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a page from history

आयशा और अली

एक आकांक्षी महिला की कहानी

हज़रत मोहम्मद की पहली शादी बेगम खदीजा से हुई थी। बेगम खदीजा बेवा थी और अपने पति की मत्यु के पश्चात कारोबार देखती रही तथा एक अमीर औरत बन गई। हज़रत मोहम्मद को उस ने व्यापार में सहायक के रूप में रखां। बाद में उस से शादी हो गई। उस समय उस की आयु 40 वर्ष की था जबकि हज़रत मोहम्मद उस समय 25 वर्ष के थे। उन के छह बच्चे हुये जिन में दो बेटे थे किन्तु उन की मृत्यु कम उम्र में ही हो गई थी। खदीजा बेगम की मृत्यु के पश्चात हज़रत मोहम्मद की ग्यारह शादियॉं हुई थीं किन्तु उन से कोई औलाद नहीं हुई।


हज़रत मोहम्मद पर ईमान लाने वालों में पहला नम्बर बेगम खदीजा का था। उन के चचेरे भाई अली कम उम्र में ही उन के मुरीद हो गये थ। बाद में परिवार के अन्य सदस्य भी मुस्लिम बने। परन्तु अब तालिब, उन के चचा, कभी मुस्लिम नहीं बने। अबु बकर हज़रत मोहम्मद के परिवार से बाहर के पहले व्यक्ति थे जिन्हों ने उन पर ईमान लाया था, और इस कारण वह हज़रत मोहम्मद के विशेष कृपा पात्र थे।

बेगम खदीजा की मृत्यु के पश्चात हज़रत मुहम्मद की शादी सावदा से हुईं। इस के पश्चात तीसरी शादी हज़रत आयशा से हुई। हज़रत आयशा की शादी के समय की आयु केवल छह वर्ष बताई जाती है किन्तु कुछ का मत है कि उस की आयु उस समय नौ वर्ष थी। शादी के तीन साल बाद सम्भोग हुआ था, इस पर दोनों पक्ष सहमत हैं। हज़रत आयशा अबु बकर की बेटी थी। अबु बकर की दूसरी बेटी हफसा से भी हज़रत मोहम्मद की शादी हुई थी। इस प्रकार अबु बकर का विशेष दर्जा था।

हज़रत मोहम्मद की बेटी फातिमा की शादी अली से हुई थी जो हज़रत मोहम्मद के चचेरे भाई थे। उन की दूसरी बेटी रुक्या की शादी ओतमन से हुई थी तथा रुक्या की मत्यु के बाद हज़रत मोहम्मद की दूसरी बेटी खलतुम के साथ उस की शादी हुई थी। उन की चौथी बेटी की शादी अबु अल असद से हुई थी।

हज़रत मुहम्मद ने ज़ायद को अपने बेटे के रूप में गोद में लिया था। ज़ायद पूर्व में गुलाम था जिसे मुहम्मद द्वारा खरीदा गया था तथा बाद में उसे आज़ाद कर दिया तथा उसे गोद ले लिया गया। वह पंद्रह वर्ष तक हज़रत मुहम्मद का बेटा तस्लीम किया गया। हज़रत मुहम्मद ने उस के शादी जैनब से कराई जो उन्हीं के परिवार में से थी। बाद में ज़ायद ने ज़ैनब को तलाक दे दिया जिस के बाद हज़रत मुहम्मद ने ज़ैनब से शादी की। अरब में अपनी पुत्रवधु से शादी की इजाज़त नहीं थी किन्तु अल्लाह ने किसी को गोद लेने के खिलाफ हुकुम दिया और गोद लेने की परम्परा इस्लाम के लिये निषिद्ध कर दी। चूॅंकि इस का प्रभाव पूर्ववर्ती था, इस कारण से ज़ायद हज़रत मुहम्मद का बेटा न रहा और ज़ैनब पुत्रवधु न रही। इस कारण शादी सम्भव हो सकी। वैसे क्रिदवती यह भी है कि एक बार गल्ती से हज़रत मुहम्मद ने ज़ैनब को कम कपड़ों में देख लिया था और बाकी बातें उस के बाद हुईं।

इस लेख में हम हज़रत आयशा के बारे में ही ज़िकर कर रहे हैं। परन्तु अली के बारे में एक बात बताना उचित हो गा। उस की शादी हज़रत मुहम्मद की बेटी से खदीजा के रहते हुये ही हुई थी। खदीजा ने ही अली को पाला था, इस कारण उस का खदीजा के प्रति विशेष आभार था। उस की दूसरी शादी का कहीं ज़िकर नहीं आता। वह हज़रत मुहम्मद के दूसरी बीवियों को वह आदर नहीं दे सका जो बेगम खदीजा को दे सका। हज़रत आयशा के बारे में बताया जाता है कि वह सुन्दर होने के साथ साथ समझदार एवं विदुषी भी थी। इस के साथ वह महत्वाकॅंक्षी भी थी। इस लिये वह हज़रत मुहम्मद को अधिक पसन्द थी। परन्तु हज़रत आयशा तथा अली की कभी बनी नहीं।


मुस्लिम इतिहास में एक घटना का काफी महत्व है। एक बार हज़रत मुहम्मद को किसी ने एक हार भेंट किया। वह हार हज़रत महुम्मद ने हज़रत आयशा को दे दिया जो उसे बहुत प्रिय था। हज़रत आयशा हज़रत मुहम्मद के साथ युद्ध के समय भी जाती थी। एक बार ऐसा हुआ कि जब हज़रत आयशा सुबह फारिग होने के लिये गई तो उस का हार कॉंटों में बिखर कर गिर गया। जब वह काफिले में वापस आई तो उसे इस का अहसास हुआ। वह वापस अपने हार के मोती चुनने के लिये चली गई। जब तक वह हार के मोती चुने, काफिला मदीना के लिये रवाना हो गया। हज़रत आयशा का लौटना तथा ऊॅंट पर हौदे में चढ़ना तो लोगों ने देखा था पर उस का हार की तलाश में लौटने का अंदाज़ किसी को नहीं था। इधर जब हज़रत आयशा वापस आई तो काफिला जा वुका था। वह वहीं बैठ गई, यह सोच कर कि अभी उस की तलाश में कोई वापस आये गा। परन्तु दोपहर हो गई तथा किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। गर्मी हो चुकी थी और हज़रत आयशा इंतज़ार में थी। इस बीच एक ऊॅंट सवार सफवान जो किसी काम से पीछे रह गया था, वहॉं से गुज़रा। सफवान ने हज़रत आयशा को देखा, पहचाना और उसे अपने ऊॅंट पर बिठा कर उस ऊॅंट को पैदल पैदल ले कर चला। बीस मील चल कर वह मदीना आया और यह मंज़र सभी ने देखा। ज़ाहिर है कि इस बात पर चयमगोईयॉं होने लगीं।

यह बात हज़रत महम्मद तक पहुॅंवी तो उन्हों ने हज़रत आयशा को अबु बकर के घर पहॅंचा दिया। इस के बाद अपने साथियों से परामर्श किया। हज़रत मुहम्मद का हज़रत आयशा से लगाव का सब को पता था, इस कारण किसी ने हज़रत आयशा के विरुद्ध कोई बात नहीं की। केवल अली ने, जो हज़रत मुहम्मद के चचेरे भाई और दामाद थे, ने सलाह दी कि बदनामी को देखते हुये हज़रत आयशा को तलाक दिया जाना चाहिये। यह सलाह मानी तो नहीं गई परन्तु इस कारण हज़रत आयशा अली के विरुद्ध हो गई जिस के आगे विपरीत परिणाम निकले। सम्भवतः हज़रत मुहम्मद का विचार था कि तलाक से भी जो कहा जा रहा है, उस में परिवर्तन नहीं हो गा। बहर हाल तीन सप्ताह के विचार विमर्श के बाद हज़रत आयशा को पवित्र घोषित कर दिया गया। उस का हज़रत मुहम्मद के साथ युद्ध पर जाना तो निषिद्ध हो गया पर बाकी बातें पूर्ववत रहीं। हज़रत मुहम्मद ने कहा कि इस बारे में अल्लाह ने उन्हें फैसला सुना दिया है कि हज़रत आयशा पाक साफ है। उन लोगों को, जिन्हों ने फबतियॉं काी थीं, सार्वजनिक रूप से कोड़े लगवाये गये।

इस का एक प्रभाव उलटा ही हुआ कि किसी औरत के साथ नाजायज़ सम्बन्ध अथवा बलात्कार के जब तक चार गवाह उस औरत द्वारा पेश न किये जायें, उस की बात सही नहीं मानी जाये गी। चूॅंकि ऐसा करना सम्भव नहीं है, इस कारण औरत को ही दोषी माना जाये गा। यह अललाह का हुकुम तो नहीं था किन्तु यही परम्परा अपनाई गई।


इस का एक प्रभाव यह भी हुआ कि हज़रत मुहम्मद ने हुकुम दिया कि हज़रत आयशा का युद्ध पर जाना रोक दिया गया। सिर्फ मक्का जाने की ही इजाज़त थी। यह भी कहा गया कि उस की बीवियॉं पर्दे में रहें गी ताकि कोई बाहर का व्यक्ति उन्हें देख न सके। घर में पर्दा का असर बाहर बुर्के के रूप में हआ। पहले मुस्लिम में ऊपर के तबके ने भी इसे अपना लिया और फिर यह सभी औरतों के लिये ला​ज़मी हो गया।

हज़रत आयशा का अली के प्रति रवैया पूर्व में ही सही नहीं था। अली और फातिमा के दो बेटे हसन और हुसैन हुये जो अपने नाना के चेहेते थे तथा यह बात हज़रत आयशा को पसन्द नहीं थी। अली ने भी कभी हज़रत आयशा को वह सन्मान नहीं दिया जोकि हज़रत आयशा हज़रत मुहम्मद की खास बीवी होने के नाते चाहती थी।

स वाक्ये के सात साल बाद हज़रत मुहम्मद बीमार हो गये। उन की देखभाल का ज़िम्मा उन की बीवियों पर आ गया। कौन उन से मिले गा, यह भी वह तय करने लगीं। उस समय हज़रत मुहम्मद हज़रत आयशा वाले भाग में ही थे। एक बार जब हज़रत मुहम्मद ने अली से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो हज़रत आयशा ने सुझाव दिया कि वह उस के पिता अबु बकर से मिल लें तथा अपनी बात कहें। दूसरी बीवी हफसा ने अपने पिता ओमर से मिलने के लिये कहा। अबु बकर और ओमर को बुलाया गया पर अली को नहीं।


हज़रत मुहम्मद ने अपने बाद किसी को अपना जाननशीन नामज़द नहीं किया था। बीमारी के नौवे दिन हज़रत मुहम्मद कुछ होश में आये और उन्हों ने कलम तथा कागज़ मंगाये ताकि वह अपनी आखिरी सन्देश दे सकें। परन्तु वहॉं उपस्थित सभी को शंका थी कि पता नहीं वह क्या लिखना चाहते हैं। क्या वह अपने जानशीन का नाम लिखें गे। क्या अली का नाम बताया जाये गा। क्या अपने अनुयायिओं को आखिरी सन्देश देना चाहते हैं। सभी को घबराहट थी कि कहीं अली का नाम न आ जाये। तीन महीने पहले ही मक्का से लौटते समय हज़रत मुहम्मद ने एक स्थान पर रुक कर मचान बनवाई तथा उस पर अली को ले कर चढ़े। उन्हों ने कहा कि ‘‘मैं जिन का मालिक हूॅं, अली भी उन का मालिक है। खुदा उन का दोस्त है जो उस के दोस्त हैं और उन का दुश्मन जो उस के दुश्मन हैं’’। औमर ने उस समय अली को बधाई भी दी थी। बाद में इस पर विवाद हुआ कि जो शब्द कहा गया था, उस का अर्थ मालिक था या केवल नेता। पर जो हो घबराहट थी। और बहस भी कि क्या हज़रत महुम्मद की कमज़ोरी देखते हुये यह उचित हो गा कि वह अपनी बात विस्तार से कहें। इस बहस से हज़रत मुहम्मद तंग आ गये और कहा- क्या मुझे अकेला नहीं छोड़ सकते। सभी बाहर निकल गये और लिखाने या लिखने की बात वहीं रह गई। उस के बाद हज़रत मुहम्मद को दौबारा मौका नहीं मिला। उसी में वह इस दुनिया को छोड़ गये।


अब आया सवाल मुहम्मद के जानशीन का। मदीना वासियों ने शूरा बुलाने की सलाह दी। शूरा कबीले के महत्वपूर्ण लोगों का समूह था। अली तथा उन के कुछ रिश्तेदार हज़रत मुहम्मद के जनाज़े के प्रबन्ध में व्यस्त थे। शूरा की खबर फैली तो मक्का वाले भी उस में शामिल हो गये। मक्का में कुरैश कबीले में भी दो उप कबीले थे - हाशिमी तथा उम्मैद। हज़रत मुहम्मद और अली, अबु बकर, ओमर हाशिमी कबीले से थे। और ओत्मान उम्मैद से। उम्मैद अधिक महत्वपूर्ण था जब तक हज़रत मुहम्मद को पैगम्बर नहीं माना गया और वह अपनी बढ़त फिर से चाहते थे। अली इस शूरा की मजलिस में शामिल नहीं थे यद्यपि उस के चाचा अब्बास चाहते थे कि वह भी शूरा की बैठक में जाये। अली इसे सही नहीं मानते थे कि हज़रत मुहम्मद को दफनाने से पहले ही इस पर बात हो।

शूरा की बैठक रात भर चली और दूसरे दिन भी। सभी ने अपने अपने भाषण दिये। मदीना वाले चाहते थे कि उन का व्यक्ति चुना जाये, मक्का वाले कि उन का चुना जाये। दो नेता होने की बात भी कही गई। आखिर में हाथापाई की नौबत भी आ गई। मदीना के नमता इब्न ओबाद पर हमला हुआ और वह बेहोश हो गये। इस सब झगड़े के बीचं ओमर ने अबु बकर को खलीफा करार दे दिया औा उन के प्रति अपनी वफादारी ज़ाहिर की। दूसरे मक्का वासियों ने भी इस की ताईद की और मदीना वासी जो अपने नेता का लहु लुहान जिस्म देख चुके थे और हिम्मत हार चुके थे, ने भी इसे कबूल कर लिया। इस तरह अबु बकर पहले खलीफा बने।

दूसरे दिन हज़रत मुहम्मद को दफनाया गया। उन का कहना था कि जहॉं वह मरें, वहीं उन्हें दफनाया जाये। इस लिये उसे हज़रत आयशा के चैम्बर में ही उन्हें दफनाया गया। दूूसरे लोगों ने भी अबु बकर के प्रति वफादारी की प्रतिज्ञा ली किन्तु अली अपने घर में ही रहा। कहा गया कि वह अभी गमी में है। लेकिन अबु बकर को डर था कि यदि अली वफादारी की शपथ नहीं लेता तो मदीनावासी भी पलट सकते हैं। उस ने ओमर को अली के घर पर भेजा। ओमर अपने साथ कई हथियार बन्द लोग ले गया और अली के घर को घेर लिया। उस ने पुकारा कि यदि अली वफादारी की शपथ नहीं लेता तो वे घर को जला दें गे। जब अली बाहर नहीं आया तो ओमर ने पूरे ज़ोर से दरवाज़े को धक्का दिया। दरवाज़ा टूट कर गिर गया और फातिमा को, जो उस समय गर्भवती थी, को लगा। जब ओमर ने फातिमा को इस हालत में देखा तो वह लौट गया। कुछ सप्ताह बाद फातिमा ने मृत बच्चे को जन्म दिया।


फातिमा ने अबु बकर को सन्देश भिजवाया कि उस के हिस्से की सम्पत्ति उसे दी जाये। अबु बकर का जवाब था कि हज़रत मुहम्मद का जो भी है, वह कौम का है और इस में से कुछ दिया नहीं जा सकता। फातिमा को कछ भी दिये जाने से मना कर दिया गया किन्तु हज़रत मुहम्मद की विधवाओं को तथा विशेष रूप से हज़रत आयशा को खुले दिन से दिया गया। इस के बाद अली का हुक्का पानी बन्द कर दिया गया। कोई उस से मिलने को तैयार नहीं था। फातिमा की मृत्यु कुछ समय बाद हो गई तथा उसे चुपके से दफना दिया गया। अबु बकर को इत्तलाह भी नहीं की गई। और न ही उस ने कोई खबर ली।

हज़रत आयशा ने अब हज़रत मुहम्मद के क्रिया कलाप के बारे में बताना आरम्भ किया जिसे सुन्ना के नाम से जाना जाता है। कुरान के इलावा हज़रत मुहम्मद ने जो रोज़मर्रा के काम काज में किया, उस के व्यौरे को सुन्ना कहा जाता है तथा यह इस्लाम के लिये आदरनीय पाठ है। हज़रत आयशा के अतिरक्त अन्य लोगों ने भी इस बाबत कहा लेकिन हज़रत आयशा के अधिक करीब दहने से उस का योगदान अधिक है।

हज़रत मुहम्मद की मत्यु के पश्चात अरब के कई कबीलों ने विद्रोह कर दिया। वे कुरैश कबीले का वर्चस्व मानने को तैयार नहीं थे। अली के समाने दुविधा थी। यदि वह इन विद्रोहियों के साथ खड़ा होता है तो वह मुहम्मद के आदर्श के विरुद्ध, इस्लाम के विरुद्ध होता। वह इस्लाम के खिलाफ होने की बात सोच भी नहीं सकता था। इस स्थिति में उस ने अबु बकर का ही साथ दिया और उस के प्रति वफादारी की शपथ ली।


इन विद्राहों को दबाने के अभियान को रिद्दा युद्धों के नाम से जाना जाता है। विद्रोहों का सख्ती से कुचल दिया गया। इस के पश्चचात सीरिया की तरफ रुख किया गया। एक वर्ष पश्चात ही जब उस की सैना दमिश्क का मुहासरा करने जा रही थी, अबु बकर की बीमारी से मृत्यु हो गई। मरते समय उस ने अगले खलीफा के चुनाव के लिये शूरा की बैठक नहीं बुलाई क्योंकि इस में जोखिम था कि किस को चुना जाये गा। उस ने ओमर को अगला खलीफा घोषित कर दिया। अली ने इस समय भी अपने साथियों का अमन का सन्देश दिया। उस ने ओमर को मान्यता दे दी। न केवल यह बल्कि उस ने अबु बकर की विधवा से शादी भी कर अपनी नेकनीयती का परिचय दिया। उस ने अपनी बेटी उम कुलथम की शादी भी ओमर से कर दी। ओमर ने इस के बदले में यह व्यवस्था की कि जब वह मदीना से बाहर रहे तो अली उस का कार्य देखे गा।

अपने दस वर्ष के काल में इस्लाम ने पूरे सीरिया और इराक पर कब्ज़ा कर लिया। पर यह जीत केवल सैना के कारण नहीं थी यद्यपि सैना ने दो बार ईरानी सैना तथा बाईज़ैनटाईन की सैना को शिकस्त दी। इस जीत में पैसे का भी उतना की दखल था। मुहम्मद के पहले से ही अरब का व्यापार के माध्यम से सीरिया इराक से सम्बन्ध रहा था। न केवल वहॉं बलिक मिस्र में, फलस्तीन में, इराक में अरब व्यापारियों की जायदाद थी, खजूर के खेत थे। हर वर्ष मक्का से दमिश्क के लिये काफिला जाता था जिस में चार हज़ार तक ऊॅटों की संख्या होती थी। वह केवल आते जाते ही नहीं थे बल्कि कई महीनों तक वहीं रहते थे। इस से स्थानीय लोागों से आपसी व्यापारिक सम्बन्ध गहरे थे और वे इस विस्तार के पक्ष में सबल थे। इसी के साथ वह समय भी उपयुक्त था। ईरान तथा बाईज़ैलटीयन के आपसी युद्ध के कारण, जो कई दशकों तक चला, दोनों ही कमज़ोर हो गये थे।


इस समय धर्म परिवर्तन पर ज़ोर नहीं था। ओमर का विचार था कि इस्लाम को पवित्र रखा जाये अर्थात उसे अरबों तक ही सीमित रखा जाये। इस का एक कारण और भी था। ओमर ने दीवान स्थापित किया जिस में सभी मुसलमानों को वृति दी जाती थी। यदि मुसलमानों की संख्या बढ़ती तो इस में कमी आती। इस के लिये ईरान तथा अन्य प्रदेशों से कर लिया जाता था। उस कर का परिमाण बढ़ाया नहीं गया। इस कारण गैर मुस्लिम लोगों में नाराज़गी भी कम थी। जो वह पहले के हुकुमरानों को देते थे, वही देना पड़ रहा था। कर बढ़ाया जाना मुश्किल था और अधिक मुस्लिम होने पर खर्च भी बढ़ सकता था।


ओमर की हत्या एक गुलाम द्वारा की गई। उस के मालिक ने उसे आज़ाद करने का वचन दिया था पर वह उस से मुकर गया। गुलाम ने ओमर के समक्ष अपील प्रस्तुत की पर उसे झिड़क दिया गया। इस से उत्पन्न नाराज़गी का परिणाम ओमर की हत्या में हुआ।


एक बार फिर उत्तराधिकारी की बात सामनेे आई। ओमर ने मरते समय अली समेत छह लोगों का नाम लिया जो उस का उत्तराधिकारी चुने गे। इस प्रकार शूरा की बात भी नहीं हुई और किसी व्यक्ति विशेष का नाम भी नहीं लिया गया। उन छह को अपने में से ही एक को चुनना था तथा यह काम तीन रोज़ में करना था। इन छह में से दो हज़रत आयशा के बहनोई थे। तीसरा व्यक्ति ओतमन था जिसे अब बकर ने शूरा का नेता बताया था। एक ओर अली था जो सब से पहले मुसलमान बना था, दूसरी ओर उम्मैद कबीले का ओतमन था। उस की आयु को देखते हुये ओतमन को ही चुना गया। अली उस समय पचास से कम था। आकत्मन अस्सी के करीब थे। लोागों का विचार था कि ओतमन लम्बे समय तक नहीं रहे गा जब कि अली के पास समय है। किस्मत को और कुछ मंज़ूर था और ओतमन सभी क्यास के बावजूद बारह वर्ष तक जीवित रहा। ओर मरा भी तो प्राकृतिक मौत से नहीं। अली उस समय अगर कोशिश करते तो शायद उस का पलड़ा भारी होता पर वह शराफत में ही रहा। शेष लोागों को उम्मीद थी कि ओतमन उन को परुस्कृत करे गा पर अली से उन को ऐसी उम्मीद नहीं थी। बिना अली की राय जाने शेष ने ओमतन का नाम घोषित कर दिया।

ओतमन एक रूपवान व्यक्ति था जिसे ऐशो आराम पसन्द था। ओमर को जब ईरान से लूट का माल आया तो उसे खूशी नहीं हुई बल्कि उस ने कहा कि दौलत से ही दुश्मनी पैदा होती है। पर ओतमन के साथ ऐसा नहीं था। वह उम्मैद परिवार से था जो हज़रत मुहम्मद के पहले से ही मालदार था तथा शानोशौकत से रहता था। ओतमन ने शीघ्र ही अपने परिवार के सदस्यों को ही उच्च पद प्रदान किये। हज़रत मुहम्मद, अबु बकर, और ओमर के समय में जो सादगी थी, वह अब नहीं रही। अबु बकर की ईमानदारी तो इतनी थी कि जब उस का बेटा खुले में शराब पिये मिला तो उसे भी दण्ड दिया गया। पर ओतमन के साथ यह बात नहीं थी। अबु बकर और ओमर अपने को हज़रत मुहम्मद का डिप्टी कहते थे पर ओतमन ने अपने को खुदा का डिप्टी कहलाना पसन्द किया। उस की कुंबापरस्ती के विरुद्ध आवाज़ें उठने लगीं। सभी पॉंच जो उस चुनने वाले समूह में थे, ने उस के क्रियाकलापों पर एतराज़ किया और अली उन में सब से आगे था जिस का कहना था कि इस्लाम के पैसे का नाजायज़ इस्तेमाल किया जा रहा है। जो इस्लाम के असूलों के खिलाफ है।


इस परिवारवाद तथा शानो शौकत के खिलाफ सब से बुलन्द आवाज़ हज़रत आयशा की थी। कुछ का कहना है कि यह उस ने तब शुरू किया जब उस का वज़ीफा भी कम कर के हज़रत मुहम्मद के अन्य बेवाओं जितना कर दिया गया।


ओतमन ने अपने सौतेले भाई वालिद को कूफा का गर्वनर नियुक्त किया था। वालिद का अपने अधीनस्थ के प्रति व्यवहार दंभपूर्ण था। उस समय अरब ही अपने को श्रेष्ठ मानते थे तथा स्थानीय इराकी अथवा ईरानी जनता को दूसरे दर्जे के नागरिक। शिकायतें बहुत थीं - बिना वजह कैद, सरकारी खज़ाने से गबन, भूमि हथियाना। पर इन का ओतमन पर कोई असर नहीं हुआ। पर एक वाक्या तो ओतमन तक पहूॅॅंचा ही जब वालिद नशे में धुुत मसजिद में गया और वहॉं उलटी भी कर दी। परन्तु इस शिकायत का भी सभी लोगों द्वारा मॉंग करने का भी ओतमन पर कोई असर नहीं हुआ और वालिद को सज़ा नहीं दी गई। लोगों ने इस के बारे में हज़रत आयशा से शिकायत की। हजरत आयशा ने भी ओतमन को खिलाफत छोड़ने के लिये कहा। ओतमन पर इस का असर उलटा हुआ। उस का कहना था कि क्या इन दुराग्रहियों को हज़रत आयशा के इलावा कोई नहीं मिला।

इस बात की खबर फैल गई। यह हज़रत आयशा के लिये सीधी चुनौती थी। मदीना के एक बुजु़र्ग ने मसजिद में इस के बारे में आवाज़ उठाई पर उसे बाहर फिंकवा दिया गया और वह भी इस तरह कि उस की पॉंच हड्डियॉं टूट गईं। अगले शुक्रवार को हज़रत आयशा ने मसजिद में हज़रत मुहम्मद केी चप्पल को लहराते हुये कहा कि यह अभी टूटी नहीं है और ओतमन का सुन्ना में विश्वास टूट गया है। इस का असर हुआ और प्र्तीक स्वरूप मसजिद में मौजूद लोग भी अपनी चप्पलें लहराने लगे।

हज़रत आयशा को तो बाहर नहीं फिंकवाया जा सकता था। इस वजह से ओतमन के पास और कोई रास्ता नहीं था सिवाये इस के कि वालिद को वापस बुलाया जाये। पर बात यहीं समाप्त नहीं हुई। इराक, मिस्र, अरब सब जगह अधिक कठोर कार्रवाई की मॉंग हुई और हज़रत आयशा ने भी इस्लाम को भ्रष्टाचार तथा अन्याय के विरुद्ध उठ खड़े होने को कहा। पूरी तरह हथियारबन्द तीन समूह कूफा, बसरा तथा मिस्र से मदीना पहुॅंच गये। उन में मुसलमानों के उज्जवल छवि वाले लोग थे। उन में हज़रत आयशा का सौतेला भाई मुहम्मद इब्न अबु बकर भी था। इन की मॉंग थी कि ओतमन त्यागपत्र दे या कड़ी कार्रवाई करे। इन्हों ने अपनी छावनी मदीना के पास ही डाल दी।


अली की छवि पूर्ववत थी, इस कारण इन विद्रोहियों ने उस से सम्पर्क किया। अली ने दो सप्ताह तक मध्यस्था की। परन्तु मरवान, जो ओतमन का चचेरा भाई था, के कारण सफल नहीं हो पाया। मरवान के पिता को परिवार समेत हज़रत मुहम्मद ने निर्वासित कर दिया था जिस को अबु बकर तथा ओमर ने भी कायम रखा पर ओतमन ने निर्वासन समाप्त कर दिया था तथा मरवान को अपना डिप्टी बना दिया था। ओतमन ने सारा प्रशासन उस के हाथ में सौंप दिया था। मरवान के बारे में अली ने ओतमन को सम्झाईश देने का प्रयास किया तथा उस की अपनी बीवी नैला ने भी मरवान का साथ छोड़ने को कहा पर ओतमन को वे मना नहीं पाये। तीन दिन बाद जब ओतमन शुक्रवार को मसजिद में गया तो लोगों ने उस का मज़ाक उड़ाया पर तब भी उसे समझ नहीं आई। उस पर पत्थर फैंके गये और वह उन से बेहोश हो गया। मरवान चाहता था कि इस विद्रोह के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाये पर ओतमन ने हामी नहीं भरी। साथ ही उस ने हटने का प्रस्ताव भी अस्वीकार कर दिया यह कहते हुये कि मुझे ईश्वर ने यह पद दिया है तथा मैं अपनी तौर पर इसे छोड़ नहीं सकता।

इस घटना के बाद ओतमन ने वालिद तथा मिस्र के गर्वनर को हटाने की रज़मन्दी दे दी। मिस्र का गर्वनर उस का बहनोई ही था। उस ने मुहम्मद अबु बकर को मिस्र का गवर्नर भी नियुक्त कर दिया। अली को उस ने गारण्टर के रूप में स्वीकार किया। मदीनावासियों ने राहत की सांस ली। विद्रोही वापस रवाना हो गये। जब मुहम्मद इब्न अबु बकर वापस जा रहा था तो उस के साथियों ने एक व्यक्ति को पकड़ा जो तेज़ी से मिस्र की ओर जा रहा था। शक होने पर उस की तलाशी ली गई तथा उस में एक पत्र मिला जिस पर ओतमन की सील थी। इस में मिस्र के गर्वनर को हिदायत दी गई थी कि विद्रोही नेताओं को बन्दी बना लिया जाये, उन की दाढ़ी मॅूंछ के बाल नोच लिये जाये तथा सौ कौड़ों की सज़ा दी जाये। इस पत्र को पढ़ने के बाद विद्रेही वापस मदीना की ओर चल पड़े। वे अब ओतमन के हटने की मॉंग कर रहे थे और इस परं कोई समझौता स्वीकार्य नहीं था। अली ने अपने बेटों हसन और हुसैन को महल के रक्षा के लिये नियुक्त किया। वह अभी भी मुसलमानों की आपसी हिंसा के पक्ष में नहीं था।


हज़रत आयशा ने अपने को अली की ओर पाया क्योंकि दोनों ओतमन को हटाना चाहते थे। पर वह इस स्थिति में क्या कर सकती थी। उस ने घोषित किया कि वह मक्का की यात्रा पर जा रही है। मरवान को लगा कि उस के जाने के बाद विद्रोहियों पर नियन्त्रण नहीं रह पाये गा। हज़रत आयशा की बात वे अभी भी मान लेते। वह हज़रत आयशा से मिने गया तथा उसे मनाने का प्रयास किया। कुछ सप्ताह पूर्व वह तैयार हो जाती पर अब बहुत विलम्ब हो गया था। हज़रत आयशा मक्का के लिये रवाना हो गई।

इधर यह समाचार फैला कि सीरिया से सैना ओतमन की सहायता के लिये रवाना हो गई हैं। एक हजूम महल के समाने इकठ्ठा हो गया। और ओतमन के त्यागपत्र के लिये उसे ललकारा। एक उम्र रसीद व्यक्ति आगे आगे था। मरवान के एक साथी ने उस पर पत्थर से हमला किया और उस की मौत हो गई। इस से उत्तेजित हो कर भीड़ ने अबु बकर के नेतत्व में महल पर हमला बोल दिया। मरवान ओर अली दोनों ज़ख्मी हुये और एक समूह ओतमन के कमरे तक पहुॅंच गया। ओतमन पर ख्ंजर से वार किया गया। उस की बीवी नैला ने उसे बचाने का प्रयास किया किन्तु उस की एक अंगुली कट गई पर वह ओतमन को बचा नहीं पाई।

ओतमन की लहु से भरी कमीज़ और नेला को उंगली किसी ने अपने पास रख ली तथा उसे बाद में दमिश्क पहुॅंचा दिया। सीरिया के गवर्नर मुआविया, जो ओतमन कबीले के ही थे और रिश्तेदार भी थे, ने उन्हें सार्वजनिक स्थान पर रखा और कसम ली कि वह ओतमन के हत्यारों को सज़ा दे गा।


ओतमन को मदीना में ही दफना दिया गया तथा मदीना वासियों ने अली को खलीफा होने की मान्यता दे दी। मदीनावासी ओतमन के जाने से प्रसन्न थे और सभी ने अली के प्रति वफादारी की शपथ ली। परन्तु अली ने अपने को खलीफा कहलाने के स्थान पर इमाम कहलाना पसन्द किया।

हज़रत आयशा को जब यह समाचार मिला और यह भी कि उस का अपना सौतेला भाई इस हत्या में तरफदार था, तो उस की हालत अजीब थी। उस ने ओतमन के खिलाु आवाज़ उठाई थी पर वह अली के खलीफा बनने की बात से खुश नहीं थी। हालाुकि उस ने ही आतमन के खिलाफ आवाज़ बुलन्द की थी लेकिन अब मक्का की मसजिद में उस ने गर्जना की कि ओतमन ही हत्या संगाीन अपराध है तथा इस का बदला लिया जाना चाहिये। मक्कावासियों ने इस की ताईद की। इस से हज़रत आयशा को और जोश आया। मक्का वालों ने अबु बकर को सौंपने को कहा मगर अली इस के लिये तेयार नहीं था। हज़रत आयशा तथा उन्हों ने अली को ही कसूरवार ठहरा दियां। उन्हों ने अली को जायज़ खलीफा मानने से इंकार कर दिया।

मदीना से हज़रत आयशा के बहनाई ताल्हा तथा ज़ुबेर भाग कर मक्का आ गये। इस से हज़रत आयशा की हिम्मत ओर बढ़ी। वह दोनों उस समूह में थे जिन्हें अबु बकर की मत्यु के बाद खलीफा चुनने का अधिकार दिया गया था। वह ओतमन के खिलाफ थे पर अली को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वह स्वयं इस पद के दावे दार थे। उन्हों ने अली को हटाने का फैसला किया पर मदीना में नहीं जहॉं अली मज़बूत था बल्कि बसरा में जहॉं ज़ुबेर के साथी थे। हज़रत आयशा ने फिर मक्का की मसजिद से ललकार दी - चलो बसरा और अली से इंतकाम लो।

विचार यह था कि वह बसरा को बिना किसी हिंसा के ले लें गे और वहॉं से कूफा जायें गे। मुआविया जो दमिश्क का गवर्नर था के साथ मिल कर वे अली को चुनौती दें गे और अली के पास सिवाये इस्तीफा देने के कोई विकल्प नहीं हो गा।


अली ने ओतमन के हत्यारों को दण्ड देने से इंकार कर दिया क्योंकि ओतमन स्वयं आततायी था पर अली यह भी चाहता था कि सभी मुस्लिम मिल कर रहें। उस ने मक्का और दमिश्क को अपनी सैना नहीं भेजी। सिर्फ पत्र ही भेजे। पर जब मक्का की सैना बसरा को ओर बढ़ने लगी तो उस के पास अपनी सैना को भेजने के अतिरिक्त चारा नहीं था।


बसरा के बारे में हज़रत आयशा और उस के बहनाईयों को विचार सही नहीं था। वह हज़रत आयशा का आदर करते थे परन्तु अली के भी वह पक्षधर थे। उन्हों ने मक्का वालों का स्वागत नहीं किया बल्कि सुझाव दिया कि अली को आने दिया जाये ताकि बातचीत हो सके। ताल्हा और ज़ुबेर को यह माफिक नहीं आता था, इस कारण उन्हों ने रात में ही बसरा पर आक्रमण बोल दिया। गर्वनर को बन्दी बना लिया गया। बसरा उन के अधिकार में आ गया। यह खबर अली तक पहुॅंचने पर उस ने अपने बेटो हसन और हुसैन को कूफा के लिये रवाना किया ताकि कुमक आ सके।

दोनों सैनाये बसरा में आमने सामने हुईं। तीन दिन तक यह स्थिति रही। अली ने ताल्हा और ज़ुबेर से बात की। पर हज़रत आयशा इस बात चीत में शामिल नहीं हुई। बातचीत सफल तो नहीं हुई्र पर अभी भी दोनों पक्ष युद्ध के खिलाफ थे। दोनों एक दूसरे के फैसले का इंतज़ार कर रहे थे। परन्तु इस बीच एक समूह ने, जो शायद मरवान के पक्षधर थे, ने हमला करने का फैसला ले लिया और तड़के ही अली की सैना पर आक्रमण कर दिया।

एक बार लड़ाई शुरू होने पर हज़रत आयशा, ताल्हा, ज़ुबेर भी सामने आ गये। हज़रत आयशा अपने लाल रंग के ऊॅंट पर सवार अपनी सैना का हौसला बढ़ा रही थी। पर निर्णय उस के पक्ष में नहीं हुआ। दोपहर तक ताल्हो और ज़ुबेर दोनों जीवन हार चुके थे। ज़ुबेर ने अली को वचन दिया था कि वे लड़ाई शुरू नहीं करें गे और अब वह इस से अलग होना चाहता था पर उसे भगौड़ा घोषित कर उसे मौत के घाट उतारने में किसी को कष्ट नहीं हुआ। कुछ लोग इस में मरवान का भी हिस्सा मानते हैं क्येांकि वह स्वये खलीफा बनना चाहता था और ताल्हा और ज़ुबेर के होते हुये यह मुमकिन नहीं था। हज़रत आयशा को घेर लिया गया। बताया जाता है कि उसे बचाने में सत्तर लोगों ने जान गंवाई। पर बेसूद। उस ने आखिर अपने को हवाले कर दिया।

अली ने अपने दामाद अबु बकर को उसे बसरा ले जाने के लिये कहा तथा उस के ज़ख्मों का इलाज करने के लिये कहा। तीन दिन तक वह वहीं रुका। जख्मियों के इलाज के लिये और लाशों को दफनाने के लिये। हज़रत आयशा जब स्वस्थ हो गई तो उस ने अपने दोमाद मुहम्मद अबं बकर को उसे सम्मान सहित मक्का ले जाने के लिये कहा। हज़रत आयशा ने भी उस की तराीफ की पर कभी साफ तौर पर उसे खलीफा नहीं कहा। अली अपने बेटों के साथ उस के सफर में कुछ मील साथ भी चला। हज़रत आयशा वापस तो लौट गई पर उस के दिल में वही मलाल रहा। अब वह सिर्फ हज़रत मुहम्मद की बेवाओं में एक बेवा थी, उस से अधिक कुछ नहीं।


हज़रत आयशा अब मक्का में अपने अकेलेपन मे थी पर उस का गुस्सा गया नहीं था। अली की खिलाफत अधिक दिन नहीं चली और उस की भी हत्या की गई। उस के बाद उस के बेटे हसन को इमाम मान लिया गया। पर उस ने खिलाफत से त्यागपत्र दे दिया और मदीना में रिहाईश इख्तयार कर ली। मदीना लौटने के नौ साल बाद उस की मौत हुई। जब उसे दफनाने की बात आई तो यह कहा गया कि उसे हज़रत मुुहम्मद केी बगल में दफनाया जाये। उस समय हज़रत आयशा ने इस को चुनौती दी और मदीना में दो विरोधी गुट हो गये। अली के दूसरे बेटे हुसैन ने यह कह कर शॉंति की कि हसन नहीं चाहते थे कि उन की वजह से खून खराबा हो, इस लिये उन्हें अलग जगह दफनाया जाये गा।


हज़रत आयशा ने अपना शेष जीवन मुहम्मद के कथनों को लिखने या लिखाने में गुज़ारा। इन्हें हदिथ या सुन्ना कहा जाता है। इन किस्सों में, इन कथनों में कितनी सच्चाई है, यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि कई बार बाद में बताई गई बात पहले की बात से मेल नहीं खाती है। परन्तु इन्हें इस्लाम में पाकीज़ा माना जाता है।

मुआविया ने, जिस ने अली के बाद, बल्कि उसे के होते हुये ही, अपने को खलीफा घोषित किया, हज़रत आयशा को रस्मन खिराज देते रहे पर उस का जीवन कोई बहुत सुखी नहीं था। वह कभी केन्द्र में थी और अब एक किनारे पर। शायद वह केवल एक प्यादा थी किसी और के खेल में।


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