अभाव - सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक
- kewal sethi
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अभाव - सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक
बाज़ारों में माल भरा पड़ा है। ग्राहकों की कमी नहीं हें। कुछ ग्राहक बजार में है, कुछ अपने घरों से ही आदेश दे कर मनचाहा सामान मंगवा रहंे हैं। न खाने पीने की वस्तुओं की कमी है, न ही कपडे लत्ते की। मनोरंजन के लिये चौबीस घण्ट दूर दर्शन आप के पास है और बात करने के फोन, वाटस एप्प अैर न जाने क्या क्या।
फिर भी कुछ रिक्तता सी महसूस होती है। कहीं कुछ कमी है। किसी बात का अभाव है।
दूसरी ओर वे भी हैं जिन के वित्तीय साधन नाकाफी है, खाने के लिये, कपड़े के लिये। वह अपनी तरह के अभाव की स्थिति झेल रहे हैं।
इस लेख में हम इस अभाव के बारे में बात करें गे। यह अभाव शोषण से जुड़ा हुआ है। शोषण का मुख्य कारण ही यह अभाव है जो कभी स्वयंमेव उत्पन्न होता है तो कभी पैदा किया जाता है। दोनों सिक्के के दो पहलू हैं। इस कारण हम शोषण से अपनी बात आरम्भ कर सकते हैं।
राजनीतिक क्षेत्र में आजकल का प्रचलित शब्द शोषण है। मार्क्सवाद तो इसी से आरम्भ होता है कि पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण किया जा रहा है। परन्तु दूसरे राजनीतिक विचार भी इसी बात को ले कर चलते हैं। आज विश्व के अधिकतर देशों में पूॅंजीवाद का ही प्रचलन है। इस में ने केवल श्रमिकों का ही वरन् अन्य नागरिकों का भी शोषण किया जा रहा है। इस लेख में हम इस केे कुछ तरीकों पर चर्चा करें गे।
शोषण का वास्तविक स्वरूप अभाव पैदा कर किया जाता है। इस से सभी प्रभावित होते हैं। अभाव का यह अहसास तीन प्रकार से उत्पन्न किया जा सकता है। एक स्रोत को रोक कर, दूसरे मॉंग को बढ़ा कर, तथा तीसरे कानून एवं सामाजिक प्रचार द्वारा।
यहॉं यह बताना उचित हो गा कि जब हम अभाव की बात करते हैं तो हमारा आश्य केवल भौतिक वस्तुओं के अभाव से नहीं है। उदाहरण के तौर पर शुद्ध वायु का अभाव भी पैदा किया जा सकता है। शुद्ध जल का अभाव भी पैदा किया जा सकता है। मानव के लिये कभी कभी यह भी आवश्यक हो जाता है कि वह प्राकृतिक दृश्यों का आनन्द ले किन्तु उन के अभाव से भी उसे दो चार होना पड़ सकता है। अभाव की इस परिभाषा में हम किसी व्यकित या समूह को किसी कार्य से वंचित रखने को भी शामिल करें गे। इस का आधार यह है कि उक्त कार्य जो वह करना चाहता है, उस का कृत्रिम अभाव पैदा किया जाता है। आगे यह बात और स्पष्ट हो गी। हम इस में इस बात पर भी विचार करें गे कि किसी को अमुक विचारधारा मानने के लिसे विवश किया जाये।
अभाव तथा शोषण के कारण जानने से पूर्व हम इस बात पर विचार करें कि मनुष्य के जीवन का लक्ष्य क्या है। इस में दो राय नहीं हों गी कि संतोष तथा प्रसन्नता का भाव ही प्रधान लक्ष्य हैं। शेष इन के माध्यम हैं और इस के इर्द्र गिर्द ही घूमते हैं। भर पेट भोजन, स्वास्थ्य, रहने के लिये उपयुुक्त स्थान, समाज का साथ ही ऐसी बातें हैं जिन से संतोष प्राप्त होता है। भौतिक वस्तुओ को एकत्र करना भी अपने संतोष एवं प्रसन्नता के स्तर को बढ़ाना है। अपने रीति रिवाज का पालन कर सकना तथा समाज में सम्मान पाने का सार भी यही है।
यहॉं पर इस बात को भी स्पष्ट किया जा सकता है कि यह आवश्यक नहीं है कि जो अभाव पैदा करे, वह ही उस का लाभ ले। अभाव की यह स्थिति कई कारणों से बन सकती है परन्तु इस का लाभ अन्य व्यक्ति उठा सकते है। जल में अवॉंछित तत्व कई कारणों से आ सकते हैं तथा इस के लिये कई लोग दोषी हों गे परन्तु इस का लाभ जल प्रदाय कम्पनियों द्वारा उठाया जाता है जो बोतलों में शुद्ध पानी भर कर बेचते हैं तथा जिन के बारे में नहीं कहा जा सकता कि वह जल को दूषित करते हैं।
अभाव उत्पन्न करने का एक मात्र परिणाम शोषण और दमन है। इस का एक तरीका एकाधिकार उत्पन्न करना है। यदि किसी वस्तु पर किसी एक का एकाधिकार हो गा तो परिणामतः दूसरों के पास इस का अभाव हो गा। यदि एकाधिकार है तो उस वस्तु के इस्तेमाल के लिये दमन तथा प्रताड़ण भी किया जा सकता है। यह स्पष्ट करना उचित हो गा कि कछ प्रकरणो में एकाधिकार के स्थान पर वर्ग विशेष का प्रभुत्व भी हो सकता है जो दूसरे वर्गों के अधिकारों को सीमित करता है अथवा उन को किसी पूर्व कल्पित व्यवहार के लिये मजबूर करता है।
अभाव के अध्ययन में सब से पूर्व हम उस स्थिति को लेते हैं जहॉं अभाव आर्थिक अथवा राजनीतिक कारणों से नहीं होता है। हमारा आश्य धार्मिक तथा सामाजिक स्थिति पर आधारित अभाव से है।
सर्वप्रथम हम धर्म की बात को लेते हैं। इस में एकाधिकार यह कह कर लिया जाता है कि सत्य केवल हमारे पास है। साथ ही इस सत्य का प्रचार करने का तथा इस को सार्वभौमिक बनाने का अधिकार भी हमें दिया गया है। यह अधिकार किस के द्वारा दिया गया है, इस के लिये ईश्वर अथवा उस के पैगम्बर का नाम लिया जाता है। अथवा बाद में उस धर्म के अनुयायी इस का दावा करने लगते हैं भले ही स्वयं पैगम्बर ने ऐसा दावा न किया हो। इस सत्य पर अधिकार का उपयोग वह दूसरे धर्म अथवा बिना धर्म के लोगों पर अपना धर्म लागू करने के लिये मनवाना चाहते हैं। यदि अपने धर्म के गुण बताने से काम नहीं चलता है और मनाने से भी काम नहीं बनता तो तो हिंसा एवं दमन का सहारा लिया जाता है। वास्तव में हिंसा एवं दमन का एकाधिकार के साथ चोली दामन का साथ है। यह केवल धर्म के लिये ही सही नहीं है वरन् दूसरी परिस्थितियों में भी ऐसा ही होता है।
इस बात को और स्पष्ट करना उचित हो गा। सत्य को किसी जाति विशेष अथवा धर्म विशेष का अधिकार मानना ही दूसरे वर्गों के लिये अभाव की स्थिति उत्पन्न करता है। किसी पुस्तक विशेष को सत्य मानना भी दूसरे वर्ग के लिये अभाव की स्थिति उत्पन्न करता है। इसी की परिणिति दमन तथा हिंसा के रूप में होती है। पुराने समय के क्रूसेड इस का विख्यात उदाहरण हैं पर यह उस काल तक ही सीमित नहीं है। बीसवीं शताब्दि में एक धर्म विशेष के लोगों को शोषक ठहरा कर उन्हें गैस चौम्बर में भेजना भी अथवा इकीसवी्ं शताब्दि में स्वयं को शुद्ध मानने वली इस्लामिक संस्था का शिया धर्मावलबियों पर आक्रमण भीं, उसी सत्य पर अपना वर्चस्व बनाये रखने के प्रमाण हैं तथ दूसरों का उन के मत को ही सत्य मानने के लिये प्रताड़ण करना भी इसी का प्रमाण है। धार्मिक सत्यता को अपने तौर पर व्याक्ष्या करने की ज़िद स्वतन्त्र विचार का अभाव पैदा करना ही है।
किसी वर्ग को उस के अधिकारों से वंचित रखना एक प्राचीन प्रथा है। भारत में वर्ण व्यवस्था को इस का विशेष उदाहरण बताया जा सकता है। एक वर्ग को मंदिर इत्यादि में प्रवेश से वंचित कर दिया गया। उन्हें शिक्षा से भी दूर रखा गया। ब्राह्मणों ने स्वयं को धर्म को परिभाषित करने का अधिकार अपने हाथ में ले लिया। जब ब्रह्म से ही सब की उत्पत्ति होती है तो यह अधिकार सब का होना चाहिये। परन्तु एक कृत्रिम अभाव पैदा किया गया। यही बात धार्मिक शिक्षा एवं अन्य शिक्षा के बारे में भी कही गई है।
परन्तु यह बात केवल हिन्दू धर्म पर ही लागू नहीं होती है। फ्रांस में कैथेालिक द्वारा हाफनाट का उत्पीड़न भी इसी वर्ग में आता है। जज़िया लगाया जाना भी इसी भावना का प्रतीक है।
सामाजिक पहलू को लेें तो सब सेे प्रथम स्त्रियों के प्रताड़ण की बात सामने आती है। कहा जाता है कि उन में शक्ति तथा बल का अभाव है। इस के आधार पर पक्षपाती रवैया अपनाया जाता है। एकाधिकार का यह दावा पुरुषों द्वारा स्त्रियों को कई बातों में वंचित रखना है। यह बात सभी काल में तथा सभी देशों में लागू होेती है। इब्राहिमिक धर्मों के अनुसार ईव को आदम की पसली से बनाया गया था तथा वह इस स्थिति में उस के आधीन है। दूसरे मनुष्य के पतन का कारण ईव द्वारा निषेदित फल का खाना था जो प्रथम पाप था तथा जिस का परिणाम उस समय से सभी भुगत रहे हैं। महिलाओं को चुड़ैल अथवा डायन ठहरा कर उन को मृत्युदण्ड का आदेश देना काफी समय तक प्रचलित रहा। एक धर्म विषेष में स्त्रियों को सदैव पर्दे में रहने का आदेश देने वाला धर्म भी उन्हें समस्त सामाजिक भागीदारी से वंचित रखने का उत्तरदायी है। दो महिलाओं का साक्ष्य एक पुरुष के साक्ष्य के तुल्य माना गया। युरोप के लगभग सभी देशों में महिलाओं द्वारा सम्पत्ति धारण करना वर्जित था। चीन में यिन तथा यांग के आधार पर पुरुषों तथा महिलाओं में भेद किया जाता है। महिलायें यिन प्रधान हैं अतः वह पालन पोषण के लिये ही उपयुक्त हैं। पुरुष यांग प्रधान है अतः सक्रिय हैं। उन का दायित्व अधिक है अतः महिलाओं को घरू कार्य ही देखना चाहिये। ऐसी ही धारणा अन्य देशों में भी पाई जाती है। चीन के सम्भ्रान्त वर्ग में महिलाओं के पैर को छोटा रखने का रिवाज था तथा इस के लिये उस के पैर लोहे के जूते में रखे जाते थे। इन धारणओं के कारण महिलाओं को वह अधिकार नहीं थे जो पुरुषों को प्राप्त थे। उन्हें घर से बाहर के कार्य से वंचित किया जाता है। उन के लिये सामान्य जीवन का अभाव ही रहता है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। सभ्यता का आरम्भ परिवार से ही हुआ था। परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ने से उसे और दृढता मिलती थी। एक दूसरे के सहयोगी रह कर संयुक्त परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण ईकाई थी। परन्तु वर्तमान में नई विधि जो कि व्यापक परिवर्तनों में एक नई विधा संयुक्त परिवारों के टूटने की है। इस के लिये बड़ी हद तक व्यापारिक जगत का स्वार्थ ही उत्तरदायी है। जब एकल परिवार हों गे तो उन्हें अलग अलग उपकरण चाहिये हों गें। संयुक्त परिवार में उन की संख्या कम हो गी, इस कारण एकल परिवारों को आर्थिक जगत अधिक उपयुक्त मानता है तथा इस के लिये प्रचार माध्यम से परोक्ष प्रयास भी करता है। एकल परिवार के लिये यह भी आवश्यक हो जाता है कि महिलाये भी सेवा क्षेत्र में आयें।। इस से व्यापार जगत को लाभ होता है क्योंकि अधिक आय होने से व्यय भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है।
कृत्रिम अभाव पैदा करने में कपड़ों की बड़ी भूमिका है। प्रकृति के स्वरूप के कारण गर्मी तथा सरदी से बचने के लिये कपड़े चाहिये किन्तु यह स्थान विशेष पर निर्भर करता है कि किस प्रकार के कपड़े पहने जाये। अफ्रीका में कई कबीलों में कपड़े पहनने का रिवाज नहीं था। जानवरों की खाल, पेड़ के पŸाों इत्यादि ही उन का पहनावा था। जब विदेश के लोग उपनिवेष स्थापित करने आये तो उन्हों ने इन के लिये कपड़े पहनना अनिवार्य कर दिया नहीं तो उन्हें असभ्य, गंवार, जंगली कहना आरम्भ किया। प्रगति की परिभाषा कपड़ों से की जाने लगी। कपड़े उन की आवश्यकता नहीं थे पर बाहर के लोगों के लिये यह आवश्यक था। इस प्रकार एक अभाव की स्थिति पैदा की गई कि जिन के पास कपड़े नहीं हैं, उन के पास होना चाहिये। इस के लिये बाकायदा एक मनोवैज्ञानिक मुहिम चलाई गई।
यह अभाव की स्थिति केवल ऐसे कबीलों के लिये हो, यह भी आवश्यक नहीं है। वैसी ही मनोवैज्ञानिक मुहीम चला कर तथाकथित सभ्य समाज में भी कपड़ों के लिये अभाव की स्थिति निर्मित की गई। इसे फैशन का नाम दिया गया। एक विशेष प्रकार का पहनावा ही प्रगति का चिन्ह बनाया गया। और इस में कोई सीमा भी नहीं है। कपड़ों का डिज़ाईन बदलता रहा और प्रचारतन्त्र के माध्यम से लोगों को आश्वस्त किया गया कि यह नये डिज़ाईन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हैं। मनुष्य में सदैव दूसरों से अपनी तुलना करने की प्रवृति रही है। इसी का लाभ कपड़ों का रूप बदलने वालों को मिलता है। जिस के पास उस प्रकार के कपड़े नहीं हैं, उन्हें इन का अभाव महसूस होता है। उपरोक्त बात वर्तमान काल में मोबाईल फोन के निये भी लागू होती है।
कपड़ों की तरह खाने में भी इसी प्रकार का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाता है। श्रम बचाने के नाम पर तैयार खाने का प्रचार किया जाता है। एकल परिवार होने से तथा दोनों के रोज़गार ले लगे होने के कारण इस की सम्भववना बढ़ जाती है। पर उस से अधिक यह फैशन की बात हो जाती है तथा युवाओं में अधिक प्रचलित है। घर के खाने से अभाव से कई प्रकार के दोष भी आ जाते हैं किन्तु रिवाज के कारण इन को अनदेखा किया जाता है।
जैसा कि हम ने पूर्व में कहा, मनुष्य का मूल लक्ष्य संतोष एवं प्रसन्नता है, चाहे वह भौतिक वस्तुओं को प्राप्त कर मिले अथवा अपने को महत्वपूर्ण ठहराने से। इस में आराम के क्षण होना भी शामिल किया जा सकता है। इन आराम के क्षणों में प्रकृति का आनन्द लेना भी एक लक्ष्य हो सकता है। आज के युग में ऐसे प्राकृतिक स्थानों का भी अभाव पैदा किया जा रहा है। उद्योग को बढ़ाने के लिये, खनिज पदार्थ की प्रा्प्ति के लिये इन की कमी होती जा रही है। इसी बढ़ते हुये उद्योग के कारण वायु प्रदूषण तथा जल प्रदुषण की समस्या भी सामने आती है। एक तरह से देखा जाये तो केवल उद्योग को ही वायु प्रदूषण तथा जल प्रदूषण का दोषी नहीं माना जा सकता। बढ़ती हुई जनसंख्या तथा उस की आदतों के कारण भी ऐसा हो सकता है।
प्रकृति का आनन्द लेना हो अथवा उपलब्ध वस्तुओ का आनन्द लेना हो, इस के लिये शॉंतिपूर्ण स्थिति होना आवश्यक है। सुरक्षित होने की भावना प्रधान आवश्यकता बन जाती है। यदि मौहल्ले में कोई गुट अशॉंति फैलाता है और जान एवं सम्पत्ति सुरक्षित नहीं है तो संतोष की भावना नहीं रहती। इस के लिये सुरक्षा का बन्दोबस्त करना पड़ता है। आम तौर पर समाज के लिये यह कार्य सरकार द्वारा ही किया जाता है। पुलिस के कारण सुरक्षा तो रहती है किन्तु इस के लिये कीमत भी देना पड़ती है क्योंकि कोई भी वस्तु निशुल्क नहीं मिलती है।
जब राज्य सुरक्षा प्रदान करता है तो कराधान अनिवार्य हो जाता है। क्योंकि सुरक्षा पूरे समाज के लिये होती है। राज्य द्वारा व्यक्तिगत सुरक्षा प्रदान करना सम्भव नहीं है। इस कारण कर सभी नागरिकों को देना पड़ता है। इन करों से बचने का प्रयास स्वीकार्य नहीं है। अतः राज्य द्वारा ऐसे प्रावधान किये जाते हैं कि कर न देने वालों के विरुद्ध कार्रवाई की जा सके। परन्तु इस में विकार की सम्भावना भी रहती है। यह जब तक कराधान जनता के हित को ध्यान में रख कर किया जाता है, तब तक वह सहनशील होता है। पर इस की सीमा है। उस से अधिक प्राप्त करना भी एक प्रकार से दमन का ही रूप है। कभी कभी राज्य द्वारा ऐसी स्थिति बनाई जाती है जिस में वाह्य शत्रुओं का डर दिखा जा कर करों को कठोर बनाया जाता है। कई बार ऐसे खतरे काल्पनिक ही होते हैं परन्तु आम नागरिक इस के बारे में कुछ कर नहीं पाता है। कराधान बढ़ाने का एक अन्य कारण शासक वर्ग का ठाठ बाठ तथा लालच भी हो सकता है। कठिनाई यह है कि किसी क्रूर शासक को हटाना भी कठिन होता है क्येंकि वह ही सुरक्षा तन्त्र को नियन्त्रित करता है। स्वतन्त्र विचार का अभाव सब से अधिक खतरनाक अभाव है।
इस प्रकार अभावों के कई्र स्वरूप हैं जिन से समाज को दो चार होना पड़ता है। इस लेख में हम ने दमन, प्रताड़ण एवं हिंसा सम्बन्धी अभाव पैदा करने की धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक स्थितियों का अध्ययन किया। अगले किसी लेख में हम शोषण सम्बन्धी दूसरे अभावों की स्थिति का अध्ययन करें गे। इन के समाधान के बारे में भी चर्चा करना आवश्यक हो गा।
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