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तलाश

kewal sethi

तलाश


क्या आप कभी दिल्ली के सीताराम बाज़ार में गये हैं।

नहीं न। कोई हैरानी की बात नहीं है।

हॉं, यह सीता राम बाज़ार है ही ऐसी जगह। शायद ही उस तरफ जाना होता हो। अजमेरी गेट से आप काज़ी हौज़ की तरफ जाते हैं तो रास्ते में दायीं ओर एक पैंतालीस डिग्री के एंगल पर एक सड़क निकलती है जिसे सीता राम बाज़ार कहते हैं। यह वहॉं से तुर्कमान गेट तक जाती है। तुर्कमान गेट पहले होता था, अब नहीं है। संजय गॉंधी के ज़माने में नहीं रहा। पर वह अलग कहानी है।

वैसे सीता राम बाज़ार में कुछ खास नहीं है। वही तंग तंग सा बाज़ार जैसा सभी पुराने शहरों में पाये जाते हैं। शायद शाहजान के ज़माने में भी रहा हो गा। दोनो तरफ पुरानी पुरानी सी दुकानें। दुकानों में बेतरतीब फैला हुआ सामान। जिन्हें अमरीका के कास्टको और टारगैट की याद है, वे इन दुकानों का लचीलापन क्या जानें। सब कुछ है पर सिवाये ढेर के कुछ भी नहीं दिखता। दुकानदार को कहो, वह कहीं न कहीं से मिनटों में निकाल लाये गा।

खैर, इन दुकानों के बारे में यह किस्सा नहीं हैं। यह किस्सा है उन गलियों का जो जा बजा जगह से बाज़ार से निकलती हैं। बिल्कुल तंग तंग सी। वाहन का जाना भी मुश्किल पर वहॉं के जांबाज़ लोग स्कूटर और बाईक तो ले ही जाते हैं। उन्हें देख कर हैरत भी होती है और थोड़ा गर्व भी उन की पटुता पर होता है। यह बात इन्हीं गलियों की है। वैसे तो हर गली का नाम है पर उसे उस गली में रहने वाले के सिवा कोई नहीं जानता। कूचा बेहलियॉं, बहराम गली, क्टरा फिरेाज़ा और न जाने क्या क्या। शायद डाकिये को पता हो गा। वैसे तो उसे रहने वालों के नाम भी याद हो जाते हैं, या हो जाते थे जब खत लिखने के दिन थे। वह दिन तो लद गये। अब तो मोबाईल हैं।

ऐसे सीताराम बाज़ार में एक व्यक्ति पहुॅंच गया। उस का लक्ष्य था सेठ राम गोपाल से मिलना। पता तो सेठ जी ने दिया था पर ऐन वक्त पर वह गली का नाम भूल गया। न भी भूलता तो बताता कौन। शायद ही किसी को नाम पता होता। बस एक ही रास्ता था - किसी दुकान वाले से सेठ राम गोपाल का पता पूछते। एक से पूछा तो उस ने कहा कि उसे तो बस पंद्रह साल हुये हैं इस दुकान को लिये हुये। उन्हें तो सेठ राम गोपाल के बारे में पता नहीं है। और दुकानों पर भी यही सुुनने को मिला। कोई पंद्रह साल से था, कोई बीस साल से पर रामगोपाल का नाम, लगता था, उन्हों ने पहली बार सुना है। आखिर एक उम्र रसीदा शख्स जो उस बाज़ार से गुज़र रहा था, ने कहा

- कौन राम गोपाल, जो परचून की दुकान करते थे

- जी बिल्कुल

- फिर उसे बन्द कर रेडिओ टीवी का काम करने लगे।

- आप ने सही फरमाया।

- अभी तो रिटायर हो गये हैं, उन के बेटे काम देख रहे हैं।

- पर मुझे राम गोपाल जी से काम है। इस लिये उन का मकान तलाश कर रहा था।

- तो उन से काम है?

- आप बता सकें गे, उन का मकान कहॉं है।

- ज़रूर। थोड़ा आगे जाना पड़े गा, चार एक गली के बाद उन की गली पड़े गी। उस में मुड़ जाईये गा। पॉंचवॉं मकान उन का है।

- जी, कौन सी गली हो गी

- वह आप देख रहे हैं। वह कौआ खम्भे पर बैठा है। उस के सामने वाली गली ही है। खुदा हाफिज़।

- मेहरबानी आप की।

हमारे साहब ने कहा। आखिर किसी ने तो बताया। खुश, खुश आगे बढ़े।

पर यह क्या, कौआ तो उड़ गया।

अब वह कहॉं बैठे गा।

हैरान परेशान से वह खड़े थे। अब फिर से पूछना पड़े गा। वापस जा कर उन्हीं बुज़र्ग से पूछता हूॅं। पर वह इधर उधर हो गये हुये तो? सेठ राम गोपाल का नाम तो पता था, इन का नाम भी नहीं पता। क्या करें? इसी उधेड़बुन में खड़े थे। न आगे जा सकें, न पीछे।

परेशानी में खड़े थे। सीताराम बाज़ार के लोग बड़े हमदर्द्र हैं। मालूम हो तो पता एक बार नहीं, दस बार बतायें गे। पर मालूम हो तो न। पर हमदर्दी तो कर ही सकते हैं न।

एक व्यक्ति ने उन्हें परेशान सा देखा तो आ कर बोले

- परेशान दिख रहे हैं। क्या बात है। मैं मदद कर सकता हूॅं।

- दर असल बात यह है कि कौआ उड़ गया।

- कौआ उड़ गया तो इस में परेशान होने की बात क्या है। पालतु तो हो गा नहीं।

- जी, वह कौआ मकान भी अपने साथ ले गया।

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