अनपढ़
- सुनो, मैं ज़रा जा रहा हू। बाहर तक। देर से लौटूॅं गा।
- अभी तो आये हो। फिर जा रहे हो।
- मिलना है किन्हीं से
- रोज़ रोज़ यही कहते हो। घर पर भी कभी रुको
- रुक कर क्या करूॅं। आदमी को बात चीत के लिये दूसरा चाहिये।ं
- ठीक है। मैं भी चलूूॅं क्या?
- तुम? तुम वहॉं क्या करो गी। वहॉं बात चीत करना पड़ती है और वह तुम्हारे बस की बात नहीं है।
- सुन तो सकती हॅ, उस पर तो रोक नहीं है।
- सुनने से नहीं मततब।ं कुछ समझ भी तो आना चाहिये। तुम ठहरी अनपढ़, तुम्हारे बस की बात नहीं।
- सुनने से ही तो समझ आये गी। सुनु गी नहीं तो समझूॅं गी कैसे।
- सुनने भर से समझ आ जाता तो मामला ही दूसरा होता। याद भी रहना चाहिये।
- पूरी चौपाइ्रयॉं याद हैं तुलसी की। सुनो गे?
- रहने दो, घिसी पिटी बातों में मुझे सरोकार नहीं।
- पर दिक्कत क्या है मेरे जाने में
- दोस्त भी हों गे मेरे वहॉं पर। कुछ बात करें गे तो तुम्हें समझ ही नहीं आये गी।
- वह फारसी में बात करते है क्या।
- जाने दो। तुम बस घर का काम काज देखों, वही काफी है। मॉं का ख्याल रखना।
कुछ वर्ष बाद
- सुनो जी मुझे नोकरी मिल गई है। कल से जाना है।
- नोकरी मिल गई है। तुम्हें? काहे की, बर्तन मॉंजने की
- जी नहीं।
- तो फिर सफाई की हो गी।
- है तो सफाई ही की।
- और वहॉं मेरे दोस्त मिल गये तो?
- मुझे कौन से पहचानते हैं। कभी धर पर बुलाये हो उन को।
- बुलाता भी कैसे। शर्म आती है मुझे। बात करने का सलीका है क्या तुम में।
- आज़मा कर तो देखते।
- रहने दो। नोकरी मिली कहॉं है।
- लाईब्रेरी में। ग्यारह से पॉंच।
- और अम्मॉं जी को कौन देखे गां
- देखने की क्या ज़रूरत है। सुबह खाना बना कर दे जाऊॅं गी। शाम को आ कर बना दूं गी।
- ग्यारह से पॉंच। इतनी देर सफाई।
- फर्श की नहीं, दिमाग की।
- मतलब?
- फर्श की सफाई तो झाड़ू से की जाती हैं, दिमाग की किताबों से। पर तुम नहीं समझो गे। कभी सोचा ही नहीं तुम ने इस बारे में। किताब घर में है पर कभी उठाते, पढ़ते नहीं देखा तुम को।
- सारा दिन दफतर में काम में रहता हूॅं, तुम्हें यह नहीं पता।
- तुम कभी धर में भी ऑंखें खोल कर देखते हो क्या। दफतर में ही खोये रहते हो।
- और क्या कर सकता हूॅं। पर दिमाग की सफाई? समझ नहीं आई। यह नौकरी मिल कैसे गई। क्या देखा उन्हों ने तुम में। और कब देखा।
- तुम्हें यह जान कर अजीब लगे गा। मैं ने कारैपाण्डैन्स कोर्से से बी पी पीं भी कर ली। और लाईब्रेरी का प्रमाणपत्र भी कर लिया।
- हैं, यह कैसे हुआ।
- इसी लिये तो कहती हूॅं, घर पर रहो तो इधर उधर झॉंक लिये करो। सिर्फ रोटी चाय से मतलब न रखो। और नहीं तो मॉं से ही पूछ लेते। उन्हें मेरी पढ़ाई का, मेरी नौकरी का सब पता है। पर वह भी अनपढ़ है, सो बात कैसे करते। बस यही तकलीफ तुम्हें है। अपने ऊपर तरस खाते रहते हो। तुम्हें हमेशा ऐसा लगता है जैसे तुम अनजान देश में फंस गये हो। वैसे न मैं गंवार हूॅं, न मॉं जी। तुम्हारी अपनी कमज़ोरी ही तुम्हें सेाचने का मौका नहीं देती। सच पूछो तो अनपढ़, गेंवार तुम्हीं हो, और कोई नहीं।
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