मसूरी
यूं ही बैठे बेठे कूछ गुनगुना रहा था मैं
शायद कोई भूला नगमा दौहरा रहा था मैं
कहा इक दोस्त ने कि मंसूरी शहर अच्छा है
इस पर भी कहें कुछ तो जचता है
मैं ने भी सोचा
सही हो गा मसूरी पर कविता लिखना
कलम हाथ में ली
मन घूमने लगा मंसूरी के चारों तरफ
कुलड़ी में रंगबिरंगे चहचहाते फूल
लिखने के लिये मौजूं मज़मून थे
ऊपर आसमान में नीचे देहरादून में चमकते सितारे
कल्पना को उड़ान को देते सकून थे
तभी नज़र रिक्शा खींचते हुए
दो पैर के जानवरों पर दौड़ गई
सामान पीठ पर लादे जाते हुए कुली
नज़रों के आगे घूमने लगे
जो खूबसूरती देखी थी पहली बार
वह अब नज़र नहीं आती
तब हर शाम पुरबहार थी
हर सुबह इक नई दास्तान सुनाती थी
मंसूरी का हर पत्थर लिये एक अफसाना था
हर दिन प्यारा था
हर रात निराली थी
काम्पटी से पानी नहीं अमृत बहता था
बरफ से ढके पहाड़ ---
लेकिन आज
इस बार
यह सब अजनबी से लगते हैं
नीचे देहरादून देखता हूं तो
सितारे दिखाई नहीं देते
केवल कुछ रेंगते हुए इनसान
पेट की खातिर
इधर से उधर
उधर से इधर
जाते दिखाई देते हैं
रोपवे भी मन को बहला नहीं सका
इस में भी रुंधे गलों की आवाज़ सुनाई देती है
सब कुछ बदला बदला सा है
या शायद
मैं बदल गया हूं
(मसूरी 27.4.1971)
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