कटनी
कटनी - तुम्हीं तो हो प्रदेश की पहचान
तुम्हारी महानता का कौन कर सका बखान
मध्य प्रदेश के मध्य में एक अलबेला नगर
मिलती हैं जहां आ कर दिशाओं से डगर
सभी तरफ होता है यहां से माल रवाना
मिलता न तुम्हें फिर भी पेट भर खाना
सप्लाई करती तुम प्रदेश क्या देश को चूना
फिर भी होता है मुफलिसपन तुम्हारा दूना
दौलत से भरपूर अपने में ही हो मस्तानी
पर हो तुम फिर भी सादगी की दीवानी
अपनी दौलत की शान बखाना नहीं चाहती हो
इस लिये ढंग का कालेज न हस्पताल बनवाती हो
अतिथियों पर भी झूटा रौअब नहीं जताना चाहती हो
इसी लिये अच्छा होटल बनाने से घबराती हो
भारतीय सभ्यता की तुम दृढ़ रखवाली हो
विदेशी ढंग के कल्ब से तुम निराली हो
प्यारा है तुम्हें काम ध्येय आराम नहीं है
सो पार्क से भी तुम्हें कुछ काम नहीं है
चाहती हो कि हो सब को अहसास काम का
इसी लिये तो होटल नहीं कोई यहां काम का
न कोई बाग़ है कि जा कर सुस्ता लीजिये
न पिकनिक की ठौर कि दिल बहला लीजिये
सिनेमाघर वैसे तो यहां पर कहने को चार हैं
न जाने क्यों खटमलों को उन से प्यार है
लगता है कटनी ने सांस्कृतिक बनाये हैं खटमल
रौज़ाना तीन तीन शो देख कर भी जाते नहीं घर
स्तर सब का तुम सच मुच ऊपर उठाना चाहती हो
इस लिये पैसा सिर्फ पैसा कमाना चाहती हो
नेता यहां का समझा जाता वही महान है
जिस पर सरकार का बकाया छूता आसमान है
या फिर जनता को भड़काना जानता है
रात को दिन, दिन को रात बताना जानता है
कारों पर चढ़ कर घूमते हैं नेता महान
कद्र ताकि उन की पहचानें मज़दूरो किसान
तारीफ की जाये जितनी भी कम है
छोड़ रहा हूं तुझ को मुझे यही गम है
उम्मीद है फिर लौट कर आऊं गा मैं
कुछ और भी निखरा हुआ तुझे पाऊं गा मैं
चाहे रहूं कहीं भी मुझ को कटनी याद आये गी
बात होगी शहरों की तो तू सरताज कहलाये गी
(कटनी - जुलाई 1967। ज़ाहिर है कि यह कविता वहां से स्थानान्तर के समय ही लिखी गई थी और उस समय की हालत ब्यान करती है। अब तो कटनी बहुत बदल गई है)
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