top of page

ईश्वरीय विधान

  • kewal sethi
  • Jul 16, 2020
  • 7 min read

ईश्वरीय विधान


हम जीवित हैं। इस कारण जीवन का कोई निश्चित विधान है। संसार में जो भी है, वह किसी न किसी विधान के अनुसार ही बरत रहा है। सूर्य, चन्द्र, सितारों का विधान है, खनिज पदार्थ का एक निश्चित विधान है, पौधों के बढ़ने का विधान है, फिर मानव इस से विलग कैसे रह सकता है। इस विधान के अनुसार जीवन बिताना ही हमारा कर्तव्य है। हमें यह जीवन ईश्वर ने दिया है तथा यह विधान भी उसी का दिया हुआ है। जो मानवीय कानून हैं, वे केवल उस अंश तक ही मान्य हैं जब तक वह ईश्वरीय विधान के अनुरूप हैं। इस के विरुद्ध जो कानून हैं, उन का विरोध करना न केवल आप का अधिकार है वरन् आप का कर्तव्य भी है। जो व्यवस्था इस विधान के अनुसार है, वही तर्कसंगत है। उस का आदर करना, उस की आज्ञा मानना उचित है। जो व्यवस्था इस विधान के विरुद्ध है, वह स्वीकार्य नहीं है।


नैतिकता का आधार यही ईश्वरीय विधान है। आप के कर्तव्य का यही मापदण्ड है। आप के अधिकार इसी से संचालित होते हैं। यदि आप इस विधान के अनुसार कार्य नहीं कर रहे तो या आप निरकुंश हैं या फिर गुलाम। निरकुंश तब जब आप के पास शक्ति है, गुलाम यदि आप शक्ति विहीन हैं।


परन्तु आप इस विधान के बारे में जानें गे कैसे। इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये सतत प्रयास होते रहे हैं। इन सब अन्वेषकों के उत्तर भिन्न भिन्न हैं। कई किसी पुस्तक का हवाला दे कर कहते हैं कि इस में सम्पूर्ण विधान दिया गया है। दूसरे कहते हैं कि हर व्यक्ति को इस के लिये अपने मन को ही टटोलना हो गा। कई अन्य व्यक्ति विशेष का निर्णय अस्वीकार कर मानते हैं कि समाज ही इस के बारे में निर्णय कर सकता है। जब पूरा समाज किसी विश्वास का मान्य करता है, वही ईश्वरीय विधान है। परन्तु यह सब गल्त हैं। इतिहास साक्षी है कि इन में से कोई भी धारणा सही सिद्ध नहीं हुई है। जो लोग मानते हैं कि सारी नैतिकता किसी पुस्तक विशेष अथवा किसी व्यक्ति विशेष द्वारा प्रतिपादित है, उन्हें यह स्मरण रखना चाहिये कि कोई भी विशिष्ट धारणा शताब्दियों द्वारा प्रचलित रहने के बाद भी नये विधान के पक्ष में अस्वीकार कर दी जाती है। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि भविष्य में भी ऐसा नहीं हो गा। यदि हम ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानते हैं तो उस पर यह रोक लगाना भी उचित प्रतीत नहीं होता कि वह अपना विचार बदल नहीं सकता। दूसरे हम उस के पूरे विधान को जान लें गे, यह दावा करना भी उचित प्रतीत नहीं होता। उस का कुछ अंश ही हमारे पूर्वजों को समझ में आया तथा इस ज्ञान में सदैव विस्तार होता आया है। हो सकता है कि भविष्य में हमें इस का पूर्ण ज्ञान हो पर अभी ऐसा कहना सम्भव नहीं है।


जो व्यक्ति यह कहते हैं कि व्यक्ति विशेष का मन ही निर्णायक है कि क्या अच्छा तथा क्या बुरा है, उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि हर धर्म, हर सम्प्रदाय में ऐसे व्यक्ति रहे हैं जो मान्य सिद्धाँतों में विश्वास नहीं रखते, जो अपने विश्वास के लिये शहीद होने को भी तैयार रहते हैं। ईसाई मत में प्राटैस्टैण्ट सम्प्रदाय प्रचलित सिद्धाँत के विरुद्ध व्यक्तिवाद के सिद्धाँत पर अस्तित्व में आया परन्तु आज उसी प्रोटैस्टैण्ट मत में कितने सम्प्रदाय हैं। वे सभी व्यक्ति की निजी अभिव्यक्ति के आधार पर स्थापित हुए हैं। इसी प्रकार जो लोग मानते हैं कि समाज द्वारा मान्य मूल्य ही नैतिकता हैं, उन्हें यह मालूम होना चाहिये कि विश्व में जितने नये मत चले हैं, वे समाज से विद्रोह करने वाले व्यक्तियों द्वारा ही प्रचलित हुए है। बौद्ध मत का उदय प्रचलित विचारों के विरुद्ध ही हुआ था। आरम्भ में ईसी मसीह ने भी यहूदी सम्प्रदाय में प्रचलित विचारों का विरोध किया तथा इस के लिये यातनायें भी सहीं।


इन सब के होते हुए भी व्यक्ति विशेष की अंतश्चेतना पवित्र है, समाज की सामान्य राय पवित्र है। इन से जो इंकार करता है, वह सत्य को जानने का रास्ता खो देता है। गलती यह होती है कि इन में से कोई एक रास्ता ही सही माना जाता है जब कि सब का समन्वय होना चाहिये। व्यक्ति विशेष की ही केवल मानें तो हम अराजकता के शिकार हो जायें गे, यदि समाज की ही मानें तो हम मानव की स्वतन्त्रता से वंचित हो जायें गे। व्यक्तिवाद की अवधारणा के कारण ही वह आर्थिक व्यवस्था विकसित हुई जिसे पूॅजीवाद के नाम से जाना जाता है तथा जिस में केवल प्रतियोगिता को ही प्रगति का आधार माना गया। इस व्यवस्था के कारण ही व्यक्ति को इतने कष्ट सहने पड़े कि आज विश्व का कोई भी देश बिना राज्य के (अथवा परोक्ष रूप से समाज के) हस्तक्षेप के जीवन की सोच भी नहीं पाता है। इसी प्रकार समाज को सर्वाेपरि मानने वाले साम्यवाद ने मानव मात्र के लिये वह व्यवस्था की कि आज उस के प्रवर्तक स्वयं ही उस के विरुद्ध हैं।


ईश्वर ने हम को समाज की मान्यतायें तथा व्यक्ति की चैतन्य, दोनों दिये हैं तथा यह पक्षी के दो परों के समान है। इस दोनों की ही सहायता से उड़ान भरी जा सकती है। हम किसी एक पर को काटने का प्रयास क्यों करें। किसी की आवाज़ को दबाने को प्रयास क्यों करें। दोनों ही पवित्र हैं। ईश्वर दोनों में ही बोलता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इसी प्रकार किसी पुस्तक में भी जो सिद्धाँत दिये गये हैं, वे भी मान्य किये जा सकते हैं यदि वह समय की परीक्षा पर खरे उतरे हैं तथा आज के पर्यावरण में भी संगत हैं।


आप के कर्तव्य केवल नकारात्मक नहीं हो सकते। आप चोरी नहीं करो गे, आप असत्य नहीं बोलो गे, यह सब नकारात्मक आदेश हैं। इन के बारे में अशिक्षित का मन भी उसे ऐसा करने से रोके गा। जब भी हम ऐसा कार्य करें गे जिये समाज गुनाह कहता है, हमारा मन उस का विरोध करे गा। यह ऐसी आवाज़ है जिस से आप अपना कृत्य छुपा नहीं पाते भले ही समाज से छिपा लें। व्यक्ति विशेष का मन उस की शिक्षा, उस के विचार, उस की आदत, उस की भावना के अनुरूप ही उस को रोके गा। लम्बे समय तक एक ही बात का प्रचार करते करते लोग स्वयं ही यह मान बैठते हैं कि वे सत्य का अंश हैं जैसे कि यह धारणा कि विकासशील देशों के लोग तकनालोजी में पाश्चात्य देश के बराबर नहीं आ सकते अथवा भारत में यह विचार कि निम्न जाति के लोग किसी विद्या अथवा कला में पारंगत नहीं हो सकते। यह विचार स्वयं सुझाये गये हैं तथा इन का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता है।


इस कारण मन के दिशा निर्देश के लिये भी व्यवस्था होना चाहिये। उस के लिये भी मार्गदर्शक होना चाहिये। हमारे कर्तव्य केवल नकारात्मक ही नहीं हैं, वे सकारात्मक भी हैं। इस के लिये हमें ईश्वर ने बुद्धि दी है, विवेक दिया है। मनुष्य का जीवन छोटा है, वह अपने में निर्बल भी है। इस कारण ही समाज की, मानवता की भूमिका है। समाज का विवेक उस में समाहित व्यक्तियों के विवेक का योग है। किसी विद्वान ने कहा है कि मानवता वह प्राणी है जो सदैव सीखता रहता है। व्यक्ति समाप्त हो जाता है किन्तु उस के द्वारा प्रदत्त विवेक मानवता के विवेक का भाग बन जाता है। आने वाला व्यक्ति उस का लाभ उठाने की स्थिति में होता है। यह एक ऐसा भवन है जिस में हर व्यक्ति एक ईंट जोड़ देता है जिस से अन्त में एक बड़ा भवन तैयार हो जाता है। किसी किसी व्यक्ति में प्रतिभा होती है तथा वह अन्य के लिये मार्गदर्शक बन सकता है पर आम व्यक्ति का योगदान उतना दृष्टिगोचर न होते हुए भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। मानवता के सिद्धाँत केवल कुछ प्रतिभावान लोगों द्वारा नहीं बनाये गये हैं। इस में आम आदमी की भी उतनी ही भूमिका है। वह खामोश रहते हुए भी अपना महत्वपूर्ण योेगदान देता रहता है। इस के लिये प्रेरणा उसे अन्तःमन से प्राप्त होती है। कहा जाये तो ईश्वर ही मानवता के रूप में दृष्टिगोचर होता है।


मानवता किसी देश तक सीमित नहीं है। इस कारण कोई देश, कोई समाज यह दावा नहीं कर सकता कि उस ने ईश्वर के विधान की सही व्याख्या कर ली है। ईश्वर एक है, उस का विधान एक है पर वह इतना असीमित है कि उस के एक अंश का ही किसी को पता चल सकता है। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना ही प्रतिभाशाली क्यों न हो, उस के पूरे स्व्रूप की कल्पना तक नहीं कर सकता है। इन सब को मिला कर ही एक ऐसा चित्र तैयार होता है जिसे कुछ सीमा तक पूर्ण कहा जा सकता है। अर्थात किसी एक व्यक्ति के विचार ही समुचित नहीं हैं, उन का समन्वित रूप ही विधान की थोड़ी सी रूपरेखा लक्षित करता है।


वह एक है पर फिर भी परिवर्तनशील है क्योंकि उस का विकास होता रहता है। इसी परिवर्तन के कारण हमारे कर्तव्य बदल जाते हैं, हमारी आवश्यकतायें बदल जाती हैं। इस कारण केवल अपने मन को ही नहीं देखना है वरन् पूरी मानवता के मन को देखना है। नैतिकता प्रगतिशील है जैसे हमारी शिक्षा प्रगतिशील है। मनु के काल की नैतिकता हमारे काल की नैतिकता नहीं है। उस काल की नैतिकता उस काल की आवश्यकताओं के अनुरूप थी। वह गलत नहीं थी पर तभी के लिये उस का संदर्भ था। आज संदर्भ बदल चुका है। मानसिकता बदल चुकी है। आज विश्व सिकुड़ चुका है। किसी भी विचार को फैलने में समय नहीं लगता है। शिक्षा पर सब का अधिकार है। इस कारण परिवर्तन पर सब का अधिकार है। आवश्यकता इस बात की है कि जो व्यवस्था इस परिवर्तन से वंचित करती है, उसे मान्यता देने से इंकार किया जाये। पुराने काल में ऐसा हिंसापूर्ण ढंग से होता था क्योंकि रूकावटें अधिक थीं। शिक्षा की व्यापकता का अभाव था। जिन तक पहुँचा जा सकता था, उन की संख्या सीमित थी। सर्व साधारण तक अपनी आवाज़ पहुँचाना वर्जित था तथा इस के लिये तन्त्र भी विद्यमान था। आज उस हिंसा की आवश्यकता नहीं है, शिक्षित करने की आवश्यकता है ताकि ऐसी लहर उठे जो मानवता के सही मापदण्ड स्थापित कर सके।


जैसा कि पूर्व में कहा गया है, हमारे कर्तव्य केवल नकारात्मक नहीं हैं। वह सकारात्मक भी है। केवल असत्य से नहीं बचना है, सत्य का साम्राज्य स्थापित करना है। केवल चोरी न करना ही काफी नहीं है, चोरी न करने देने का भी दायित्व है। केवल अन्याय न करना ही समुचित नहीं है, किसी का समाज के प्रति अन्याय न करने देने की क्षमता का भी उöव करना है। ईश्वर के विधान के सही स्वरूप को पहचानने के लिये हमें अपने विवेक को साथ में रखना है, मानवता के विवेक को भी ध्यान में रखना है। केवल अपने काल की नहीं वरन् शताब्दियों से एकत्रित ज्ञान का सहारा लेना है। अपने ऋषियों, सन्तों द्वारा जिस एकात्मकता का दर्शन किया गया है, उस पर मनन करना है। तभी हम उस विधान को जान पायें गे। हमारा विश्वास मानवता में है। उसी के लिये हमें कार्य करना है।


Recent Posts

See All
why??

why?? indus valley civilisation is recognized as the oldest civilisation in the world. older than that of mesopotamia and egypt. yet they...

 
 
 
कन्फूसियसवाद

कन्फूसियसवाद चीन में तीन विचार धारायें साथ साथ चलती रही हैं - ताओवाद, कन्फॅूसियसवाद तथा बौद्ध विचार। कन्फूसियसवाद प्राचीन है तथा कनफूसियस...

 
 
 
विश्व की एकमेव जाति

वस्तुतः मानवजाति ही विश्व की एकमेव जाति है वस्तुतः विचार करने पर प्रतीत होता है कि इस विश्व में एक ही जाति है और वह है मानवजाति। एक ही...

 
 
 

Comments


bottom of page