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जापान के दलित तथा उन का उद्धार

जापान के दलित तथा उन का उद्धार


जापान ओर दलित!

सुनने में यह बात अजीब लगती है क्योंकि हमारे मस्तिष्क में यह बात बिठा दी गई है कि भारत ही एक मात्र ऐसा देश है अथवा हिन्दु धर्म ही एक मात्र पंथ जिस में दलित प्रथा है। पर जैसा कि मैं ने अन्यत्र कहा है, किसी न किसी रूप में यह सभी समाजों में, सभी देशों में अपने समय में देखने को मिलती है। पर आज बात हो रही है, जापान की।

जापान में भारत की तरह ही समाज का आबंटन का आरम्भ कार्य विभाजन के आधार पर से किया गया। चीनी सन्त कन्फयूशियस के सिद्धाँत के अनुरूप खाद्य पदाथों को तैयार करने वालों को अर्थात कृष्कों को प्रथम माना गया। उस के बाद शिल्पी थे जो कृष्कों के लिये तथा अन्य के लिये औज़ार इत्यादि तैयार करते थे। तीसरे स्तर पर व्यापारी थे जो निर्माण तो नहीं करते थे किन्तु वितरण की व्यवस्था देखते थे। इन सब के ऊपर शासक वर्ग था जो इन्हें कार्य करने की सुविघा तथा वातावरण सुनिष्चित करता था। लोगों को इन समूहों में बाँटा गया जिसे जापानी में मिबुन कहते हैं।

इन सब के अतिरिक्त कुछ अन्य कार्य भी समाज के लिये आवश्यक होते हैं। इन कार्यों को अपवित्र कार्य माना जाता था। इस के आधार पर एक अलग वर्ग का गठन हुआ। अपवित्र कार्य सामान्यतः मृत्यु - मानव तथा मवेशी - तथा स्वच्छता से सम्बन्धित रहे। विषेशतः जानवरों की मृत्यु तथा उन के चमड़े से बनने वाली वस्तुओ को ले कर अलगाव की भावना ने जन्म लिया। इसी प्रकार की भावना बारहवीं शताब्दि से पश्चिमी योरुप में भी थी। वहाॅं पर भी चमड़े की आवष्यकता तो काफी बढ़ी किन्तु इस में काम करने को प्रतिष्ठा नहीं दी गई। चीन में वे लोग जो कसाई तथा मोची का काम करते थे, को हीन दृष्टि से देखा जाता था। कोरिया में इस से भी अधिक बुरी स्थिति थी। ऐसे लोगों को वहाॅं पेकजांग कहा जाता था जो अलग प्रजाति के माने जाते थे। जापान में शिण्टो काल में इन अपवित्र कार्य में रत लोगों को ही अपवित्र माने जाने लगा। परन्तु उस समय यह प्रावधान था कि व्यक्तियों के लिये इस कार्य को छोड़ कर व्यापारी अथवा कृष्क वर्ग में जा सकते थे।

वर्श 1660 से लगभग ढाई सौ वर्श तक जापान में तोकुगवा शोगुण का शासन रहा। आपसी लड़ाई झगड़े समात होने के पश्चात एक मज़बूत शासन की नींव रखी गई। इस में लोगों के सामूहिकरण को वैधिक रूप दिया गया। इस के पीछे उन को अपना शासन स्थायी बनाने का विचार था। राजनैतिक तथा आर्थिक दृष्टि से चार प्रमुख समूह थे - समुराई, कृष्क, शिल्पी तथा व्यापारी (शिननोकोशु - शिन — समुराई, नो — कृष्क, को - शिल्पी, शु - व्यापारी)। इस के अतिरिक्त समूह था अपवित्र कार्य करने वालों का जिन को कवाता भी कहा जाता था। इन के लिये एक और शब्द एता था जो तिरस्कारपूर्वक प्रयोग में लाया जाता था। समुराई क्षत्रिय की भाँति थे तथा उन का कार्य युद्ध तथा प्रशासन था। कवाता लोग उस धंधे में रत थे जो अन्य नहीं करना चाहते थे जैसे मृत्यु सम्बन्धी कार्य- चण्डाल कह सकते हैं; कसाई, मोची, स्वच्छता का काम इत्यादि। यह सभी पाँचों समूह अनुवंशिक करार दिये गये अर्थात जन्म से ही समूह तय होता था। तोकुगवा काल में इस समूहिकरण को कानून द्वारा बलपूर्वक लागू किया जाता था। इस वर्ग को अब बुराकुमिन (शाब्दिक अर्थ - टोला निवासी) नाम से जाना जाता है। इस के अतिरिक्त एक औपचारिक नाम नवसामान्य नागरिक ;दमू बवउउवदमतेद्ध भी है। इस समूह के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाता था उस के कारण ही इस लेख में उन्हें दलित कहा गया है, ताकि भारतीय परिस्थिति से उस का तालमेल बिठाया जा सके। वास्तव में बुराकमिन वर्ग एक समांगी समूह नहीं था बल्कि अलग अलग समूह थे जिन को सुविधा की दृष्टि से एक मान कर बात की जा रही है।

इस सामाजिक संरचना, जिस में हर समूह कठोर अफसरषाही नियमों से बंध था जिस में उत्पादन, उपभोग तथा परस्पर व्यवहार के नियम थे। यहाॅं तक कि लिबास पहनने के बारे में भी नियम थे। केवल समुराइ्र वर्ग ही तलवार ले कर चल सकता था। इन की मंशा एक स्थिर तथा स्वयं पोषित प्रणाली बनाने की थी जो उन्हें तथा उन के उत्तराधिकारियों को सत्ता में रहने में सहायता करें। इन कठोर नियमों के होते हुए भी लोगों द्वारा अपनी स्थिति सुधारने का प्रयास सदैव किया जाता रहा तथा कभी कभी इस के लिये नियम भी तोड़े गये। इस के लिये सब से अधिक योगदान बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था थी। सिद्धाँत रूप से सभी वर्गों के लिये उन के पेशे निर्धारित थे। इस कारण समुराई व्यापार नहीं कर सकते थे और न कृषि ही कर सकते थे। उन के लिये केवल सैना तथा प्रशासन का मार्ग उपलब्ध था। कई व्यापारी तथा कृष्क काफी धनवान हो गये परन्तु वे राजनैतिक शक्ति से अलग रखे गये। इस स्थिति में असंतोष होना अनिवार्य ही था। सामान्यतः नियमों से पार पाने का एक मार्ग शादी था जिस में समुराई को धन मिल जाता था तथा दूसरे वर्ग के आगे की पीढ़ी ऊपर के वर्ग में पहुॅंच जाती थी।

दलित वर्ग सब से नीचे की पायदान पर थे। उन के लिये कई व्यवसाय, जो दूसरे नहीं करना चाहते थे, आरक्षित थे। कुछ समुराई के निर्देशन में छोटे मोटे प्रशासनिक कार्य करते थे, कई चमड़े का कार्य करते थे, अन्य उन धार्मिक कर्मकाण्ड के लिये थे जो अशुद्ध माने जाते था। पर अधिकतर कृषि कार्य में थे। उन की आर्थिक स्थिति वैसी ही थी जैसी अन्य कृृष्कों की यद्यपि कृष्क ऊपर के संवर्ग में थे। कृष्क दूसरे उच्च वर्ग के लोगों के साथ सामाजिक सम्बन्ध रख सकते थे जिन से क्वाता वर्ग को वंचित रखा जाता था। केवल इस अनुभूति के तहत कि वह अशुद्ध कार्य करते हैं, उन की सामाजिक दशा हीन थी।

यह उल्लेखनीय है कि इन समूहों के आंतरिक प्रबन्धन पर सरकार द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाता था जब तक कि वह दूसरे समूहों के कार्य अथवा हित प्रभावित नहीं करते थे। काण्टो परिक्षेत्र में डानज़मीन नाम का समूह 60,000 लोगों का था तथा अपने अन्दर के काम के लिये उन को स्वायतता प्राप्त थी। यही स्थिति दूसरे परिक्षेत्रों कनसाय इत्यादि में थी।

जापान में 1868 में तोकुगवा शसन का अन्त हुआ तथा मैजी शासन का प्रारम्भ। मैजी शासन के आने के पश्चात स्थिति में अन्तर आया। भारत तथा चीन की स्थिति को देखते हुए उन्हों ने महसूस किया कि राष्ट्र में एकता होना आवश्यक है। प्रथम कार्य जो मैजी शासन ने किया, वह इस वर्गीकरण को समाप्त करने का था। उस ने सभी वर्गों को एक समान मानने का आदेश दिया। सभी व्यवसाय सभी के लिये खोल दिये गये। मैजी सरकार का पूरा ज़ोर आर्थिक तथा सैनिक शक्ति बढ़ाने पर था तथा इस में वह सभी नागरिको का योगदान चाहते थे। दलितों से अपेक्षा थी कि वे इस समानता का प्रतिफल सरकार को मज़बूत कर के दें गे। वे अपनी शिक्षा, उत्पादक कार्य बढायें गे तथा सैना में भर्ती हो कर देश को सुदृढ़ करें गे। मैजी सरकार का पूरा ध्यान नई सभ्यता को अपनाने, अनुशासन तथा राष्ट्रभक्ति पर था तथा इस में सभी वर्गों को योगदान देना था। क्वातावर्ग को नया नाम बुराकुमिन (शाब्दिक अर्थ - टोला निवासी) दिया गया। इस के अतिरिक्त उन्हें नवसामान्य नागरिक भी कहा गया।

पूर्व में शोगुन व्यवस्था में दलित वर्ग को अपवित्र मान कर उन से अलग रहा जाता था जिस का आधार उन के चमड़े के सामान बनाने से सम्बन्धित था। स्थिति इतनी सरल भी नहीं थी क्योंकि क्वाता, जो चमड़े का कारोबार करते थे, में कई धनी व्यक्ति भी थे। उसी अनुपात में उन की शक्ति भी काफी थी। उन्हों ने अपनी रक्षा के लिये निजी अंगरक्षक भी रखे हुए थे। वह इस स्थिति में भी थे कि रेल निर्माण कार्य के लिये श्रमिक प्रदाय कर सकें जिस के बदले में उन्हें उच्च स्तरीय हैसियत दी जाये। नगरीय क्षेत्रों में उन के द्वारा निर्मित माल के कारण व्यापारी वर्ग से सम्बन्ध थे जो सामाजिक रिश्तो में भी बदल रहे थे। कम से कम नगरों में जन्म से अधिक महत्वपूर्ण आर्थिक स्थिति हो रही थी।

मैजी शासन द्वारा वर्गीकरण समाप्त करने से यद्यपि कानूनी रूप से जापान के सभी नागरिक अब बराबर थे तथा जन्म के आधार पर किसी से भेदभाव करना स्वीकार्य नहीं था किन्तु इस से एक दम ही ज़मीनी स्थिति में अन्तर नहीं आया। न तो इस समानता से परिवारिक इतिहास में अन्तर आया न ही भूतकाल की हैसियत में। लोगों में अपने अतीत को भूलना इतना आसान नहीं था। लोग पूर्ववत बटे ही रहे बल्कि इस नई व्यवस्था से कुछ समस्यायें भी उपस्थित हुईं। पूर्व में कई धंधे दलित वर्ग के लिये आरक्षित थे। इन के कारण आपसी व्यवहार होना अनिवार्य था। व्यापार, उत्सवों, धार्मिक अनुष्ठानों, कृषि तथा चौकीदारी में आपसी आदान प्रदान होता ही था। बराबरी के आ जाने से कार्य का आरक्षण भी समाप्त हो गया। पूर्व में सैना के घोड़ों तथा कृष्कों के मवेशियों पर दलित वर्ग का अधिकार समाज को मान्य था। अब यह बात समाप्त हो गई। दलित वर्ग को इन्हें उन के स्वामियों से खरीदना पड़ा। इस से उन की आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ा। उधर समुराई जो अब सैना में भर्ती पाने के एकाधिकार से वंचित हो गये थे तथा जिन की वृति भी समाप्त कर दी गई थी, को वैकल्पिक कार्य तलाश करना पड़ा। वे भी इस चमड़े तथा कृषि इत्यादि के कार्य में आ गये। दलित वर्ग का जो सम्बन्ध उन के तैयार सामान के लिये व्यापारियों से था, उस में भी बाघा आई।

इसी प्रकार की स्थिति चौकीदारी में भी सामने आई। पूर्व में दलित वर्ग को यह कार्य सौंपा गया था। अब मैजी शासन ने आधुनिक काल के अनुरूप पुलिस का कार्य करने का अभियान आरम्भ किया। समुराई, जो अब बेरोज़गार हो गये थे, तथा जिन का आर्थिक स्थिति बिगड़ रही थी, को यह कार्य सौंपा गया ताकि उन में असंतोष को कम किया जा सके। इस का विपरीत प्रभाव दलित वर्ग पर पड़ा। यही स्थिति धार्मिक अनुष्ठानों के बारे में सामने आईं जिन से दलित वर्ग को कुछ सीमा तक वंचित होना पड़ा। परिणाम यह हुआ कि दलित वर्ग पूर्व की अपेक्षा अधिक गरीब हो गये तथा मुख्य धारा में शामिल होने के स्थान पर अन्य वर्गों से अधिक अलग थलग पड़ गये।

ताकुगवा शोगुन काल में यह प्रचारित किया गया था कि वर्गीकरण प्रकृति से ही हुआ है। उस के द्वारा ही कार्य बाँटे गये हैं तथा उस अनुसार ही सब व्यक्तियों का रहना आवश्यक है। मैजी प्रशासन द्वारा इसे समाप्त करने के पष्चात यह अवधारणा कायम रखना सम्भव नहीं था। कानूनी रूप से अब दलित नहीं थे। उन के लिये आरक्षित व्यवसाय, चमड़े तथा मांस इत्यादि का कार्य सब के लिये मुक्त था। ऐसी स्थिति में अलगाव के प़क्षधर का प्रयास रहता है कि पूर्व संरचना को यथावत रखने के लिये तथा युक्तियुक्त प्रमाणित करने के लिये कारण तलाश किये जायें अथवा उन का आविष्कार किया जाये। इन बुद्धिजीवियों के समक्ष चुनौती थी कि पूर्व धारणा को किस प्रकार प्रस्तुत किया जाये। सत्तर तथा अस्सी के दशक में उन के द्वारा कहा गया कि दलितों का यह अलगाव वास्तव में प्रजाति भेद के कारण था। उन का तर्क था कि यह भेदभाव इस कारण चल रहा है कि दलित वर्ग अलग जाति के हैं बल्कि यह सुझाया गया कि वह विदेश से आये हुए हैं तथा असली जापानी कौम के भाग नहीं हैं। प्राकृतिक अन्तर होने के स्थान वह जैविक अन्तर है तथा इस कारण परिवर्तनीय नहीं है। उन का यह तर्क पूरी जापानी कौम को एक विस्तृत परिवार के रूप में देखने की प्रवृति के साथ साथ ही देखने में आई।

यह विचार मैजी शासन की अवधारणाओं के सर्वथा विपरीत था। वह पूरी जापानी कौम को एक देखना चाहते थे ताकि पश्चिमी ताकतों का सामना किया जा सके। उन के विचार में शिक्षण, भोजन, रहन सहन इत्यादि ही निर्णायक तत्व थे न कि प्रकृति अथवा प्रजाति। उन के इस दावे की पुष्टि मानवशास्त्रीय विज्ञान से भी होती है। इस प्रकार के कई अध्ययन जापान में उन्नीसवीं षताब्दि के पूर्वार्द्ध में किये गये।

इस का उत्तर बुद्धिजीवियों द्वारा एक नई अवधारणा के साथ दिया गया। उस समय जापान अपने उपनिवेशवाद के दौर में था। ताईवान तथा कोरिया पर आधिपत्य किया जा चुका था। तर्क किया गया कि वास्तव में वहाँ के निवासी भी जापानी थे तथा यह आधिपत्य उन्हें शेष जापानी कौम के समकक्ष लाने के लिये किये जा रहे थे। इसी में उन्हों ने पूर्व दलित वर्ग को भी शामिल कर लिया कि उन्हें भी अभी शेष जापानियों के बराबर लाया जाना है। उन के अनुसार उत्तर में यह वर्ग आयनु तथा दक्षिण में रियुकुयान प्रजाति के थे। इसी प्रकार होंशु, शिकोकु, तथा क्युशु प्रजातियों के बारे में जापान के अन्य द्वीपों के सम्बन्ध में कहा गया। तर्क था कि उन की शिक्षा, नैतिक मूल्य तथा स्वच्छता के विचार भिन्न थे। उन की देशभक्ति का भी अभी परीक्षण होना था। कुल मिला कर उन्हें शेष जापानियों के समकक्ष आने में समय लगे गा।

इस अवधारणा को ऐत्हासिक रूप से देखना हो गा। तोकुशवा युग में इस अलगाव के लिये कानून का सहारा लिया गया। सामाजिक तथा वैधानिक संस्थाओं का इस्तेमाल इस अवधारणा को पुष्ट करने के लिये किया गया। केवल कानून द्वारा स्वीकृत आदान प्रदान ही सम्भव था। चूँकि यह अन्तर जन्म से आना माना जाता था इस कारण किसी के लिये इसे बदला नहीं जा सकता था। शासकों के लिये जनता केवल जड़ थी। उन के द्वारा सोचने अथवा अपने से कार्य करना न तो उचित था न ही सम्भव। यद्यपि इस का विरोध हुआ तथा इस में परिवर्तन भी हुआ किन्तु मैजी शासन के आने तक कमोबेश यही स्थिति बनी रही।

नये जापानी शासन का प्रयास था कि बुराकुमिन लोग अपनी स्थिति को सुधारने के प्रयास को दिशा दे कर उसे राष्ट्रीय ध्येय प्राप्त करने के लिये इस्तेमाल कर सकते हैं। यह मैजी सरकार का विश्वास था कि सभी नागरिक बराबर थे तथा उन के लिये तीन कर्तव्य थे - शिक्षा प्राप्त करें ताकि देश के लिये वे अधिक उपयोगी हो सकें; अपने श्रम से उपलब्ध राशि का एक भाग कर के रूप में दें ताकि राष्ट्रीय लक्ष्यों को पूरा किया जा सके; तथा सैनिक सेवाओं के लिये सामने आयें ताकि राष्ट्र की रक्षा तथा विस्तार किया जा सके। यह बातें देश के लिये भी लाभकारी थीं तथा व्यक्ति के लिये भी।

परन्तु इस व्यवस्था का बुराकुमिन लागों पर क्या प्रभाव पड़ा, यह देखना है। पूर्व दलित वर्ग अन्य की भाँति शिक्षित नहीं था जिस के कारण उन्हें मुख्य धारा में आने के लिये अधिक प्रयास करना हो गा। यदि वे नहीं आ पाते हैं तो इन में दोष उन्हीं का है। उन्हें और अधिक प्रयास करना चाहिये। प्रश्न यह है कि क्या वे ऐसा बिना किसी अन्य समूह को हटाये कर सकते थे। पर इस में एक दुविधा भी सामने आती है। दलित समूहों को संयुक्त रूप से संगठित करने में उन का तात्पर्य शेष वर्गों से माँग करना भी शामिल है। पर क्या इस माँग के चलते वे मुख्य धारा के अंग माने जा सकते हैं। यदि इस समूह की प्रगति अपने अलगाव के आधार पर कठिन है तथा शासन की सहायता पर निर्भर हैं तो वे मुख्य धारा में कैसे आयें गे। अन्ततः इस अन्दोलन की सफलता कैसे आंकी जाये गी, इस पर विचार भी आवश्यक है।

जापान में मैजी शासन द्वारा सभी नागरिकों को समान घोषित कर दिया गया पर अगले बीस तीस वर्श तक शासन द्वारा उन के सुधार के लिये विशेष प्रयास नहीं किये गये। यह मान लिया गया कि उन पर लगाये गये प्रतिबन्ध हटा दिये गये हैं उन के व्यवसाय परिवर्तन पर कोई रोक नहीं है। अब आगे का काम उन को स्वयं करना है। चूँकि शिक्षा का अभाव उन के पिछड़ेपन का कारण था अतः उन्हें शिक्षा में आगे आना है। उन की आर्थिक स्थिति कमज़ोर है किन्तु इस के लिये उन्हें अपनी आदतों - शराब, जुआ - को बदल कर मितव्ययता की राह अपनानी चाहिये। मैजी शासन की प्रथम गतिविधि शिक्षा को व्यापक बनाने का था। उन का विचार था कि व्यक्ति शिक्षा से ही ऊपर उठ सकता है।

कई समूहों ने ऐसा किया भी। इन में सब से प्रसिद्ध नाम निनोमिया सोनोतुको (1787 - 1856) का था। वे मैजी शासन के आने से थोड़ा पूर्व से सक्रिय थे। उन का प्रचार बुराकिन द्वारा अपनी आदतें बदलने का था। उन का दर्शन था ‘मेरी राय है कि गरीब को अमीर बनाया जाये तथा सम्पन्नता उन को मिले जिन्हें इस की आवश्यकता है’। पर उन का तरीका शिक्षा को बढ़ाने का था, व्यर्थ के व्यय से बचने का था। उन का कहना था ‘‘अपने आशीरवाद के बदले कुछ दो’’। इस जीवन को ही वह आशीरवाद मानते थे। इसी तरीके को मैजी काल में अन्य ने भी अपनाया। कई संगठन इस कार्य के लिये गठित हुए। क्युशु संगठन, कोची संगठन जैसे कई संगठन बने। एक प्रसिद्ध नाम इस काल का यसुमारु योशिनो का था। इसी में दो और नाम किटामुरा डेंज़ाबुरो तथा हसे फुजीश्काजू के हैं

1890 के पष्चात सक्रिय योगदान का आरम्भ हुआ जिस में भौतिक सहायता दी जाने लगी। शासन की ओर से प्रोत्साहन ग्रामों का आदर्श ग्राम घोषित कर दिये जाने की प्रथा आरम्भ की गई जिन्हें ईनाम स्वरूप धनराशि दी जाती थी। एक सा सभी ग्रामों के लिये एक मानक ग्राम सुधार कोड अपनाया गया। इस का प्रचार शासकीय अधिकारियों के माध्यम से किया गया विशेषतया पुलिस के माध्यम से। योशिनो के अभियान का प्रभाव यह हुआ कि 1919 के एक अध्ययन में पाया गया कि हमामत्सु ग्राम के लोगों को आस पास के लोगों से भिन्न नहीं देखा जाता था। 1930 के एक अध्ययन में पाया गया कि लोग भूल चुके थे कि हमामत्सु कभी बुराकुमिन क्षेत्र था। परन्तु यह बात सभी बुराकुमिन क्षेत्रों के लिये सही नहीं थी।

1890 में जापान की विस्तारवादी नीति का आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ा। इस से शासन ने यह समझ लिया कि विपन्नता हटाये बिना समानता तथा प्रगति नहीं आ सकती। इस में विषेश प्रभाव जर्मन सामाजिक नीति संघ का था। 1872 में गठित इस संस्था का मत था कि औद्योगिकरण के साथ श्रमिक वर्ग तथा प्रबन्धन में एक ही लक्ष्य का होना आवष्यक है। इस में कनफयुशि्यस का इस सिद्धाँत का भी समावेश हो जाता है कि शासक को शासित के प्रति हितैषी रहना चाहिये। सोनोतुको के दर्शन के आधार पर 1906 में कई संगठनों का गठन किया गया। संगठनों को सहायता का यह कार्य आगे और बढ़ाया गया यद्यपि यह भी महसूस किया गया कि इस से अलगाव को स्थिरता प्रदान की जा रही है। इन का संतुलन सदैव एक समस्या रही। परन्तु इन बुराकिमुन ग्रामों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने की प्रक्रिया निरन्तर जारी रही।

क्या आज जापानी समाज में यह अलगाव की बात केवल एक स्मृति बन कर रह गई है, यह प्रश्न स्वाभाविक है। इस का उत्तर स्पश्ट रूप से ‘हाँ’ में नहीं दिया जा सकता है। प्रक्रिया चालू है किन्तु इस में समय लगे गा। 1965 में एक संसदीय समिति ने पाया कि पूर्वाग्रह तथा भेद भाव की भावना अभी भी है यद्यपि इस का ज़ोर अब कम पड़ गया है। इस प्रतिवेदन के आधार पर 1969 में ‘विषेश सहायता अध्निियम’ पारित किया गया। इस के अन्तर्गत सत्तर तथा अस्सी की दशक में बुराकुमिन बस्तियों में आधार संरचना के निर्माण तथा पर्यावरण सुधार का अभियान चलाया गया। इस से इन क्षेत्रों में काफी सुधार हुआ है। यह कार्यक्रम वर्श 2002 में समाप्त कर दिया गया है।

दूसरी ओर बुराकुमिन लोगों द्वारा द्रुत गति से मुख्य धारा में लाने के लिये दो प्रकार की संस्थायें काम कर रही हैं। एक संस्थाा है बुराकुमिन कैनो दोमै। इस के प्रचार का तरीका है उग्रवादी ढंग से अपनी बात रखना। दूसरी संस्था है जैनकैरेन जो संवाद को समस्या का समाधान मानती है। पर्यावरण सुधार सम्बन्धी कार्य पूर्व में बुराकुमिन कैनो दोमै द्वारा ही किया जा रहा था। अपने ही सदस्यों का सहायता देने के कारण कुछ लोग इस से अलग हो गये तथा ज़ैनकैरेन की स्थापना की। ज़ैनकैरेन का मत है कि उग्रवादी प्रचार से अलगाव की भावना को बल मिलता है। वास्तव में 2004 में ज़ैनकरेन संस्था ने घोषित किया कि अब समस्या का समाधान हो गया है तथा उस ने अपने को विसर्जित कर दिया तथा नये संगठन जैनकोकु जिनकेन रेन "national confederation of human rights movements in the community" की स्थापना की। अद्यतन जानकारी के अनुसार सम्मिलन की कार्रवाई में प्रगति हो रही है परन्तु इसे पूर्ण नहीं कहा जा सकता।


भारतीय परिस्थिति से समानतायें तथा असमानतायें

यह स्वाभाविक है कि जापान में दलित उद्धार की प्रक्रिया की तुलना भारत के प्रयासों से की जाये। इस संदर्भ में निम्नानुसर बिन्दु सामने आते हैं -

1. भारत में विद्या को विषेश महत्व दिया गया है अतः ब्राह्मण वर्ग बनाया गया। इन्हें विद्या के संरक्षक मानने के साथ मार्गदर्शक के रूप में भी मान्यता दी गई। कृष्क तथा व्यापारी को एक वर्ग माना गया - वैश्य। जापान में समुराई समुदाय को ही शिक्षा का दायित्व दिया गया। भारत में शिल्पी को अलग जाति नहीं माना गया। वे वैश्य के ही भाग रहे। जिन्हें दलित वर्ग का भाग माना गया, उन में भी बहुत से अस्पृश्य नहीं थे।

2. मानव जाति को एक माना गया तथा इन की उत्पत्ति एक ब्रह्म के विभिन्न अंगों से हुई। पूर्व में यह कर्म पर आधारित थी परन्तु बाद में यह जन्म पर आधारित हो गई।

3. 1ृ950 में अस्पृश्यता को संविधान में समाप्त कर दिया गया। सभी नागरिकों को समान घोषित किया गया जिस तरह मैजी शासन में 1872 में किया था।

4. भारत में दलित वर्ग के लिये राजनैतिक संरक्षण संसद तथा विधान मण्डलों में आरक्षित स्थान के माध्यम से दिया गया। जापान में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं की गई। बुराकुमिन द्वारा स्वयं के प्रयास से ही ऊपर उठने की अपेक्षा की गई। बाद में कुछ सहायता दी गई।

5. भारत में व्यक्तियों को अथवा उन की जाति को आर्थिक सहायता के लिये योजनायें आरम्भ की गईं। शैक्षिक संस्थाओं में भी आरक्षण का लाभ दिया गया। जापान में दलित बस्तियों में सुधार के लिये राशि देना 1890 में प्रारम्भ की गई जो अधिकतर आदर्श ग्रामों के लिये इनाम के तौर पर थी अर्थात काम नागरिकों को सवयं करना था। 1969 में ही ग्रामों में आधारभूत सेवाओं को सुदृढ़ करने के लिये अधिक सक्रिय सहायता दी गई।

6. भारत में दलित पर्ग को कभी किसी के द्वारा भी अलग प्रजाति का घोषित करने का प्रयास नहीं किया गया।

7. भारत में अन्य समूहों द्वारा दलित वर्ग के परम्परागत व्यवसायों को अपनाने की प्रक्रिया नहीं रही।

8. मैजी शासकों का एक मात्र ध्येय जापान को एक राष्ट्र बनाना था। भारत बहुसंख्यक अल्पसंख्यक के चक्कर में फंस गया।

9. जापान ने शिक्षा को प्रथम आवश्यकता माना, भारत औद्योगिकरण के चक्रव्यूह में फंस गया।

10. आरम्भ से ही जापानी शासन का मत रहा कि दलितों को अपने बल बूते पर ही आगे बढ़ना है। इस के लिये उसे अपने भीतर की बुराईयों पर विजय पाना हो गी। आरक्षण इत्यादि वाह्य उत्क्रम पक्षपात की आवश्यकता नहीं मानी गई। आरम्भ में वित्तीय सहायता भी नहीं दी गई। भारत में उन्हें विशेष कार्यक्रमों के तहत वित्तीय सहायता दी गई।

11. सुधार के लिये नेतागण, मार्गदर्शक दलित वर्ग के अन्दर से ही आये तथा उन्हों ने अन्दोलन को अपना मार्ग नहीं बनाया वरन् स्वयं के बल पर आगे बढ़ने का प्रयास किया। जो सहायता दी गई, वह भी व्यक्ति के लिये न हो कर पर्यावरण सुधार इत्यादि के संदर्भ में थी। भारत में सुधार कार्य को शासन का दायित्व मान लिया गया।

12. इस प्रक्रिया में समय लगता है। पुरानी सामाजिक व्यवस्था को आदेश मात्र से नहीं समाप्त किया जा सकता)


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