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  • kewal sethi

देर आये दुरुस्त आये

देर आये दुरुस्त आये


जब मैं ने बी ए सैक्ण्ड डिविज़न में पास कर ली तो नौकरी के लिये घूमने लगा। नौकरी तो नहीं मिली पर छोकरी मिल गई।


हुआ ऐसे कि उन दिनों नौकरी के लिये एम्पलायमैण्ट एक्सचेंज में नाम रजिस्टर कराना पड़ता था। सो हम ने भी करा दिया। नौकरी मिलना तब भी इतना ही मुहाल था जितना आजकल है। अन्तर केवल इतना है कि आजकल अखबार और नेतागण दिन रात बेरोज़गारों के लिये ऑंसू बहाते है। सब जानते हैं कि यह मगरमच्छ के ऑंसू हैं पर आूंसू तो ऑंसू है। इन की वजह से उन को प्रसिद्धि मिलती है और प्रसिद्धी के कारण वौट; वोट के कारण मैम्बरी और उस के बाद मिनिस्ट्री। उन की तो नौकरी पक्की हो गईं। बाकी अपना काम आप देखें, कोई ठेका थोड़ा ले रखा है।


पर मैं उस समय की बात कर रहा हूॅं जब अखबार इस तरफ ध्यान नही देते थे। न ही नेतागण ध्यान देते थे सिवाये चुनाव के दिनों में। खैर बात तो मुझे अपनी करना है, उन की नहीं। सो नौकरी नहीं मिली। बहुत दिन तक नहीं मिली और मिलने की उम्मीद भी कम थी। आखिर सैक्ण्ड डिविज़न की वक्कत ही क्या है।


उन दिनोे एक अजीब सी रस्म थी। एम्पलायमैण्ट एक्सचेंज में नाम लिखा दिया और नौकरी का या इण्टरवियु की इंतज़ार करने लगे, ऐसा नहीं था। हर दो महीने में एम्पलायमैण्ट एक्सचेंज जा कर उन्हें बताना पड़ता था कि 1. मैं ज़िन्दा हूॅं; 2. मुझे अभी नौकरी नहीं मिली है; 3. मैं अभी भी नौकरी की तलाश में हूॅं। एम्पलायमैण्ट एक्सचेंज वालों को पक्का यकीन होता था कि तीनों में से कोई बात तो उन के पक्ष में जाये गी। या यह भी हो सकता है कि अधिकारियों ने यह कायदा इस लिये बनाया हो कि कम से कम एमप्लायमैझट एक्सचेंज वालों की नौकरी तो कायम रहे।


यह दोमाही भेंट बहुत आकर्षक होती थी। ढेरों मित्र मिल जाते थे। कतारें लम्बी होती थीं और बारी घण्टों में आती थी। इस बीच गप बाज़ी का अच्छा मौका मिलता था। वास्तव में इस दोमाही भेंट का इंतज़ार ही रहता था। पर धीरे धीरे इस आकर्षण में कमी होती गई क्योंकि यह सुनने में आता था कि लाल को या चांद को तो नौकरी मिल गई या यह कि अर्जुन तो दूसरे शहर में चला गया। अपनी सैकण्ड डिविज़न के कारण हम वहीं डटे रहे। यह नहीं कि एम्पलायमैण्ट एक्सचेंज को हम से दूश्मनी था बल्कि एकाध बार तो इण्टरवियु तक भी नौबत आई। लेकिन एक्सचेंज की मुहब्बत फिर खींच लाई।


उन्हीं दिनो एक और बीमारी भारत मे फैली। यह कोविड की तरह संक्रामक तो नहीं थी पर इस का प्रभाव मेरे ऊपर तो शदीद ही था। हुआ यह कि कुछ प्रगतिशील लोगों ने, जिन्हें और काम नहीं मिला, यह प्रचार करने लगे कि लड़कियों का भी नौकरी पर उतना ही अधिकार है जितना लड़कों का। इस अन्दोलन की शुरूआत किस ने की यह तो पता नहीं चला पर यह फैला बहुत जल्दी।


नतीजा यह हुआ कि लड़कियों ने भी एम्पलायमैण्ट एक्सचेंज में नाम लिखाना शुरू कर दिया। दोस्त और जमायती तो कम हो गये थे पर एक्सचेंज में भीड़ थोड़े ही कम हुई थी। उस पर लड़कियों का भी हमला। हालत और बिगड़ गई। और उस पर सोने में सुहागा। कमज़ोर जिन्स की होने के कारण उन्हें लाईन में लगने की ज़रूरत नहीं। बीस तीस लड़के खड़े हैं, वह आईं, खिड़की पर गईं और रजिस्ट्रेशन करा कर गईं। दिल जल कर रह जाता था।


लेकिन कहते हैं न कि जब खुदा देता हे तो छप्पड़ फाड़ कर देता है। इसी अफरातफरी के आलम में अपनी लाटरी निकल आई।


हुआ यह कि जब एक बार हम लाईन में लगे और दूसरे या तीसरे नम्बर पर थे तो दो लड़कियॉं आई और अपनी फार्म खिड़की पर पेश कर दी। बहुत गुस्सा आया, मानो हाथ आई लाटरी हाथ से छूट गईं। डेढ़ घण्टा खड़े खड़े सब्र वैसे ही जवाब दे गया था। वही हालत हो गई जैसे नेता ही होती है जब वह बीस बाईस वोटों से हार जाता है या उस खिलाड़ी की होती है जो ओलम्पिक में स्वर्ण पदक की आस लगाये गये जाता है और पहले ही रउण्ड में बाहर हो जाता है। तू तू मैं मैं हो गई। पर यह तुरन्त ही रुक भी गई क्योंकि उन में एक लड़की अपने मौहल्ले की थी। उसे पहचानते ही अपना सारा गुस्सा रफुचक्क्र हो गया। कहा- कोई बात नहीं। आप पहले। जहॉं नब्बे मिनट, वहॉं पचानवे सही। सोचा, आखिर लड़के को लड़की के प्रति उदारमना होना ही चाहिये।


मैं ने बताया कि यह प्रक्रिया हर दो महीने में होती थी। और चूॅंकि सब के दो महीने की अवधि एक ही दिन समाप्त होती थी, इस कारण वही वही लोग दिखते थे। इसी से तो दोस्ती बनती और निभती है। अगली बार जब हम एक्सचेंज में गये तो यह देखने लगे कि वह लड़की है या नहीं। वह थोड़ी देर में आई, पर आई तो। उसे अपना फार्म थमाते हुये कहा कि इसे भी खिड़की पर दे देना। वह भी हमें मौहल्ले का आदमी जान कर तैयार हो गई। अपना लाईन में लगने का झंझट खत्म।


ज़ाहिर है कि यह प्रक्रिया चल निकली। नौबत यहॉं तक पहॅंची कि हम मौहल्ले से भी एक साथ निकलते और साथ ही लौटते। समय बचता, वह अलग, बात चीत होती, वह अलग।


अब आगे कुछ कहने की ज़रूरत है क्या?


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