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धार्मिक एकता

धार्मिक एकता

हिन्दू मुस्लिम एकता की बात भारत वर्ष में काफी पुरानी है। जब से मुसलमानों ने भारत में बसने की सोची, तब से ही इस बात का प्रयास किया जा रहा है कि दोनों धर्मो के अच्छे विचार ले कर एक मिली जुली संस्कॄति तैयार की जाये। संत कवियों तथा अन्य प्रचारकों ने इस बात का प्रयास किया कि दोनों पक्षों में वैमन्यस्ता को समाप्त किया जाये। इस सिलसिले में सब से अलग प्रयास अकबर का था जिस ने दीन इलाही मत शुरू करने का प्रयास किया। पर उस में कोई सफलता नहीं मिल पाई। दूसरे लोगों के प्रयास भी सफल नहीं हो पाये। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान भी इस बात पर ज़ोर दिया गया कि दोनों पक्ष मिल कर चलें किन्तु परिणाम कुछ अच्छे नहीं रहे और देश का विभाजन भी हो गया। इस के बाद भी समस्या जूँ की तूँ है। आखिर क्या कारण है कि इस में सफलता नहीं मिल पा रही है।

इस हिन्दू मुस्लिम एकता की असफलता के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण जीवन के प्रति भिन्न भिन्न दृषिटकोण हैं। इस को समझने के लिये भारतीय धर्मों की विशेषता का अध्ययन करना हो गा। मूल रूप से हिन्दू या सनातन धर्म की मान्यता है कि हर घटना का कोई कारण होता है तथा हर कर्म का फल अवश्य मिलता है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है जिसे किसी भी प्रयेाग द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। हिन्दू घर्म में माना गया कि कर्मफल अवश्यंभावी है। इस में बाद की कोई घटना उस फल को टाल नहीं सकती है। बाद के पुण्य पहले के पाप का नाश नहीं कर देते। भागवत पुराण में आता है कि युघिष्ठर ने द्रोणाचार्य के पुत्र के बारे में जो झूट बोला था, उस के कारण उसे एक क्षण के लिये नरक में रहना पड़ा था। उस के सत्य के प्रति आजीवन निष्ठा ने उस के उस एक झूट का प्रभाव समाप्त नहीं किया।

इस सिद्धाँत का प्रतिपादन मनुष्य को सही रास्ते पर चलने की प्ररेणा देने के लिये किया गया। हर एक को शुभ कर्म ही करना चाहिये। हर एक को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। उस के कर्तव्य उस के अपने प्रति, माता पिता के प्रति, समाज के प्रति तथा प्रकृति के प्रति थे। विद्या अर्जन, संतति प्राप्ति, धन प्राप्ति और दूसरों का आदर, सत्कार एवं सब को सहायता प्रदान करना मुख्य लक्ष्य थे। अर्थ (धन), काम (आनन्द), धर्म (दूसरो के प्रति व्यवहार) इस के मुख्य अंग थे। धन कमायें पर संग्रह के लिये नहीं भोग के लिये, आनन्द के लिये। आनन्द करें पर धर्म के अनुसार, धर्म के विपरीत नहीं। यह मूल संदेश था जो आरम्भ से ही दिया गया।

इसी कर्मफल सिद्धाँत की अक्षुणता बनाये रखने के लिये पुनर्जन्म की बात की गई। देखने में आता है कि कुछ लोग जन्म से ही भाग्यवान होते हैं। कुछ जो हमेशा पाप में लिप्त रहते हैं, उन्हें उन के दुष्कर्मो का फल मिलता दिखाई नहीं देता है। कर्मफल सिद्धाँत का उल्लंधन न हो इस के लिये पुनर्जन्म में उन को दण्ड मिलने की बात सोची गई है। पर पुनर्जन्म किस का। शरीर का तो नाश अपने सामने ही हो जाता है। इसी लिये अगले चरण के रूप में आत्मा की कल्पना की गई है। वैसे भी जीवित मनुष्य और मृत देह के बीच अन्तर को समझने के लिये किसी ऐसी वस्तु की कल्पना तो करना ही हो गी जो मुत्यु पर शरीर छोड़ कर चली जाती है। इस लिये सभी धर्मो ने आत्मा के आस्तित्व को स्वीकार किया है। हिन्दू धर्म में इस आत्मा को जन्मों के बीच की कड़ी माना गया है। यह ही पाप पुण्य की भोक्ता है। और इस के लिये शरीर धारण करती है। पर शरीर केवल मनुष्य का ही क्यों हो। इसी कारण योनियों की बात की गई। किसी भी योनी में जन्म हो सकता है। पर मनुष्य शेष प्राणियों से अलग है क्योंकि यह भविष्य के लिये सुधार का प्रयास कर सकता है।

हर घटना का कोई प्रयोजन होता है, यह हिन्दु विचारकों का निशिचत मत है। यदि आत्मा का सृजन हुआ है तो इस का भी कोई प्रयोजन होना चाहिये। आत्मा के सामने भी कोई लक्ष्य होना चाहिये। सृजन के साथ ही विघटन की बात भी जुड़ी है। आत्मा का सृजन पाप पुण्य के भोक्ता के रूप में हैं तो अन्तत: इस का कोई अन्त भी होना चाहिये। कर्मफल का चक्कर समाप्त होना चाहिये। इसे ही मोक्ष के नाम से जाना गया। यही आत्मा का लक्ष्य है। इसी के साथ एक मुख्य अंग के रूप में मोक्ष को भी जोड़ा गया। अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष यह चार अंग हैं जिन के लिये जीवन के चार चरणों की कल्पना की गई।

पर आत्मा जब इस मोक्ष की स्थिति को प्राप्त होती है तो क्या होता है। वह समाप्त नहीं हो सकती है क्योंकि परिभाषा से ही वह संसारिक रूप से नष्ट नहीं हो सकती। उस के स्वतन्त्र आस्तित्व का भी कोई प्रयोजन नहीं है। अत: उस के किसी नित्य वस्तु में विलीन होना ही तर्क के रूप से अनिवार्य माना गया। इस के लिये ब्रह्रा की कल्पना की गई। आत्मा अपनी यात्रा के पश्चात इस में ही विलीन हो जाती है। यह ब्रह्रा नित्य है क्योंकि आत्मा का आधार नित्य ही होना चाहिये। जो वस्तु स्वयं नष्ट हो जाये या समाप्त हो जाये वह आधार नहीं हो सकती। अत: ब्रह्रा ही स्थायी है। सब का आधार है।

इस प्रकार एक सिद्धाँत अपनाने से पूरी कड़ी तैयार हो जाती है। इस सिद्धाँत को मान लिया जाये तो शेष बातें गौण हैं। किस देवता की पूजा की जाती है, कैसे की जाती है, कब की जाती है, की जाती है या नहीं, यह संस्कार की बात है। क्या खाया जाता है, क्या पिया जाता है, क्या पहना जाता है, यह जलवायु पर तथा उपलब्धता पर निर्भर है। आपस में कैसे व्यवहार किया जाता है, सामाजिक दायित्व क्या हैं, यह सामाजिक नियमों पर निर्भर है। यह बाते स्थायी नहीं हैं। समय तथा परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं।

भारत में कई दर्शन हुए पर उन में सहआस्तित्व रहा। बुद्ध लम्बे समय तक अपने मत का प्रचार करते रहे पर उन को कभी किसी उत्पीड़़न का सामना नहीं करना पड़ा। जैन मत ने भी इसी सिद्धाँत को अपनाया। प्रत्येक नये विचार का स्वागत हुआ क्योंकि वह मौलिक सिद्धाँतों के विरुद्ध नहीं जाता था। ब्राह्राणवाद ने प्रतिवाद किया पर वह सीमा के भीतर रहा। उस ने उग्र रूप धारण नहीं किया। समय पा कर उस ने फिर अपने को स्थापित कर लिया। कुछ बड़े कुछ छोटे संशोधन के साथ कई बार पुराने मत फिर से अपने को स्थापित करने में सफल हो गये। इसी लम्बी प्रकिया का परिणाम है कि सनातन धर्म में सहिष्णुता तथा सह आस्तित्व एक सहज अंग बन गये जिसे हिन्दू धर्म से अलग नहीं किया जा सकता।

यह स्वभाविक है कि हर बात का उदय और क्षय होता है। हर रिवाज का भी ऐसा ही क्रम होता है। धीरे धीरे हर रीति रिवाज में कुछ विकृतियाँ आ जाती हैं। जीवन्त समूह के लिये यह आवश्यक है कि इस में सुधार की गुँजाईश रखे। उसे अन्य लोगों की आलोचना के लिये भी तैयार रहना चाहिये। भारतीय धर्मो में सदैव इस बात का प्रयास किया गया है कि इस सिद्धाँत के अनुरूप कारवाई की जाये। इसी कारण बुराईयों को दूर करने के लिये समय समय पर सुधार अभियान होते रहे तथा आम लोगों ने इसे सहजता से स्वीकार किया। कुछ निहित स्वार्थो ने इस का विरोध किया किन्तु वह एक सीमा से आगे नहीं जा सके। इस आलोचना के कारण हर मत में विकास हुआ और परिवर्तन भी हुआ। उन में कुछ पुराने मत पर दृढ़ रहे तो कुछ आगे बढ़ गये या अलग रास्ते पर चल पड़े। पर चूँकि मौलिक सिद्धाँतों में परिवर्तन नहीं आया अत: उन में विचार भिन्न भिन्न होते हुए भी एकता रही।

इस सिद्धाँत को ठीक से समझनने के लिये इस के विपरीत दूसरे सिद्धाँत पर भी दृष्टि डालना सार्थक हो गा। पाश्चात्य धर्मो में, जिन का उदय इसराईल और अरब में हुआ, में मूल कल्पना यह है कि रचियता द्वारा संसार की स्थापना की गई। चूँकि हर स्थापना का कोई प्रयोजन होना चाहिये अत: यह माना गया कि यह मनुष्य के लिये स्थापित किया गया। शेष प्राणी उस की सुविधा के लिये बनाये गये। पर फिर मनुष्य का भी कोई प्रयोजन होना चाहिये। उस के लिये यह कहा गया कि मनुष्य को रचियता की महिमामण्डन के लिये भेजा गया है। यह महिमामण्डन कैसे किया जा सकता है। इस के लिये रचियता की सार्वभैमिकता के प्रचार तथा प्रसार की आवश्यकता है।

वास्तव में इस सिद्धाँत में रचियता को एक परम शासक के रूप में देखा गया है। हर शासक का कोई न कोई विरोधी भी होना चाहिये। इसी कारण शैतान को विरोधी के रूप में निरूपित किया गया। संसार को उस के विरुद्ध निरन्तर चल रहे संग्राम के रूप में देखा गया। हर शासक के लिये यह आवश्यक है कि वह अपनी प्रजा के लिये नियम बनाये। यह नियम जीवन के हर पहलु के लिये हैं। उन का पालन अनिवार्य है। इन नियमों को बताने के लिये ईश्वर ने समय समय पर अपने दूत भेजे। अपने समय पर वह प्रकट हुए और उन्हों ने रचियता के आदेशों से शेष मनुष्यों को अवगत कराया। यह आवश्यक है कि रचियता के साथ उस के दूतों को भी मान्यता दी जाये।

इस सिद्धाँत में कृपा पर विशेष बल दिया गया है। रचियता द्वारा कृपापूर्वक मनुष्य को बनाया गया तथा उसे सभी प्राणियों तथा फ़रिश्तों में अग्रणी स्थान दिया गया। रचियता ने कृपावन्त हो कर अपने दूत भेजे। उस की कृपा न रहने पर विपत्तियाँ आती हैं। उस की कृपा से आई विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं। उस की कृपा पाने के लिये उस के बनाये नियमों का पालन करना आवश्यक है। उस की कृपा से सभी पाप समाप्त हो जाते हैं।

शासक के लिये यह भी आवश्यक है कि वह अपने राज्य में दण्ड तथा इनाम का प्रावधान करे। कहा गया कि रचियता के आदेशों का पालन करने वालों को इनाम में स्वर्ग दिया जाये गा। पर जो इस से विमुख हों गे उन के लिये दण्ड की व्यवस्था भी है। उन्हें नरक में जाना हो गा। स्पष्ट है कि इस में जो उस रचियता को परम शासक नहीं मानते या उस के दूत पर विश्वास नहीं करते, वह भी आ जायें गे और जो उस के बनाये नियमों को नहीं मानते वह भी।

शासक का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने साम्राज्य को निरन्तर बढ़ाये। इसी कारण इन धर्मो में प्रचार प्रसार को महत्व दिया गया।

पश्चिम के सभी धर्म इस सिद्धाँत का पालन करते हैं। उन में विभिन्न बातों पर कम अधिक महत्व दिया गया है पर वस्तुत: उन का आधार यही है। रचियता के निदेर्शो को बदलने का जनता को कोई हक नहीं होता है। उन में विकास की कोई गुँजाईश नहीं है। उसे अंतिम रूप में पूरे संसार का शासक बनाना अनिवार्य दायित्व है। शेष मनुष्यों को इस के बारे में अवगत कराना तथा उन्हें सही मार्ग दिखा कर उन का उद्धार करना आवश्यक है। इस के लिये अपनाये गये रास्ते अलग अलग हैं। कहीं हिंसा को उचित ठहराया गया है, कहीं केवल प्रवचन को। पर लक्ष्य वही है।

जैसा कि हम ने पूर्व में कहा है कि हर धर्म, सिद्धाँत तथा रीति रिवाज मे समय के साथ विकृतियाँ आ जाती हैं। इस कारण आगे चल कर कुछ मतों में विभाजन की नौबत भी आई। यह स्वभाविक था कि इन परिवर्तनों का विरोध किया जाये। यह विरोध उग्र रूप में प्रकट हुआ क्योंकि विरोध को दूत के तथा इस कारण रचियता में अविश्वास माना गया। जहाँ सम्भव हुआ, ऐसे विरोध को कुचल दिया गया। पर कहीं कहीं यह विभाजन कुचला नहीं जा सका और दो मत माने जाने लगे। पर दोनों अंगों में मूल सिद्धाँतों के प्रति वही आस्था रही। पर जहाँ पर विभाजन नहीं जम पाया वहाँ उस मत का और भी उग्र रूप सामने आया।

इस से पूर्व तथा पशिचम के दो विपरीत मतों में मूल अन्तर का पता चलता है। इन दोनों विचार धाराओं में जो एकता की बात करते हैं वह सही परिपेक्ष्य में इस बात को नहीं देख पाये हैं। दोनों में सह आस्तित्व बनाये रखा जा सकता है पर वह एक नहीं हो सकते हैं। नदी के दो किनारों को एक नहीं किया जा सकता है। यह सत्य है कि भारत में किसी एक मत को समाप्त करने की कल्पना नहीं की जा सकती। और करने की आवश्यकता भी नहीं है। मार्ग अलग अलग हो सकते हैं। पर दोनों पक्ष अपनी सीमा मे रहें, इस की व्यवस्था करना आवश्यक है। उन में सामान्य स्थिति बनाये रखने के लिये वाह्य नियन्त्रण की आवश्यकता है। सहआस्तित्व बनाये रखने के लिये राज्य को प्रयास करना होगा। यदि इसे स्थायीत्व देना है तो यह प्रावधान करना होगा कि कोई धर्म विस्तार की नीति न अपनाये। जैसा कि महर्षि अरविन्द.ने कहा है यह नहीं हो सकता कि ''एक पक्ष अपने विस्तार का प्रयास करता रहे और दूसरा पक्ष कुछ भी न करे। आवश्यक यह है कि स्वयं राज्य का कोई धर्म न हो अर्थात वह किसी धर्म के प्रति भेद भाव ने करे न ही किसी धर्म को प्रोत्साहित करे। पर उस का दायित्व धर्म के प्रति उपरोक्तानुसार रहे। इसे धर्म निर्पेक्ष राज्य कहा जा सकता है। इस में दोनों धर्मों पर नियन्त्रण शामिल है।

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