सहमति व्यक्त की तो सुकारनों ने अपना रास्ता बदल लिया। उसी समय उन का तलाक भी हो गया। सुकारनों ने अपनी मकान मालकिन इनगिट्टा, जो उस से 13 साल बड़ी थी, से विवाह कर लिया।

बादुंग में सुकारनो की भेंट जिप्तो मांगकुमुसुमो से हुई जिन्हों ने उसे उग्र राष्ट्रवादी बनने क पथ पर अग्र्रसर किया। परन्तु बाद में उन के रास्ते अलग अलग हो गये। जिप्तो पाश्चात्य रंग में देश को रंगना चाहते थे और सुकारनों स्थानीय संस्कृति के पक्षधर थे। जिप्तो मानववादी थे और 1910 में प्लेग के अवसर पर उन्हों ने लोक सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। वह अंत तक प्रजातन्त्र के पक्ष में तथा उदारवादी रहे जब कि सुकारनो समय के अनुसार ढलते रहे।

1922 में परहिनमपुनान इण्डोनेशिया नाम की संस्था बनाई गई जिस में मोहम्मद हट्टा, सुतसजाहिर, सास्त्रोमिदजोजो इत्यादि मुख्य सदस्य थे। इन का मत था कि अलग अलग गुट बनाने से स्वतन्त्रता मिलने में दिक्कत हो गी। 1925 में इस ने प्रतिपादित किया कि स्वतन्त्रता आत्मनिर्भर हो कर ही प्राप्त की जा सकती है। इस ने कई स्थानों पर अपने केन्द्र स्थापित किये। इसी के साथ कई अन्य संगठन बांदुंग, योगजकारता, सोलो इत्यादि में स्थापित किये गया। 1927 में इन सब को मिला कर पार्टी नेसिनाल इण्डोनेशिया की स्थापना की गई। इस का प्रथम सभापति सुकारनों को बनाया गया। इस दल ने असहयोग, राष्ट्रीय एकता तथा आत्मनिर्भरता पर ज़ोर दिया। इस ने प्रथम बार भावी इण्डोनेशिया की सीमायें तय कीं। इस में सब से पश्चिम के द्वीप साबांग से ले कर पश्चिमी न्यू गिनी को शामिल किया गया। सुकारनों को दो कारणों से चुना गया। एक उन की वक्ता होने का गुण और दूसरे उन के इण्डोनेशिया में ही रहने के कारण (मोहम्मद हट्टा इत्यादि हालैण्ड में काफी समय तक रहे थे)। हट्टा मुस्लिम मत से प्रभावित थे जब कि सुकारनों माता के प्रभाव के कारण एवं अन्यथा इस्लाम, हिन्दु, बौद्ध तथा स्थानीय संस्कृति में पले बढ़े थे। उन्हों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि समाजवाद, इस्लाम तथा राष्ट्रवाद को एक साथ निभाया जा सकता है। उन्हों ने इस सम्बन्ध में चीन के सुन यत सैन के विचार भी अपनाये। उन्हों ने मार्कस के निरीश्वरवाद को अस्वीकार कर दिया। उन का मत था कि जिस प्रकार मार्कस पूँजीवाद के विरुद्ध हैं, वैसे ही इस्लाम भी समाजवाद में विश्वास रखता है। इस प्रकार त्रिमूर्ति के रूप में सुकारनो ने अपने विचारों को प्रतिपादित किया।

उन के राजनीतिक दर्शन की नींव में दो इण्डोनेशियन सिद्धाँत थे - मुसजवरा (मशवरा) तथा मुफाकत (सहमति)। सभी निर्णय आपस में सलाह मश्वरे से लिये जाना थे। जब निर्णय हो जाता है तो वह सब का निर्णय होता है। इस में बहुमत की बात नहीं आती, सहमति की बात आती है। पश्चिमी प्रजातन्त्र में बहुमत का प्रश्न उठता है। अक्तूबर 1928 में पहली बार ‘‘एक देश, एक झण्डा, एक भाषा’’ की घोषणा की गई। इसी सत्र में ‘इण्डोनेशिया राजा’ नाम से राष्ट्रीय गाण पहली बार बजाया गया। 1931 में सभी युवा संगठन ने राष्ट्रीय एकता संघ इण्डोनेशिया मुद्दा बनाया। यह उल्लेखनीय है कि कुछ मुस्लिम गुट इस से अलग रहे। अपने भाषणों में सुकारनो अपने साथियों को पाण्डव कहते थे जो कौरवों से युद्ध कर रहे थे। पर कई लोग इस से भी नाराज़ थे कि सुकारनो सदैव पश्चिमी वेष भूषा में रहते थे जब कि दूसरी ओर स्वदेशी पर ज़ोर था।

दिसम्बर 1929 में सुकारनो तथा कुछ साथी बन्दी बनाये गये। उन पर चले प्रकरण में उन का रक्षा व्यक्तव्य काफी प्रसिद्ध हुआ तथा वह राष्ट्रीय नेता के रूप में मान्यता पा गये। उन्हें चार वर्ष कैद का दण्ड दिया गया। जेल से एक पत्र में सुकारनो ने दावा किया कि उन्हें सामान्य कैदी मान कर कठोर कार्य दिया गया, उन का सर मूण्ड दिया गया। इस से काफी हल्ला हुआ और उन की सज़ा तीन महीने कम कर दी गई। बाद में उन्हे दो वर्ष पूर्व ही छोड़ दिया गया।

इसी बीच मुस्लिम विचारधारा वाले दल से अलग हो गये। कुछ हालैण्ड में शिक्षा ग्रहण किये लोग भी मुफाकत के न होने के कारण नाराज़ थे। 1931 में पी के आई दल, जिसे अवैध घोषित कर दिया गया था, भंग कर दिया गया और उस के स्थान पर पारतिन्दो नाम का दल गठित किया गया। इस का कार्यक्रम पूर्व के दल के समान ही था। श्री हट्टा तथा अन्य का आरोप था कि दल भंग करने का निर्णय बिना आम सदस्यों की राय लिये किये गया है जो उचित नहीं है। उन के विचार में पहले जनता को तैयार करना हो गा और उस के बाद ही अन्दोलन करना तथा जनता द्वारा दायित्व ग्रहण करने की कार्रवाई की जाना चाहिये। सुरत सुजाहिर ने एक समानान्तर दल पेन्दीदिकान नैसियोनाल इडोनेशिया के नाम से गठित किया। इस के अध्यक्ष श्री हट्टा थे। इस में मार्कसवादी प्रभाव देखा जा सकता था।

कैद से मुक्त होने के बाद सुकारनों का भव्य स्वागत किया गया। उन्हों ने दोनों दलों में एकता का प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाये। वह वर्ग संघर्ष का समर्थन नहीं कर पाये। इस के स्थान पर उन्हों ने मारहेनवाद का प्रचार आरम्भ किया। (मारहेयन एक साघारण किसान का नाम था जिस के पास अपनी थोड़ी सी भूमि थी पर उस की अपनी थी। उस की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। सुकारनों को वह इण्डोनेशिया के साधारण व्यक्ति का प्रतिरूप लगा तथा उन्हों ने अपने मत का नाम उस के नाम पर रखा)।

इस से पहले कि सुकारनों अपने इस मत का कि इण्डोनेशिया कोे अपने सामान्य नागरिक के बूते पर स्वतऩ्त्रता युद्ध लड़ना चाहिये, को फैला सकते, उन्हें अगस्त 1933 में पुनः कैद कर लिया गया। इस बार उन्हें पूर्वी इण्डोनेशिया में फलोरा द्वीप में निर्वासित कर दिया गया। दूसरे राष्ट्रवादी नेता - हट्टा, सजाहिर इत्यादि भी बंदी बनाये गये तथा उन्हें ताना मेराह के कुख्यात जेल में रखा गया।

सुकारनो ने कुछ समय पश्चात यह घोषणा की कि वह राजनीति से निवृत हो रहे हैं। उन्हों ने अपनी पार्टी पारतिन्दो से त्यागपत्र भी दे दिया। इस का निहित कारण क्या था, यह स्पष्ट नहीं है। हो सकता है कि यह एक सामरिक परिवर्तन हो, अथवा सरकार से असहयोग का लाभ नहीं हो गा, यह विचार आया हो। इसी काल में कई अन्य नेताओं का भी यही विचार था। इस के पीछे नाज़ी जर्मनी की बढ़ती हुई शक्ति तथा उन का राजनीतिक एजैण्डा था। वे सोचते थे कि प्रजातान्त्रिक हालैण्ड उन की माॅग से अधिक निकट हो गा। यह अलग बात है कि हालैण्ड ने इस नई पहल को कोई सकारात्मक उत्तर नहीं दिया। 1940 में भी उन का मत था कि इण्डोनेशिया अभी स्वतऩ्ता अथवा स्वशासन के लिये परिपक्व नहीं है। यह सुझाव भी दिया गया कि हालैण्ड तथा इण्डोनेशिया का संघ बनाया जाये लेकिन इसे भी स्वीकार नहीं ​किया गया तथा युद्ध के बाद इस पर विचार करने की बात कही गई।

निर्वासन के दौरान फलोरा द्वीप पर अधिकाँश लोग रोमन कैथोलिक थे। सुकारनों को यहाँ ईसाई मत के बारे में निकट से जानने का अवसर मिला किन्तु वह जावा के वातावरण के बिना स्वस्थ नहीं रह पाये। इस पर सरकार ने उन्हें 1938 में पश्चिम सुमात्रा के नगर बेंगुलु में स्थानान्तरित कर दिया। यहाँ पर मुस्लिम लोग थे और उन के साथ सुकारनों का सम्पर्क बढ़ा। उन्हों ने वहाँ प्रवचन देना भी आरम्भ कर दिया। वह क्षेत्र उदार इस्लाम के पक्ष में था तथा सुकारनों भी इसी मत के थे यद्यपि वह कुछ अधिक ही उदार थे। इसी बीच युरोप में महायुद्ध आरम्भ हो गया तथा सुकारनों तथा अन्य नेताओं को लगा कि इस से इण्डोनेशिया का उद्धार हो सकता है।

जापान के पर्ल हार्बर पर हमले के बाद जापान ने अति तीब्र गति से विजय यात्रा आरम्भ की और सिंगापुर तक तीन महीने में ही पहुँच गये। इण्डोनेशिया में उन का आधिपत्य मार्च 1942 में हो गया। आरम्भ में इण्डोनेशिया के नेताओं को लगा कि जापान द्वारा उन की स्वतन्त्रता की बारे में पहल की जाये गा किन्तु शीघ्र ही उन का भ्रम दूर हो गया। जापान ने स्वतऩ्त्रता पर चर्चा युद्ध के समाप्त होने तक टाल दी। पर उन्हों ने इन नेताओं का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया। इस का एक कारण था कि जापान के पास नागरिक व्यवस्था के लिये अधिकारी नहीं थे तथा उन्हें इण्डोनेशिया के लोगों का सहयोग चाहिये था। यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि जापानी डच के मुकाबले में अधिक सख्त थे। डच थोड़ा बहुत विरोध सहन कर लेते थे जो अब सम्भव नहीं था। इन नेताओं के सामने अब तीन ही रास्ते थे। एक जापानियों के साथ मिल का काम करे। दूसरे सार्वजनिक जीवन से बाहर हो जाये और तीसरे गुप्त रूप से काम करें। मोहम्मद हटा ने सहयोग का मार्ग चुना पर साथ ही सजाहिर, जिस ने गुप्त अन्दोलन का मार्ग चुना, के साथ सम्पर्क भी बनाये रखा। जहाँ तक सुकारनो का सम्बन्ध है, उन्हों ने पूर्ण रूप से अपने को जापानियों के सामने समर्पित कर दिया।

युद्ध से पूर्व जापान ने ‘एशिया एशियावासियों का’ नारा दिया था जिस का इण्डेनेशिया के नेताओं को आस बन्धी कि उन्हें स्वतन्त्रता दी जाये गी या कम से कम आन्तरिक स्वायतता दी जाये गी। आरम्भ में स्मजुद्दीन के नेतृत्व में ‘थ्री ए मूवमैण्ट’ के नाम से एक संस्था बनी जिस ने जापान के साथ सहयोग की बात की। इण्डोनेशियन लोगों को उप प्रशासक इत्यादि का पद भी दिया गया। परन्तु यह दौर शीघ्र ही समाप्त हो गया।

जहाँ तक सुकारनों का सम्बन्ध है, वह उस समय पूर्वी सुमात्रा में थे तथा उन की कोई विशेष भूमिका आरम्भ के दिनों में नहीं थी। उन्हें सुमात्रा में पेदांग नगर में एक अल्प अधिकार वाला पद दिया गया और उन को काम जापनियों को रसद तथा औरतें प्रदान करने का था। उन्हें एक कट्टर राष्ट्रवादी मान कर उन को महत्वपूर्ण भूमिका से दूर ही रखा गया। थ्री ए मूवमैण्ट के समाप्त हो जाने के पश्चात उन की सेवायें लेने की सोची गई। जुलाई 1942 में उन्हें जावा लाया गया। यहाँ भी उन्हें कम महत्व वाले पद पर ही रखा गया। उन के द्वारा जापानी जनरल इम्मामुरा को प्रभावित करने का प्रयास किया गया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ।

इस बीच जापान की इण्डोनेशियावासियों के प्रति सख्ती बढ़ती रही। युद्ध से पूर्व जहाँ इण्डोनेशिया की स्वतन्त्रता की बात की गई, 1942 के अन्त तक इसे पूरी तरह नकार दिया गया। बर्मा तथा फिलिपीन्स को जनवरी 1943 में स्वतन्त्रता देने की घोषणा की गई किन्तु इण्डोनेशिया के बारे में नहीं। वास्तव में इण्डोनेशिया के स्थान पर उन्हों ने केवल ‘दक्षिण क्षे़त्र’ कह कर ही इस क्षेत्र का हवाला दिया।

मार्च 1943 में एक नये दल का गठन किया गया जिस को ‘पुतेरा’ (संस्कृत पुत्र का इण्डोनेशियाई रूप) नाम दिया गया। इस की नीति स्पष्ट नहीं थी। जापान के साथ सहयोग की बात की गई। जापानी तथा भाषा इएडोनेशिया के प्रसार का वचन दिया गया। इस के साथ ही सभी पश्चिमी जगत के प्रभाव को समाप्त करने का एजैण्डा अपनाया गया। जापानी शासकों ने पुतेरा का अखिल इण्डोनेशियाई दल बनने नहीं दिया तथा इसे ग्रामीण अंचल में शाखायें स्थापित करने की अनुमति नहीं दी गई। ग्रामीण क्षेत्र में जापान कृषि उत्पादन बढ़ाने का इच्छुक था। इस के लिये उन्हों ने वहाँ के प्रभावी मुस्लिम नेताओं की सहायता भी प्राप्त करने का प्रयास किया।

जुलाई 1943 में जापानी प्रधान मन्त्री तोजो ने इण्डोनेशिया यात्रा की। इस के बाद एक केन्द्रीय सलाहकार समिति तथा क्षेत्रीय सलाहकार समितियाँ गठित की गई पर इन की शक्ति डच सरकार द्वारा गठित समिति के बराबर भी नहीं थी। शासन के किसी अंग पर टिप्पणी का अधिकार उन्हें नहीं दिया गया। जापान ने इसी समय जोगजकारता तथा सूराकरता के सुलतानों को भी मान्यता दी। कई प्रशासकीय पद स्थानीय लोागों को दिये गये जिन के अनुभव का आगे चल कर देश को काफी लाभ हुआ, परन्तु स्वतन्त्रता के नाम पर कोई वायदा नहीं किया गया। 1943 में चीन, फिलिपीन, बर्मा, मनचूरिया तथा थाईलैण्ड की अखिल एशिया सम्मेलन में भी इण्डोनेशिया को शामिल नहीं किया गया। परन्तु यहाँ के नेताओं को जापान यात्रा अवश्य कराई गई। पहली बार सुकारनों ने इण्डोनेशिया के बाहर यात्रा की। उन की एक बड़ी उपलब्धि इस यात्रा में यह रही कि जापान के सम्राट ने उस से हाथ मिलाया जो श्रेय दूसरे नेताओं को प्राप्त नहीं हो पाया।

जैसे जैसे युद्ध समाप्ति की ओर बढ़ा, इण्डोनेशियावासियों को कुछ और अधिकार दिये गये। मार्च 1944 में पुतेरा को समाप्त कर दिया गया और इस के स्थान पर नया संगठन द्वाजा होकोकै बनाया गया। इस में मुख्य भूमिका जापानियों की थी किन्तु अरब, चीन, युरोपीय समुदायों के प्रतिनिधि भी शामिल किये गये। इस की शाखायें सभी क्षेत्रों में तथा ग्रामों में भी स्थापित की गई। सुकारनों को इस का मुख्य परामर्शदाता बनाया गया। वह केन्द्रीय सलाहकार समिति के अध्यक्ष भी बने। परन्तु इस की शक्तियाँ सीमित थी तथा वह उन इण्डोनेशियाईयों की जो जबरन मज़दूरी के भेजे गये थे, की सहायता भी नहीं कर पाये।

सितम्बर 1944 में जापान की संसद में इण्डोनेशिया को स्वतन्त्र करने के इरादे की घोषणा की गई। इण्डोनेशिया के झण्डे को फहराने की अनुमति दी गई तथा राष्ट्रीयगाण की अनुमति भी दी गई। पर स्वतन्त्रता की कोई तिथि घोषित नहीं की गई तथा न ही युद्ध के लिये योगदान में कोई ढील दी गई। दूसरी ओर इण्डोनेशियन नागरिकों को प्रशासन में अधिक भागीदारी दी गई। इस के साथ ही मुस्लिम संस्था मसजूमी को अपनी सैना हिज़्बालाह बनाने की अनुमति देना एक प्रतिगामी कदम था।

उस समय ऐसा लगने लगा था कि जापान की युद्ध में हार हो गी। सुकारनों पाश्चात्य जगत एवं संस्कृति के प्रबल विरोधी थे जब कि दूसरे नेता जैसे कि सजाहिर जापान के विरोधी तथा पश्चिमी जगत के सिद्धाँतों के पक्षधर थें। इस समय किसी ने हीरोशीमा तथा नागासाकी की कल्पना नहीं की गई थी। यह धारणा थी कि युद्ध समाप्त होने के कुछ समय पूर्व इण्डोनेशिया को स्वतन्त्रता दे दी जाये गी। इस को ध्यान में रखते हुये सुकारनो ने परामर्शदात्री समिति में पंचघर्म का प्रस्ताव पारित कराया। यह थे

1. हम जापान के साथ मिल का बहृत पूर्व एशिया क्षेत्र बनायें गे।

2. एक स्वतन्त्र, संयुक्त, सार्वभौम राज्य बनायें गे जिस का श्रेय जापान को दिया जाये गा।

3. एशियाई संस्कृति तथा अपनी स्वयं की संस्कृति को बढ़ाने का प्रयास करें गे।

4. दूसरे एशियाई देशों के साथ भ्रातृत्व की भावना के साथ कार्य करें गे।

5. पुूरे विश्व में शाँति स्थापना का प्रयास करें गे जिस का आधार सभी मानव का भ्रातृत्व हो गा।

जब जापान को एक के बाद एक हार का सामना करना पड़ रहा था तो मार्च 1945 में इण्डोनेशिया की पूर्ण स्वतन्त्रता शीघ्र करने की घोषणा की गई। इस के लिये रदजिमान की अध्यक्षता में समिति बनाई गई। सुकारनों की जनता को प्रभावित करने की क्षमता के मद्देनज़र सुकारनों को अध्यक्षता नहीं दी गई। कुछ लोग तुरन्त स्वतन्त्रता के पक्ष में थे पर सुकारनों तथा अन्य का मत था कि प्रतीक्षा करना उचित हो गा। केवल भावनाओं के आधार पर राज्य नहीं बन सकता। जून 1945 में उस ने एक सम्मेलन बुलाया जिस में कई संगठनों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस में सुकारनों काफी प्रयास के पश्चात अपना पंच शिला कार्यक्रम मनवाने में सफल हुये। यह पाँच सिद्धाँत थे - राष्ट्रीयता, अन्तर्राष्ट्रीयता, मुफाकत (प्रजातन्त्र), समाज कल्याण, तथा धर्म निष्पेक्षता में विश्वास। उन का मत था कि इण्डोनेशिया में वह सभी क्षेत्र होने चाहिये जो पूर्व में राजा श्रीद्विजा तथा श्री मोदजोपाहित के आधीन थे। यदि पंचशिला स्वीकार्य न हो तो त्रिशिला - सामाजिक राष्ट्रीयता, सामाजिक प्रजातन्त्र, तथा ईश्वर के विश्वास के सिद्धाँत अपनाये जा सकते हैं। यदि यह भी अधिक हैं तो एक सिद्धाँत - इण्डोनेशिया सभी इण्डानेशिया निवासियों के लिये - काफी हो गा।

कई प्रतिनिधि धर्मनिर्पेक्षता के विचार से सहमत नहीं थे तथा पाँचवें सिद्धाँत को एक समिति द्वारा परिवर्तित कर कहा गया ‘‘सभी इस्लाम के मानने वालों के लिये इस्लामी सिद्धाँत के साथ रहने का कर्तव्य’’। इसी के साथ एक 19 सदस्यीय समिति संविधान निर्माण के लिये बनाई गई। इस के द्वारा प्रस्ताविक संविधान में मजलिस पेरमुस्जवरम राजकत, देवान परवाकिलन राजकत का प्रावधान किया गया। प्रथम द्वारा नीति सिद्धाँत बनाये जाना थे तथा इस की बैठक पाँच वर्ष में एक बार होना आवश्यक था। द्वितीय सदन को वर्ष में कम से कम एक बार मिलना था तथा वह कानून बना सकती थी। संविधान में राष्ट्राध्यक्ष तथा उप राष्ट्राध्यक्ष का प्रावधान था। सभी कानून राष्ट्राध्यक्ष के अनुमोदन के पश्चात ही पारित माने जाने थे। मंत्री राष्ट्राध्यक्ष द्वारा नियुक्त किये जाना थे तथा उसी के प्रति उत्तरदायी हों गे। अनुच्छेद 29 में धर्म की स्वतन्त्रता दी गई थी। परन्तु इस की व्याख्या कुछ मुस्लिम नेताओं द्वारा यह की गई कि मुस्लिम दूसरा धर्म अपना सकते थे जो उन के अनुसार सही नहीं था। उन के प्रबल विरोध को देखते हुये इस अनुच्छेद में संशोधन की ‘अपने धर्म को अपने तरीके से मानने’ का कहा गया। धर्म परिवर्तन की बात नहीं की गई। यह प्रावधान भी किया गया कि राष्ट्राध्यक्ष केवल मुस्लिम हो सकता है।

7 अगस्त को रदजिमान की समिति के स्थान पर स्वतन्त्रता की तैयारी के लिये समिति बनाई गई जिस के प्रभारी सुुकारनों तथा हट्टा थे। स्वतन्त्रता की तिथि 24 अगस्त हो गी, ऐसा अनुमान था। परन्तु हीरोशिमा तथा नागासाकी ने सारा खेल बिगाड़ दिया।

छात्रगण स्वतन्त्रता के लिये अत्यन्त उत्सक थे तथा तुरन्त ही स्वतनत्रता की घोषणा चाहते थे जब कि सुकारनो तथ अन्य प्रतीक्षा करने का कह रहे थे। उन का विचार था कि जापानी सैना इस प्रकार की घोषणा को सख्ती से कुचल दे गी। जापानी आत्मसर्मपण के समाचारों के बीच उन्हों ने सैना के अधिकारियों से तथा उन के अनमने रवैये के पश्चात जापानी नवसैना के अधिकारियों से सम्पर्क किया। इस बीच जापान के स्मर्पण की समाचार भी आने लगे किन्तु नव सैना के अधिकारी भी पुरी तरह से इस के जानकार नहीं थे। 16 अगस्त को विलम्ब से नाराज़ छात्रों ने सुकारनो तथा हट्टा का अपहरण कर लिया तथा उन्हें अपने सुरक्षित स्थान रेंगसडेंगनेलोक पर ले गये। सुबारडजो ने अपने का समर्पित करने का कह कर उन्हें अगले दिन छुड़वाया। इस समय यह स्पष्ट था कि जापानी सैना स्वतन्त्रता घोषणा के पक्ष में नहीं थी जबकि नव सैना को कोई आपत्ति नहीं थी।

छात्र चाहते थे कि स्वतन्त्रता की घोषणा सार्वजनिक रूप से विशाल समूह के सामने हो परन्तु नेताओं की राय थी कि इस से जापानी सैना को दमन का अवसर मिल जाये गा। अन्ततः 17 अगस्त 1945 को प्रातः दस बजे, सुकारनों तथा हट्टा ने कुछ लोगों के सामने इण्डोनेशिया की स्वतन्त्रता की घोषणा की। एक घर का बना हुआ राष्ट्रीय झण्डा फहराया गया। न तो कोई समारोह हुआ न ही कोई प्रदर्शन। जकार्ता रेडियो स्टेशन से इस की सूचना जनता को तथा विश्व को दी गई।

अगले दिन नये राष्ट्र का संविधान प्रस्तुत किया गया। उल्लेखनीय है कि इस में अनुच्छेद 29 में जो संशोधन किये गये थे, वह शामिल नहीं थे तथा यह मूल रूप में ही था। केवल सर्चशक्तिमान में विश्वास का सिद्धाँत जो सुकारनो की घोषणा मे पाँचवें स्थान पर था, को प्रथम सिद्धाँत माना गया। अल्लाह के स्थान पर ‘तुहान’ शब्द का प्रयोग किया गया जिस का अर्थ है - सर्व शक्तिमान। 18 अगस्त को सुकारनो को राष्ट्राध्यक्ष तथा हट्टा को उप राष्ट्राध्यक्ष चुना गया। यह भी तय किया गया कि अगले छह महीने तक सुकारनो एक समिति के परामर्श से कार्य करें गे। 19 अगस्त को राज्य को आठ प्रान्तों में बाँटा गया। हर एक में अपना राज्यपाल, परामर्श समिति तथा ग्रामों में ग्राम समिति होने की घोषणा की गई। 29 अगस्त को केन्द्रीय राष्ट्रीय समिति बनाई गई जिस में 135 सदस्य थे जो सभी समूहों का प्रतिनिधित्व करते थे।

यह उल्लेखनीय है कि जापानी सैना के साथ ताल मेल रखते हुये सभी विभागों को कार्य शासन द्वारा अपने हाथ में लिया गया। इस बीच शासन के सहयोग के साथ जापानी सैना ने छात्रों के सैनिक पक्ष के हथियार भी ले लिये। इस के स्थान पर एक पुलिस बल की स्थापना की गई।

तनमलाका के नेतृत्व में इस्लामी दल इस्लामिक राज्य घोषित करना चाहते थे। सुकारनो की जनता की पकड़ का अंदाज़ इस से लगाया जा सकता है कि 19 सितम्बर को तनमलाका के नेतृत्व मे दो लाख लोग इकादा स्केअर में एकत्रित हुये। वह आक्रामक मूड में थे। इसे देखते हुये जापानी सैना को तैयार रहने को कहा गया था। सुकारनों ने 5 मिनट इस समूह को सम्बोधित किया तथा सभी शाँतिपूर्वक अपने घरों को लौट गये। हो सकता है इस में जापानियों द्वारा अमानुषीय अत्याचारों का भय भी शामिल हो परन्तु सुकारनो का योगदान भी था।

यद्यपि स्वतन्त्रता की घोषणा की दी गई किन्तु राह आसान नहीं थी। जापान से तो अब खतरा नहीं था किन्तु डच यह समझ रहे थे कि जापान की हार के पश्चात इण्डोनेशिया में फिर से पुराने हालात आ जायें गे। नई सरकार के नेताओं को बन्दी बना कर अथवा मृत्यु दण्ड दे कर पूर्व की स्थिति बहाल हो जाये गी। किन्तु हालैण्ड की सैनिक शक्ति इतनी नहीं बची थी कि वे कुछ कर पाते। इण्डोनेशिया में प्रथम ब्रिटिश सैना का ही पदार्पन हुआ। इस में भी वह भारतीय सैनिकों पर ही निर्भर थे। उन्हें भय था कि भारतीय सैनिक स्वतन्त्रता के नाम पर लड़ रहे लोगों के विरुद्ध कठोर कदम नहीं उठा पायें गे। इस कारण उन्हों ने इण्डोनेशिया की सरकार को आँतरिक मामलों में कार्य करने दिया।

परन्तु देश में अनेक हथियारबन्द गुट थे जिन के अपने अपने लक्ष्य थे। जापानी सैना के कई हथियार उन के पास आ गये थे। एक गुट ने कई युरोप तथा हालैण्ड के लोगों की हत्या कर दी। केन्द्रीय सरकार इस में असहाय सी थी। सुराबाजा में विदरोहियों ने अधिकार कर लिया। यद्यपि सुकारनों की यात्रा के समय कुछ समय तक शाँति रही किन्तु उस के जाने के बाद पुनः वही हाल हो गया। भारतीय सैनिकों ने तब वहाँ पर कार्रवाई की। इस में एक ओर टैंक थे तो दूसरी ओर छोटे हथियारों से लेस विद्राही। काफी संख्या में हताहत होने के पश्चात ही सैना हालात पर काबू पा सकी।

इस समय तक स्थिति यह हो गई थी कि सुकारनों को लोग सुनते तो थे और उस के प्रति सम्मान भी था किन्तु उस के कथन का प्रभाव अधिक देर तक नहीं रहता था। सुकारनों ने अपनी प्रतिष्ठा को दाँव पर लगाने की बजाये दूसरे लोगों को ही आगे करना आरम्भ किया। कई लोग यह मानते थे कि सुकारनों की शक्ति जापानियों की देन है। इस समय महत्वपूर्ण अन्य व्यक्ति थे तनमलाका तथा सुअख्बारडजो, जो इस्लामी राज्य के पक्ष में थे; सजाहिर जो पश्चिम ढंग का प्रजातन्त्र चाहते थे; तथा साम्यवादी जो तरन्त ही रूस की भाँति क्राँति चाहते थे। तनमलाका का प्रयास था कि सजाहिर से संधि कर सुकारनो का तख्ता पलटा जाये किन्तु सजाहिर को प्रतीत हुआ कि तनमलाका केवल स्वयं के हित के लिये ही हैं, देश के लिये नहीं। अतः उस ने सुकारनों का साथ दिया। सुकारनों को भी साथी की तलाश थी। उन्हों ने सजाहिर को प्रधान मन्त्री नियुक्त किया तथा यह भी अधिकार दिया गया कि वह अपने मन्त्री स्वयं चुनें गे।

इस बीच हालैण्ड की सैना ने भी देश में प्रवेश किया। इण्डोनेशिया की सैना इन का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थी अतः शासन ने वार्तालाप का प्रयास किया। कई गुट इस के विरुद्ध थे किन्तु दूसरा रास्ता भी नहीं था। किन्तु डच वार्ता कर देश की सवतन्त्रता की बात नहीं सोच रहे थे। वे तो पूर्व की भाँति वर्चस्व चाहते थे।

तनमलाका ने जनवरी 1946 में एक नया मोर्चा पी पी के नाम से खोला जिस में कई गुट शामिल थे। वे सभी अपना अपना हित इस में देख रहे थे। इन में एक बात समान थी कि वे डच से वार्तालाप नहीं चाहते थे। देश में राष्ट्रवाद की लहर थी तथा वार्तालाप का वातावरण नहीं था। सैना के अन्दर भी कई गुट थे। कई गुट राजनीति में भी दखल चाहते थे। कई अधिकारी जापान द्वारा प्रशिक्षित थे तथा उन्हें ऊँचे पद मिले थे जिस से स्वयंसेवक सैना में रोष था। मसजूमी दल के साथ अल्लाह की सैना नाम से 30,000 कट्टर विचार धारा के व्यक्ति थे।

सजाहिर ने दाँव खेला। उस ने प्रधान मन्त्री पद से त्यागपत्र दे दिया तथा सुकारनों ने पी पी को सरकार बनाने का न्यौता दिया। जैसी कि सजाहिर को आशा थी, पी पी के भीतरी विरोध ने उन्हें कोई मन्त्री मण्डल बनाने न दियां। उन की असफलता के पश्चात उन्हों ने फिर से सुकारनों को सत्ता सौंप दी जिन्हों ने सजाहिर को पुनः प्रधान मन्त्री नियुक्त किया। तनमलाका तथा दूसरे नेताओं को बन्दी बना लिया गया। जून 1946 में सैना के एक गुट तीसरा डिविज़न ने उन्हें छुड़ा लिया तथा इस की एक टुकड़ी ने सजाहिर का भी अपहरण कर लिया। परन्तु इन्हें सैना ने शीघ्र ही छुड़ा लिया। तनमलाका तथा साथियों का विद्रोह सफल नहीं हो पाया। सजाहिर के नेतृत्व में नया मन्त्री मण्डल बनाया गया जिस में कई गुटों के प्रतिनिधि शामिल थे।

यु़द्ध की समाप्ति के बाद डच ने अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने का कार्य किया तथा इस के पश्चात इण्डोनेशिया पर पुनः आधिपत्य करने का प्रयास किया। सीमित शक्ति के साथ इण्डोनेशिया ने इस का विरोध किया किन्तु कई क्षेत्रों पर हालैण्ड का अधिकार हो गया। नवम्बर 1946 में डच के साथ लिंगादजति संधि हुई जिस के अनुसार इण्डोनेशिया गणतनत्र का मान्यता दी गई किन्तु उन्हें केवल जावा तथा सुमात्रा के क्षेत्र में ही मान्यता मिली। शेष क्षेत्र में अलग से स्वतन्त्र राज्य बनाने का निर्णय लिया गया। परन्तु डच का कोई इरादा इसे स्थाई स्थिति मानने का नहीं था। उन्हों ने एक के बाद एक तेरह राज्य बना लिया और वहाँ कठपुतली सरकार को दायित्व दिया गया। सजाहिर सम्झ रहा था कि डच पूरे स्तर के युद्ध का सोच रहे है तथा सैना अभी मुकाबला करने की स्थिति में नहीं थी। उस ने त्यागपत्र दे दिया तथा सुकारनों को पूरे अधिकार दे दिये गये। नये प्रधान मन्त्री अमीर स्फारुद्दीन ने डच को और रियायतें दी पर उस से अन्तर नहीं पड़ा। इधर डच का उपजाउ क्षेत्र पर अधिकार होने तथा बन्दरगाहों की नाकाबन्दी होने के कारण खाने पीने की वस्तुओं की कमी हो गई। इस स्थिति में जनवरी 1948 में इण्डोनेशिया को रैनविल संधि मानना पड़ी। रैनविल संधि का देश में तीब्र विरोध हुआ और स्फारुद्दीन को अपने पद से हटना पड़ा। हट्टा की अध्यक्षता में नया मन्त्रीमण्डल बनाया गया। इस समय कई हथियारबन्द गुट सैना के भीतर थे। इस कारण हट्टा ने 57,000 लोगों की एक विशेष प्रशिक्षित फौज गठित की जो छापामार युद्ध में पारंगत हो।

रैनविल संधि पूरी तरह इण्डोनेशिया के हितों के विरुद्ध थी परन्तु डच उस से भी संतुष्ट नहीं थे। वे तो पूर्व की स्थिति में लौटना चाहते थे। हालैण्ड में सरकार बदलने के साथ उन के इरादे और मज़बूत हो गये। इघर सरकार को एक नये विद्रोह का भी सामना करना पड़ा। साम्यवादी दल के सैनिकों ने पूर्वी जावा में मैदियुन नगर पर अधिकार कर लिया तथा अपनी सरकार बना ली। सुकारनो ने तनमलाका को मुक्त कर विरोधियों में फूट डालने का प्रयास किया पर कई साम्यवादी विचार के सैनिक विद्रोह में शामिल हो गयें। साम्यवादियों ने स्थानीय लोागों पर विशेशकर धर्मभीरु मुस्लिम पर काफी अत्याचार किये। हट्टा द्वारा प्रशिक्षित सैना के सिलवांगी डिविज़न ने जल्दी ही साम्यवादी विद्रोह पर काबू पा लिया किन्तु हार के अन्देशे से साम्यवादी और भी क्रूर हो गये। बताया जाता है कि इस में हज़ारों बेगुनाह मारे गये। विद्रोह तब समाप्त हुआ जब उन का नेता मारा गया और कुछ को पकड़ कर मृत्युदण्ड दे दिया गया।

उधर दायें पक्ष के मुस्लिम दल ने भी विद्रोह किया तथा दारुलइस्लाम की घोषणा कर दी। यह विद्रोह पश्चिमी जावा में बहुत दिन तक चला यद्यपि उन का वर्चस्व सीमित क्षेत्र में ही रहा। 1963 में ही उन के नेता की मृत्यु के बाद इस पर काबू पाया जा सका।

दिसम्बर 1948 में डच सैना ने एक बार फिर आक्रमण किया और जोगजकारता पर अधिकार कर लिया। पूरे मन्त्री मण्डल को बन्दी बना लिया गया जिस में सुकारनो, हट्टा, सजाहिर तथा अन्य शामिल थे। दूसरे बड़े नगरों पर भी अधिकार कर लिया गया। परन्तु रक्षा मन्त्री स्फारुद्दीन बच गये तथा उन्हों ने सुमात्रा में गणतन्त्र का मुख्यालय घोषित कर दिया। डच अंतिम विजेता नहीं बन पाये क्योंकि सैना के वह दस्ते जो छापामार युद्ध में पारंगत थे, ने सुदीरमन के नेतृत्व में अपना अभियान जारी रखा।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने हालैण्ड की कार्रवाई के विरुद्ध कई प्रस्ताव पारित किये किन्तु हालैण्ड ने उन की परवाह नहीं की। किन्तु स्थिति तब बदली जब अमरीका भी दूसरी ओर हो गया क्योंकि उसे लगा कि साम्यवादी विद्रोह को दबाने की शक्ति केवल गणतन्त्र में ही है। उस ने हालैण्ड की मार्शल प्लान में सहायता बन्द करने की धमकी दी जिस के फलस्वरूप हालैण्ड को फिर से वार्ता के लिये तैयार होना पड़ा। अप्रैल 1949 में युद्धबन्दी की घोषणा करना पड़ी जिस में इण्डोनेशिया ने छापामार युद्ध बन्द करने का भी वचन दिया। जुलाई 1949 को सुकारनों तथा अन्य नेता वापस जोगजकारता में आये। जनरल सुदाीरमन, जिस ने छापामार युद्ध का नेतृत्व किया था पर जो बहुत बीमार थे, को स्ट्रैचर पर लाया गया। वह ही इस युद्ध के असली हीरो थे।

हेग में सम्मेलन के पश्चात अन्ततः हालैण्ड ने गणतन्त्र को मान्यता दी तथा 27 दिसम्बर 1949 को उप राष्ट्राध्यक्ष हट्टा ने औपचारिक रूप से एम्सटरडम में इस घोषणा को स्वीकार किया। उसी दिन हालैण्ड का झण्डा अंतिम बार इण्डोनेशिया में उतारा गया तथा राष्ट्राध्यक्ष सुकारनों ने सत्ता सम्भाली। इस प्रकार इण्डोनशिया पूर्ण रूप से स्वतन्त्र देश बनने में सफल हुआ।


(पुनश्चः - यद्यपि इण्डोनेशिया को स्वतन्त्रता मिल गई परन्तु इस के बाद का इतिहास भी संघर्ष का ही रहा। एक ओर इस्लामी गुट शरियत चाहते थे और दूसरी ओर साम्यवादी क्राँति। सुकारनो का लक्ष्य स्वयं के विचारों के अनुरूप इण्डोनेशिया को ढालना था जिस में प्रजातन्त्र की भूमिका गौण थी। सुकारनों का विश्वास निदेर्शित प्रजातन्त्र पर था जब कि हट्टा इत्यादि इस के पक्ष में नहीं थे। फलस्वरूप हट्टा ने उप राष्ट्राध्यक्ष का पद छोड़ दिया तथा राजनीति से अलग हो गये। इस बीच पश्चिम इरियन तथा मलेशिया के प्रश्न पर भी तनाव की स्थिति रही जिस में अर्थ व्यवस्था को विपरीत ढंग से प्रभावित किया। सुकारनों स्वयं भी साम्यवादी पक्ष की ओर झुकाव महसूस करने लगे। 1965 में साम्यवादी विद्रोह के समय वह उस के पक्ष में दिखे। उस समय जनरल सुहारतो के नेतृत्व में सैना ने साम्यवादी अन्दोलन को कुचल दिया। सुकारनों की लोकप्रियता देखते हुये उन्हें नाम के लिये राष्ट्राध्यक्ष रखा गया किन्तु उन के अधिकार सीमित कर दिये गये। जीवन के अंतिम पड़ाव में वह अपने निवास स्थान तक ही रह गये तथा वास्तविक सत्ता जनरल सुहारतो के हाथ में रही। 20 जुलाई 1970 को सुकारनो का देहान्त हुआ।)



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