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धर्म चर्चा

  • kewal sethi
  • Jun 29, 2020
  • 2 min read

धर्म चर्चा

ईशावास्योपनिषद का पांचवां श्लोक इस प्रकार है -

तदेजति तन्नैवति तद दूरे तद्वनितके।

तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य वाह्यत:।।

वे चलते हैं, वे नहीं चलते, वे दूर से भी दूर हैं। वह परम समीप हैं। वे इस समस्त जगत के भीतर परिपूर्ण हैं। वे इस समस्त जगत के बाहर भी हैं।

ब्रह्रा की यही विशेषता है कि वह किसी संसारिक बंधन में नहीं है। जो बात सामान्य जीव के लिये लागू होती है वह ब्रह्रा के लिये भी हो गी, यह मानना गल्त है। जिस को हमारी इनिद्रयां जान नहीं सकतीं, उस को शब्दों में और हमारे सामान्य अनुभव में कैसे बांधा जा सकता है। जो हमें एक दूसरे के विपरीत गुण लगते हैं वह उस में एक ही समय में विधमान हैं।

यह सत्य केवल ब्रह्रा पर ही लागू नहीं होता। हमारे इस संसारिक जगत के बारे में भी राबर्ट ओपनहाईमर ने कहा है -


If we ask, for instance, whether the position of the electron remains the same, we must say 'no'; if we ask whether the electron's position changes with time, we must say 'no'; if we ask whether the electron is at rest, we must say 'no'; if we ask whether it is in motion, we must say 'no'. (Science and the Common Understanding - page 42)


इस तरह एलैक्ट्र्रोन के गुण भी सामान्य भौतिक अनुभव के विपरीत हैं। उस का कोई निशिचत स्थान नहीं बताया जा सकता है। केवल इस बात की सम्भावना के बारे में ही कहा जा सका है कि वह अमुक क्षेत्र में हो गा। और यह भी उस प्रयेाग के करने वाले से प्रभावित हो सकता है। रैलिटिविटी - सापेक्षता - के सिद्धांत के अनुसार समय और स्थान का नाप केवल relativety सापेक्ष हैं। वह केवल किसी दूसरे स्थान या समय या प्रयोग करने वाले की सिथति पर निर्भर हैं। यदि प्रयोग करने वाला गतिशील हे तो उस के लिये समय भी बदल जाये गा और स्थान भी।

बौद्ध दार्शनिक अश्वघोष ने कहा है - ''यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि स्थान केवल किसी पदार्थ का वर्णन करने के लिये ही है। इस का कोई अपना आस्तित्व नहीं है। स्थान केवल हमारे अन्त:करण को परिभाषित करने के लिये ही है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि कई स्थानों पर नाभिकीय विज्ञान तथा भारतीय दर्शन एक समान परिणामों पर पहुंचते हैं।





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