हमला
रविवार का दिन था। और दिसम्बर का महीना। दिलेरी आराम से उठे और चाय पी। कुछ सुस्ताये। उस के बाद नहाने का प्रोग्राम बना। पानी पतीले में गर्म किया। बालटी में डाला और ठण्डा पानी मिलाया ताकि कुछ आराम से नहा सकें। रोज़ तो जल्दी होती है पर इतवार को तो कुछ राहत मिलती है।
नहाने के लिये कपड़े उतारे ही थे कि एक ज़ोरदार चीख सुनाई दी। अपने ही घर से आ रही थी और रसोई की तरफ से। चीख ऐसी कि सारे मौहल्ले में सुनाई दे। आखिर घर तो सब पास पास ही थे। कोई बंगला तो था नहीं कि आस पास गमले और घास का मैदान होता। दिलेरी ने जल्दी से अण्डरवियर पहना और भागा, इस से पहले कि पास पड़ौस के लोग दरवाज़ा खटखटायें, यह जानने के लिये कि हुआ क्या।
रसोई से चीख आई थी तो उधर का ही रुख किया। देखा पत्नि श्री खड़ी थीं और थरथरा रही थी। एक दम बदहवास।
क्या हुआ - दिलेरी ने कहा।
पर पत्नि श्री के मुॅंह से आवाज नहीं निकल पा रही थी। उस ने वैसे ही सिर्फ हाथ का इषारा किया।
दिलेरी ने उधर देखा पर कुछ दिखा नहीं। दाल का डिब्बा रखा था और बस। ढक्कन खुला था। पर और तो कुछ था नही। दिलेरी ने फिर पूछा - क्या, कहॉॅं।
डिब्बे के पीछे - आखिर पत्नि श्री की आवाज़ आई धबराहट भरी।
डिब्बे के पीछे देखा। एक छिपकली थी जो दिलेरी के उस तरफ बढते ही भाग गई पास रखे पीपे के पीछे।
- उस ने मेरे ऊपर हमला किया।
- कैसे।
- मैं दाल निकालने लगी तो एक दम सामने आ गई। और मेरे ऊपर कूदी। उस का इरादा क्या था, पता नहीं।
- फिर वापस कैसे चली गई। कया तुम ने उठा कर वापस रख दिया। अभी तो वह डिब्बे के पीछे थी।
- उसे भगाओ।
- वह तो खुद ही भाग गई।
पत्नि श्री की सांस में सांस आई, जब पत्नि श्री को भरोसा हो गया कि छिपकली वहॉं नहीं है जहॉं उसे नहीं होना चाहिये था।
जैसे कि डर था दरवाज़ा खटखटाया गया। पड़ौसी गोपाल दास थे। क्या हुआ तो उन को बताया कि कुछ नहीं, बस ऐसे ही दिल किया कि चीखे तो चीख ली। गोपाल दास से देखा कि दिलेरी तो अभी अण्डरवियर ही में है और ऐसे में बैठने का या चाय पानी मिलने का कोई इमकान नहीं है तो उन्हों ने लौटने में ही भलाई समझी।
सब नार्मल हो गया।
दिलेरी सोच रहा था कि हुआ क्या हो गा। छिपकली को कैसा लगा हो गा जब उस की पत्नि की चीख सुनाई दी। कितना डर लगा हो गा उसे जब पत्नि श्री ने डिब्बा ज़ोर से पटका हो गा।
वह कह पाती तो अपनी बेटे पोते को बताती कि मेरे ऊपर हमला हुआ पर मैं डरी नही। फौरन एक होषियार छिपकली की तरह डिब्बे को ढाल बना कर खड़ी हो गई। तब तक डटी रही जब तक दुष्मन की कुमक नहीं आ गई। अब वह दो हो गये तो मैं ने पलायन का ही अपनी नीति माना और मैदान से हट गई। बच्चो, हमेशा याद रखो, किसी मुश्किल वक्त में घबराना नहीं है। डटे रहो तो मुसीबत टल जाये गी। और दूसरी बात, जब दुश्मन ताकतवर हो तो पलायन करो ताकि दौबारा लड़ने की हिम्मत बाकी रहे। यह ज़माना कमज़ोर का नहीं है। हिम्मत वाले का है।
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