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  • kewal sethi

निर्णय

निर्णय

अगस्त 2021


एक कहानी है —

एक आदमी को किसान ने काम करने के लिये रखा। उस ने पहले दिन उसे खेत जोतने का काम दिया। मेहनती आदमी था, शाम तक चार एकड़ खेत को जात दिया। दूसरे दिन किसान ने उसे पेड़ों से लकड़ी काटने को कहा। शाम तक उस ने तीन कविंटल लकड़ी काट कर रख दी।

तीसरे दिन किसान ने सोचा कि मैं इस से इतनी मेहनत करा रहा हूँ, इसे कुछ आसान सा काम देना चाहिये। उस ने उसे एक कविंटल आलू देते हुये कहा कि इस के तीन भाग कर दो ताकि छोटे, बीच वाले और बउ़े आलू अलग अलग हो जाये। शाम को उस ने देखा तो अभी पाँच सात किलो आलू ही छंट पाये थे। उस ने पूछा - क्या हुआ।

कामगार ने कहा कि मैं निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि कौन सा आलू किस ढेर में रखूँ। इस कारण थोड़ी देर लग रही हैं


वाकई जीवन में निर्णय ले पाना सब से कठिन काम है।


कोई भी निर्णय लेने से पहले समस्या के बारे में पूरी जानकारी लेना पड़ती है। जानकारी कभी भी पूरी नहीं हो पाती क्योंकि कुछ न कुछ रह ही जाती है, चाहे गूगल की मदद लें या बिंग की। अगर आप ने यह निर्णय लेना है कि दिल्ली से भोपाल के लिये कौन सी रेल गाड़ी ली जाये तो नैट आप को चालीस गाड़ियों की सूचना थमा दे गा। एक एक कर के आप यह भी पता कर सकते हैं कि किस गाड़ी में सीट उपलब्ध है और किस में नहीं। इस में इतना समय लग जाता है कि आप थक जाते हैं। फिर अगले दिन प्रयास करने की सोचते हैं।


वास्तव में निर्णय लेना सब से अधिक थकाने वाली बात है।


एक सर्वेक्षण में बताया गया कि इसराईल में एक जज को चार बन्दी व्यक्तियों के बारे में निर्णय करना था कि उन्हे प्राबेशन पर छोड़ा जाये अथवा नहीं। इन चारों की जानकारी इस प्रकार थी

1- एक अरब जिसे धेाकाधड़ी के मामले मे तीस महीने की कैद सुनाई गई थी - समय 10 बजे

2- एक सहूदी जिसे मारपीट के अपराध में 16 महीने की कैद दी गई थी - समय 12ः15 बजे

- 3- एक यहूदी जिसे मारपीट के मामले में 30 महीने की केद दी गई थी - समय 2ः45 बजे

- 4- एक अरब जिसे धोकाधड़ी के लिये 30 महीने की कैद दी गई थी। - समय 3ः45 बजे

बीच बीच में दूसरे प्रकरण भी थे और जज सारा दिन व्यस्त रहा था।

पहले दो को छोड़ दिया गया पर तीन तथा चार में नहीं।

कारण - सुबह के समय जज तरोताज़ा था और वकील की पूरी बात सुनने को तैयार था। समय के साथ उस की ऊर्जा कम होती गई और निर्णय लेने की इच्छा भी कम होती गई। उसे यथा स्थिति बनाये रखने में ही सहूलियत नज़र आई।

(from' the art of thinking clearly' – rolf dobelli – sceptre publication – 2014 – p 164-165)


वास्तव में निर्णय लेने की क्षमता एक टार्च के समान है। शुरू शुरू में टार्च इतनी रोशनी देती है कि सब कुछ साफ साफ दिखता है। जैसे जैसे सैल इस्तेमाल होत है, रोशनी धीमी पड़ जाती है तथा वस्तुयें धुंधली सी दिखने लगती है। सेैल को पुनः चार्ज करने पर वह फिर पहले की स्थिति में आ जाती हैं।


सरकारी कार्यालयों में यह स्थिति आम तौर पर देखने को मिलती हैं। निर्णय लेने की क्षमता समय के साथ और आयु के साथ कम होती जाती है। वरिष्ठ स्तर पर अक्सर देखा गया है कि जिस नस्ती में स्वयं निर्णय लिया जा सकता है, उसे भी अपने से वरिष्ठ अधिकारी को भेज दिया जाता हैं। सचिव तक भी यह लिखते पाये गये है - कृपया माननीय मन्त्री महोदय भी देख लें।


सम्भवतः इस का एक कारण यह भी है कि निर्णय लेने के पश्चात उसे समझाने की नौबत भी आ सकती है। इस कारण जितने अधिक व्यक्ति निर्णय की प्रक्रिया में शामिल हो सकें, उतना ही अच्छा है। इस का कारण यह भी है कि बाद में परीक्षण करने वाला व्यक्ति आराम से अपना समय ले कर परीक्षण कर सकता है।


कानून तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिये ज़िम्मेदार व्यक्तियों के लिये यह विशेष रूप से लागू होता है। जब भीड़ सामने हो तथा अवैधानिक कार्य पर आमादा हो तो कितना बल इस्तेमाल करना है, इस के लिये किसी एक्सैल के चार्ट बनाने का अथवा कम्पयूटर के लिये फ्लोचार्ट बनाने का समय नहीं होता है। त्वरित निर्णय लेना पड़ता है। बाद में कोई जज महोदय, जिन्हों ने स्वयं ऐसी स्थिति का कभी अनुभव नहीं किया हो गा, आराम से स्थिति का विश्लेषण कर निर्णय लेते हैं कि कितना बल आवश्यक था। यही कारण है कि कई बार मौके पर अधिकारी निर्णय लेने से बचता है। थोड़ा बहुत नुकसान हो जाये तो चले गा।


एक घटना याद आती है। अंग्रेज़ी विरोधी अन्दोलन में प्रदेश में व्यापक प्रोटैस्ट आयोजित हुये। जैसा कि आम तौर पर कहा जोता है, असामाजिक तत्व इस अवसर का लाभ उठा कर कुछ दुकानें लूट लेते हैं। ग्वालियर में ऐसी स्थिति आने की सम्भावना को देखते हुये बल प्रयोग किया गया तथा एस सौ से अधिक लोग बन्दी बनाये गये। तीसरे दिन विधान सभा में ध्यान आकर्षण प्रस्ताव आया कि जबलपुर में सम्पत्ति में ढाई लाख रुपये की हानि हुई किन्तु किसी को बन्दी नहीं बनाया गया जबकि ग्वालियर में हानि मात्र हज़ारों में ही थी पर एक सौ से अधिक बन्दी बनाये गये। ग्वालियर वालों को स्पष्टीकरण देना पड़ा और जबलपुर वाले अछूते रहे। ऐसी स्थिति निर्णय लेने पर आ सकती है। इस कारण भी लोग निर्णय लेने से बचते हैं। अभी तक सम्पत्ति की हानि पर जानकारी के अनुसार किसी का जवाब तलब नहीं हुआ है।


एक घटना का ज़िकर करना और उचित हो गा। मुख्य मन्त्री के ज़िले में खाने के तेल की कीमत में अचानक तेज़ी आ गई। (वैसे तो पूरे प्रदेश में थी)। मुक्ष्य मन्त्री के आदेश हुये प्रबंध संचालक आपूर्ति निगम को कि 24 घण्टे में यह कमी समाप्त की जाये। प्रबंध संचालक ने किसी प्रकार मुम्बई से ट्रक से तेल मंगा कर संकट को समाप्त किया। मुख्य मन्त्री कुछ समय बाद बदल गये। नये आये। जाँच शुरू हुई। पुलिस ने मुम्बई से जानकारी ली कि ट्रक का भाड़ा कितना लगता है। पाया गया कि प्रबंध संचालक ने उस से अधिक दिया था। विभागीय जाँच के आदेश हो गये। बड़ी कठिनाई से दो तीन साल में इसे समाप्त किया जा सका। जबकि बात सीधी थी। जब आपात स्थिति हो तो कोटेशन नहीं बुलोये जा सकते। तुरन्त निर्णय लेना पड़ता है। ओर यातायात वाले भी मजबूरी को समझते हैं। पर स्थिति को न जानने वाला किन परिस्थियिों में निर्णय लिया गया, इस पर ध्यान नहीं देता।


निर्णय लेना अथवा इसे टाल देना भी एक कला है। जैसा कि उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है, निर्णय लेने में सदैव जोखिम रहता है। इस लिये बुज़र्गों ने कई उपाय सुझाये हैं। पर सब से कारगर तरीका अंग्रेज़ों की बदौलत है।


इस तरीके का केन्द्र बिन्दु सविचालय है (जिसे जलने वाले राजनीतिज्ञों ने मंत्रालय भी कहना शुरू कर दिया है। मतलब तो उन का मंत्री से था पर वास्तव में इस शब्द में मंत्र ही उपयुक्त बैठता है)। सचिवालय में विभाग होते है तथा यह विभाग अलग अलग अधिकारी के आधीन होते हैं। यह निर्णय को टालने के काम आते है जो कि निर्णय न करने का आज़माया हुआ नुस्खा है।


सचिवालय में आने वाला पत्र आवक पंजी में दर्ज होने के बाद पी यू सी बन जाता है। (पी यू सी मतलब विचाराधीन कागज़)। इस पर विचार शुरू होता है। पहले इस के बारे में पुरानी फाईलों की धूल साफ कर उस में इसे रखा जाता है। फिर दूसरी फाईलें डूँढी जाती है जिन में ऐसी ही समस्या आई थी। अगर मिल जाती है तो उसे नीचे रख कर नई फाईल शुरू की जाती है। यह नहीं मिली तो नई समस्या मान कर चलते हैं। और नई फाईल खोली जाती है। सीढ़ी दर सीढ़ी यह फाईल ऊपर की ओर चलती हैं। जब सचिव स्तर पर पहुँच जाती है तो इसे दूसरे विभाग को भेजा जाता है। अब इस फाईल को वहाँ का लिपिक देखता है तथा यह फिर सीढ़ी दर सीढ़ी चढ कर उस सचिव तक आती है। फिर इसे तीसरे विभाग को भेजा जाता है।


इस बीच समस्या के बारे में एक स्मरणपत्र आ जाता है। यह दर्ज हो कर पी यू सी बन जाता है। चूँकि पुरानी फाईल का पता नहीं कि वह कहाँ है, इस कारण नई फाईल बनाई जाती है। वही पहले वाली प्रक्रिया दौहराई जाती हैं। समानान्तर फाईलें चलने से किस में कब क्या कार्रवाई हुई, यह पता करना कठिन है।


इस बीच समय उस समस्या का समाधान कर देता है या वह समस्या गौण हो कर बड़ी समस्या आ जाती है। सभी सम्बन्धित आराम की साँस लेते हैं।


निर्णय लेने का यह तरीका काम न करे तो दूसरी तरकीब लगाई जाती है। कोविड ने सभी को सिखा दिया हो गा कि अगर रसोई में खाना बनाते समय पानी गिर जाये। तो उसे सुखाने का एक मात्र तरीका है, उसे फैला देना। जितना फैलायें गे, उतनी जल्दी सूखे गा। समस्या का समाधान भी इसी प्रकार होता है। निर्णय जब टाला न जा सके या फिर घुमाया न जा सके तो उस पर विचार करने के लिये एक समिति बनाई जाती है। समिति इस पर विचार करती है या विचार करने का मन बनाती है। फिर क्या होता है, यह सभी जानते हैं। बैठकें होती हैं, कार्रवाई विवरण बनाया जाता है। सभी सदस्यों को धुमाया जाता है। आम तौर पर सदस्य अपने आधीन कार्य कर रहे अधिकारियों से इस पर सलाह मश्वरा करता है। कार्रवाई विवरण पी यू सी बन जाता है। यह कार्रवाई सभी सम्बन्धित सदस्यों के यहाँ होती है। कुछ समय बाद फिर समिति की बैठक होती है। और वही बात दौहराई जाती है।


एक बार एक समस्या पर विचार करने के लिये उच्च न्यायालय को कहा गया यानि जाँच आयोग बनाने का निर्णय लिया गया (अर्थात निर्णय को टाला गया)। उन्हों ने स्वीकार कर लिया। पर पहले तो जज महोदय ने अपने लिये निवास स्थान तथा कार्यालय तथा कार्यालय के लिये व्यक्तियों की माँग की। सही माँग थी अतः इन का प्रबन्ध किया गया। एक होस्टल का प्रथम तल उन के लिये ले लिया गया। ए सी वगैरा सब लग गये। पर एक अड़चन आ गई। जज महोदय को सीढ़ी चढ़ने से परहेज़ था। और होस्टल में लिफ्ट थी नहीं। अब क्या करें। पता नहीं क्यों लिफ्ट लगाने के बजाये एक धुमावदार रैम्प बनाया गया। जब सब तैयार हो गया तो जज महोदय ने सूचित किया कि उन की तबियत ठीक नहीं रहती है अतः वह यह काम करने से मजबूर हैं। खैर, तब तक समस्या को लोग भूल चुके थे। जाँच कमीशन की आवश्यकता नहीं रह गई थी। ए सी तो खैर दूसरे भवन में चले गये पर वह रैम्प अभी भी वहीं है।


निर्णय न लेने का एक ओर आज़माया हुआ तथा काफी पसंदीदा तरीका है जानकारी एकत्र करना। जैसा कि पूर्व में भी कहा गया है, जानकारी कभी भी शत प्रतिशत नहीं हो पाती है परन्तु इस तरीके में इसे जानते हुये भी इस का प्रयास किया जाता है। 1980 में भारत के गृह मन्त्रालय में एक संयुक्त सचिव श्री सिंह थे। मंत्री जी का आदेश हुआ कि आदिवासियों के लिये आदर्श योजना बनाई जाये ताकि उन का उत्थान किया जा सके। प्रारम्भिक गणना की गई तो पता चला कि इस में इतनी राशि व्यय हो गी जो प्रद्रह बीस वर्ष के पूरे मंत्रालय के बजट के बराबर हो गी। अतः प्रस्तावित किया गया कि योजना बनाने से पूर्व सर्वेेक्षण किया जाये कि वर्तमान में स्थिति क्या है। सभी आदिवासियों की आवासीय, वित्तीय तथा सामाजिक स्थिति को जानने के लिये कार्यक्रम आरम्भ किया गया। जब तक यह जानकारी (और वह भी अपूर्ण) एकत्र हो पाई, श्री सिंह अपने पॉंच वर्ष पूरे कर अपने राज्य में लौट चुके थे। मन्त्री भी बदल गये थे और इस प्रकार समस्या का समाधान हो गया।


निर्णय न लेने के और भी कई तरीके हैं पर जैसे यैस मिनिस्टर में पूराना मन्त्री नये मन्त्री जिम हाकिन्स से कहता है & "yes i have come to know of dozens of tricks of the civil servant to postpone decisions but hundreds of them are still to be discovered".


गायक मुकेश का एक भजन है जिस का रूपान्तर इस प्रकार है -

निर्णय की गति मैं क्या जानूँ ।

एक टालने की विधि मैं जानूँ ।।

टालना भी तो है अति मुश्किल ।

उस का ढंग भी क्या जानूँ।।

बस समिति बनाना ही जानूँ।

निर्णय की गति मैं क्या जानूँ।।


निर्णय के बारे में कई महापुरुषों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं पर हम केवल एक प्रधान मन्त्री के इस सम्बन्ध में बड़ी गम्भीर बात - ब्रह्म वाक्य - की बात करें गे । उन्हों ने कहा था

^^निर्णय न लेना भी एक निर्णय है**।



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