दिल्ली, प्रदूषण और हम
- kewal sethi
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दिल्ली, प्रदूषण और हम
उस दिन एक सज्जन मिले। बंगलुरु से थे। मैं भी तभी वहॉं से हो कर आया था। बातों बातों में उन्हों ने पूछा कि क्या दिल्ली के प्रदूषण से घबराहट नहीं होती।
मैं ने कहा कि मैं दिल्ली में 1948 से रह रहा हूॅंं। मैं ने कहा कि दिल्ली हमेशा से ऐसी ही थी। मैं ने पचास की दशक का प्रदूषण भी देखा है। वर्ष में तीन चार बार रेतीला तूफान आना सामान्य बात थी। एक बार तो हमारी टीन की छत ही उड़ गई। दो ार छोड़ कर पिछली गली में गिरी। वहॉं से उसे उठा कर वापिस लाये। तूफान की वजह से सब अपने अपने घरों में महफूज़ थे, इस कारण किसी को चोट नहीं लगी।
जब तूफान नहीं था तो राजघाट के पास विद्युत बनाने के लिये पावर हाउस था। उस ज़माने में कोयला ही ईंधन था और पावर हाउस का धुआं सब ओर फैलता था। कारें तो इतनी नहीं थी पर हर घर में कोयले की अंगीठी तो थी।
बदला क्या है। ज्ञान की बौछाड़ और लोगों की मनोवृति। कोयले का स्थान गैस ने ले लिया है। पर कारें और दो पहिया वाहन — साईकल को न गिनें — बेतहाशा हो गई हैं। एक प्रदूषण के स्थान पर दूसरा प्रदूषण आ गया है। रेत का स्थान पराली ने ले लिया है। न हम रेत को रोक सकते थे न ही हम पराली को रोक सकते हैं। जब हमें बढ़ती हुई जन संख्या के लिये खाद्यान्न चाहिये तो एक के स्थान पर दो फसलें तो लेना ही हों गी। एक खरीफ की, दूसरी रबी की। कटाई तथा बवाई में कितने दिन का वक्फा हो सकता है। पहले एक मौसम पूरा बीच में होता था। जो कटाई के बाद खेत में रह जाता था वह अपना समय पा कर खाद में बदल जाता था। पर अब समय नहीं है तो इस जलाने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय का विचार इस पर रोक नहीं लगा सकता। अखबारबाज़ी इस पर असर नहीं डाल सकती। इस के साथ ही रहना हो गा। ट्रकों को दिल्ली में आने से रोक लें ओैर उन के प्रदूषण को झझृझर भेज दें, भवन निर्माण रोक दें पर वायु के प्रवाह को कैसे रोकें गे। वह तो पंजाब से, हरयाणा से आये गी ही। उस पर कानून का शिकंजा नहीं कसा जा सकता।
एक मात्र रास्ता है। अखबारों मे नित्य प्रदूषण के वर्तमान आंकड़े देखते रहें, कुढ़ते रहें और जीवन काटते रहे। समाचार पत्रों के अनुसार हम दिन में दस सिगरेट के बराबर प्रदूषण में सांस लेते हैं पर याद रखें, चर्चिल लगातार सिगार पीता रहा और 89 वर्ष का जीवन पाया। घबरायें नहीं, जीवन का आनन्द लेते रहें, जब तक हैंं।
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