top of page
  • kewal sethi

लंगड़ का मरना

लंगड़ का मरना


(श्री लाल शुक्ल ने एक उपन्यास लिखा था -राग दरबारी। इस में एक पात्र था लंगड़। एक गरीब किसान जिस ने तहसील कार्यालय में नकल का आवेदन लगाया था। रिश्वत न देने के कारण नकल नहीं मिली, बस पेशियाँ भर मिलीं। बीमार होने से एक पेशी पर वह नहीं आया तो आवेदन खारिज हो गया। तब उस ने फिर से आवेदन लगाने की सोची।


इस उपन्यास पर बने दूरदर्शन सीरियल में लंगड़ की नियति बदल दी गई। सीरियल में आवेदनपत्र खारिज होने के बाद उस का मरना दिखाया गया है। इस बात ने इतना उदास किया कि यह कविता बन गई।)


आज लंगड़ मर गया

श्री लाल शुक्ल ने था जब लिखा

लंगड़ तब तो था नहीं मरा

आशा निराशा के बीच झूलता

वह एक टाँग पर भी रहा खड़ा

उस ने है न्याय का पक्ष लिया

उस को नकल कैसे न मिले गी भला

मन में तब भी था उस के विश्वास

कितना भी सता ले चाहे समाज

हर रात का कभी तो होता है प्रभात

हो गा आखिर उस का सपना साकार

स्वराज्य है हमारा जन्मसिद्ध अधिकार

यह बात थी उस के लिये निस्सार

नकल पाने पर ही टिका था उस का संसार

उस के बिना सारा जीवन था बेकार


लंगड़ के सहारे ही था समाज खड़ा

मन में सदैव वह यही था सोचता

चाहे रास्ता हो कितना भी कष्ट भरा

मंज़िल पर लेकिन पहुँचाये गा नाखुदा


पर आज लंगड़ मर गया

तहसील की दीवार से सर टिकाये

मन में नकल की आस लगाये

न्याय की खोज में समाज से टकराये

भूख प्यास से अपनी होड़ लगाये

वह कूच आज कर गया

आज लंगड़ मर गया


किस लेखक ने यों बदल दिया संवाद

क्यों समाप्त कर दिया उस ने यह ख्वाब

समय क्या इतना बदल गया आज

मंज़िल तक पहुँचने का भी नहीं विश्वास

क्या घड़ा पाप से है भर गया

आज लंगड़ मर गया


जब व्यवस्था से हटने लगे ध्यान

जब सिर्फ मौत ही रह जाये समाधान

जब सारे रास्ते जाते हों शमशान

फिर कैसे जिये गा यह हिन्दुस्तान

सवाल यह उजागर कर गया

आज लंगड़ मर गया


(भोपाल 5.9.86)

13 views

Recent Posts

See All

पश्चाताप

पश्चाताप चाह नहीं घूस लेने की पर कोई दे जाये तो क्या करूॅं बताओं घर आई लक्ष्मी का निरादर भी किस तरह करूॅं नहीं है मन में मेरे खोट क्यूॅंकर तुम्हें मैं समझाऊॅं पर कुछ हाथ आ जाये तो फिर कैसे बदला चकाऊॅं

प्रजातन्त्र की यात्रा

प्रजातन्त्र की यात्रा यात्रा ही है नाम जीवन का हर जन के साथ है चलना विराम कहॉं है जीवन में हर क्षण नई स्थिति में बदलना प्रजातन्त्र भी नहीं रहा अछूता परिवर्तन के चक्कर मे आईये देखें इस के रूप अनेकों सम

नई यात्रा

नई यात्रा फिर आई यात्रा एक, यात्रा से कब वह डरता था। लोक प्रसिद्धी की खातिर वह पैदल भी चलता था। तभी तलंगाना से बस मंगा कर यात्रा करता था एलीवेटर लगा कर बस में वह छत पर चढ़ता था ऊपर ऊपर से ही वह जनता के

bottom of page