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ज़िला सरकार गठन और प्रशासनिक संगठन

ज़िला सरकार का गठन और प्रशासनिक संगठन

लाक आउट (या लाक इन) के इस दोर में पुरानी फाइ्रलें देखना समय बिताने का अच्छा तरीका है। इसी में में ने 1999 में लिखे एक लेख को देखा। यह ज़िला सरकार के बारे में है। 1999 में इस का ज़ोर शेार से प्रचार किया गया था जिस में विकेन्द्रीकरण को मुख्य लक्ष्य बताया गया था। इस की वास्तवविकता क्या थी, इस पर यह लेख आधारित था। आज के समय में यह कितना संगत है, कहना कठिन है। विकेन्द्रीकरण की बात आज भी की जा रही है और शायद काफी समय तक की जाती रहे गी। इस बीच इस लेख को देखा जाये। मध्य प्रदेश वालों को इस का संदर्भ विदित हो गा पर दूसरे भी शायद स्थिति को भॉंप सके, इस आशा के साथ यह लेख प्रस्तुत है।


ज़िला सरकार का गठन और प्रशासनिक संगठन


केवल कृष्ण सेठी


एक साक्षातकार में जब एक प्रत्याशी से प्रश्न पूछा गया कि ज़िला सरकार का जो गठन हो रहा है उस के बारे में उसकी क्या राय है तो उस ने बहुत ही माकूल उत्तर दिया कि अभी तो दुल्हन घूॅंघट में है। क्या कहा जा सकता है। उस के कहने का तात्पर्य यह था कि अभी इस की कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है कि आखिर चाहा क्या जा रहा है। न केवल प्रत्याशियों को वरन् स्वयं प्रवर्तकों को भी इस बारे में पता नहीं था यद्यपि इस बात पर सब सहमत थे कि यह एक लुभावना विचार है। इसी लिए इस का ज़ोर शोर से प्रचार किया गया। इसे लोक शक्ति की ओर बढ़ते हुए कदमों की संज्ञा दी गई। ऐसा दर्शाया गया जैसे कि इंगलैंड के मैग्ना कार्टा के पश्चात यह सब से बड़ी उपलब्धि हो।


पर आज की स्थिति क्या है। क्या रूप रंग ले कर आया है यह अभिनव प्रयोग। यदि पूर्व की उक्ति को ही आगे बढ़ाया जाए तो यह कहना होगा कि दुल्हन आखिर बहू भी होती है। और बहू घर की इज़्ज़त होती है। जैसी भी है, अच्छी ही है। इस पर अब प्रश्न मत उठाओ। पर्दा रहने दो। जो भी उस का रूप है, वही अच्छा है। जो भी उस की आदत है, वही आदर्श है। वह दासी से बहू बनी है, यह राज़ ही रहने दो। इसी तरह ज़िला सरकार की बहुप्रचारित योजना की जो रूप रेखा सामने आई है वह पुरानी शराब नई बोतल में पेश करने के समान है। वही ज़िला योजना बोर्ड नए रूप में प्रस्तुत है। यदि प्रारम्भ में यह कह दिया जाता कि ज़िला योजना मण्डलों को अधिक व्यापक बनाया जा रहा है तथा उसे अधिक अधिकार दिए जा रहे हैं तो जो माहौल तैयार किया गया था वह नहीं हो पाता। यह अलग बात है कि कुछ वर्गों में निराशा हुई हो गी क्योकि वह क्राॅंतिकारी परिवर्तनों की बात सोच रहे थे। सामान्यतः किसी योजना के बारे में पहले सोचा जाता है तथा उस के पश्चात उस के बारे में प्रचार किया जाता है। पर यहाॅं तो पहले प्रचार किया गया और फिर उस के बारे में सोचा गया प्रतीत होता है। सचिवालय में अधिकारियों ने रातों की नींद हराम कर वह तरीका खोज निकाला है कि साॅंप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। ज़िला सरकार भी बन जाए और कुछ करना भी न पड़े। संभवतः यह महसूस किया गया कि कथित ज़िला सरकारों को कोई संवैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं हो गा। उस के निर्णय किसी के लिए बंधनकारी नहीं हों गे। बजट तो विधान सभा को ही पारित करना हो गा। महानियंत्रक जो भी आडिट प्रतिवेदन तैयार करें गे वह राज्य शासन को ही संबोधित हों गे। राज्य शासन इस दायित्व को कथित ज़िला सरकारों पर नहीं डाल सकें गे। उच्च न्यायालय के समक्ष राज्य शासन ही उत्तरवादी या प्रतिवादी के रूप में दर्शाये जायें गे।


पर जैसे भी हो यह स्पष्ट है कि ज़िला योजना मण्डलों को और अधिक अधिकार मिल जायें गे। यह अच्छा ही है। योजनायें ज़िला स्तर पर बनें यह एक प्रशंसनीय कदम हो गा। एक लम्बे समय से राज्य शासन इस ओर प्रयास कर रहा है। कभी अनाबध्द राशि के माध्यम से। कभी ज़िला पंचायतों तथा अन्य स्थानीय संस्थाओं को अधिक राशि दे कर। कभी आयुक्तों तथा ज़िलाध्यक्षों को अधिक वित्तीय अधिकार दे कर। इस से अधिक लाभ नहीं हुआ पर कम से कम प्रयास तो जारी है और रहना चाहिए क्योकि शासन जितना भी जनता के निकट हो गाउतना ही अच्छा हो गा। प्रयास जारी रखने के लिए मुख्य मंत्री बधाई के पात्र हैं।


देखना यह है कि अब इस नवीन प्रणाली का हश्र क्या होगा। पूर्व में भी ज़िला योजना बनाने का विचार आया था पर ज़िला योजनायें बन नहीं पाइ्र्र यद्यपि ज़िला योजना मण्डल एक लम्बे समय से कानून की किताबों में विद्यमान है। इस से पूर्व वह कार्यपालिक अनुदेशों के तहत कार्यरत थे। एक बार शासन ने तीन ज़िलों की आदर्श पंचवर्षीय योजना बनाने का काम शासन की ही एक संस्था को दिया। सात वर्ष के बाद भी उस पर काम चल रहा था। चार पाॅंच परिवारों की भोपाल में रोटी रोज़ी उस से चल रही थी। इस से अधिक कुछ नहीं हो पाया। एक अपेक्षा तो इस लिये यह रहे गी कि काम ज़िलों को सौंपा गया है तो उन्हें करने भी दिया जाए। इस का केन्द्रीयकरण न किया जाए। अधिक विस्तृत अनुदेश जिस से ज़िलों की समस्त पहल ही समाप्त हो जाए, जारी न किये जाएॅं। तथा आदर्श योजनायें तो कतई्र न बनाई जायें। केन्द्रीयकरण की यह प्रवृति केवल मध्य प्रदेश में ही हो ऐसा नहीं है। केन्द्रीय सरकार में भी एक बार कहा गया कि प्रौढ़ शिक्षा में स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप ही पुस्तकें तथा पाठ्यक्रम बनना चाहिए। कुछ समय पश्चात महसूस किया गया कि निदेशालय क्या करे गा। अतः यह निश्चय किया गया कि स्थानीय बनाए गये पाठ्यक्रमों की समीक्षा की जाए। अगला कदम यह था कि चूॅंकि सब स्थानों का स्तर अलग अलग है और इस से विभिन्न स्थानों के साथ अन्याय हो रहा है अतः एक आदर्श पाठ्यक्रम बनाया जाना चाहिए ताकि सभी उस के अनुरूप पाठ्यक्रम बना सकें। इस के बाद यह लगभग अनिवार्य हो गया कि इस आदर्श पाठ्यक्रम को अपनाया जाए अन्यथा उस के बिना अनुदान मिलना कठिन हो जाए गा। निदेशालय तथा मंत्रालय के लिए मापदण्ड तैयार हो गया और वह उसी पर सब प्रस्ताओं का मूल्याॅंकन करते थे। जो प्रस्ताव उस के अनुरूप नहीं होता था वह खटाई में पड़ जाता था। इस प्रकार आदर्श कायम करने के नाम पर केन्द्रीयकरण कर दिया गया।


इसी क्रम में दूसरा उदाहरण योजना आयोग का है। योजना आयोग का संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। संविधान के अनुसार राज्य अपना कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं। केन्द्रीय सरकार का उन पर नियंत्रण नहीं है, जब तक कि यह सिध्द न हो जाए कि किसी राज्य में संविधान के अनुसार कार्य नहीं हो सके गा। आधूनिक भारत में हमेशा दोमुंहापन का प्रचलन रहा है। अतः राज्यों की स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए समग्र प्रगति के नाम पर पूरे राष्ट््र के लिए एक योजना बनाने का निणर्य लिया गया। राज्यों की आर्थिक स्वतंत्रता की बलि दे दी गई। राज्यों की योजना का निर्धारण दिल्ली में ही होने लगा। सभी अधिकारियों को दिल्ली जा कर अपनी योजना का अनुमोदन लेना होता है। मुख्य मंत्री योजना आयोग के उपाध्यक्ष की चापलूसी कर थोड़ा अधिक धन लेने की लालसा करने लगे। योजना आयोग का आकार बड़ा होता गया। उस के अधिकारी राज्यों के अधिकारियों से इस प्रकार व्यवहार करने लगे जैसे कोई दाता अभ्यार्थी से करता है। केन्द्रीय प्रवत्र्तित योजनाओं, जिस में 50 प्रतिशत या कुछ राशि केन्द्रीय बजट से दी जाती थी, के माध्यम से राज्यों की योजना को प्रभावित किया गया। सीमित साधन के फलस्वरूप वित्त सचिव सभी विभागों से अनुरोध करते थे कि अधिक से अधिक मात्रा में केन्द्रीय प्रवत्र्तित योजना से पैसा ले कर आयें। राज्य की पंचवर्षीय तथा वार्षिक योजनायें केन्द्रीय सरकार के इशारों पर ही बनाई जाने लगी।


क्या मध्यप्रदेश में भी इस की पुनरावृति हो गी? क्या तथाकथित ज़िला सरकार राज्य योजना मण्डल की पिच्छलग्गू बन कर रह जाए गी। इस बात की अधिक संभावना संभवतः इस कारण से नहीं है क्योकि मध्य प्रदेश में ज़िलों के लिए प्रभारी मंत्री नियुक्त किए गए हैं। यह मंत्री राज्य योजना मण्डल को हावी नहीं होने दें गे ऐसी अपेक्षा है क्योंकि इस से उन के अपने अधिकार कम हो जायें गे। पर एक दूसरी और मेरे विचार में अधिक गंभीर समस्या पैदा हो जाए गी। ज़िला योजना मण्डल, जिस के अध्यक्ष प्रभारी मंत्री हों गे, स्थानीय प्रजाताॅंत्रिक संस्थाओं को गौन कर दे गा। उन्हें स्वतंत्र निर्णय लेने की पात्रता नहीं रह जाए गी। हो सकता है यहाॅं भी राज्य प्रवत्र्तित योजनाओं का चलन आरम्भ हो जाएं। प्रश्न यह उठता है कि जब जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि उपलब्ध हैं तो अलग से ज़िला योजना बनाने के लिए ज़िला योजना मण्डल के लिए कोई व्यवस्था करना कैसे उचित था। वास्तव में तो पूर्व में स्थापित ज़िला योजना मण्डल को समाप्त करने का निर्णय लेना चाहिए था। कहा यह गया है कि ज़िला परिषद में नगर के प्रतिनिधि नहीं हैं और नगर निगमों तथा नगर पालिकाओं में ग्रामीण क्षेत्र के प्रतिनिधि नहीं हैं अतः कोई समग्र ज़िला योजना नहीं बन पाए गी।। यह कोई गंभीर समस्या नहीं थी। दोनों पक्षों के चुने हुए प्रतिनिधियों के समान संख्या में प्रतिनिधि ले कर प्रभारी मंत्री की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया जा सकता था। इसे एक नया नाम देने तथा इस को इतना प्रचारित करना आवश्यक नहीं था। पर इस सारे क्रिया कलाप में से षडयंत्र की बू आती है। यह अधिकारों के प्रवर्तन की सीधी सादी योजना नहीं है। जिस प्रकार श्री जवाहर लाल नेहरू ने योजना मण्डल का सहारा ले कर राज्यों की आर्थिक स्वतंत्रता पर संदेह चिन्ह लगा दिये हैं और राज्य हर बात के लिए केन्द्र का मुॅंह देखने के अभ्यस्त हो गए हैं उसी प्रकार अब यह नाटक राज्य स्तर पर खेला जा रहा है। कुछ समय पूर्व तक पंचायतों को तथा नगर निगमों को राज्य शासन द्वारा मनचाहे अनुसार भंग कर दिया जाता था और वर्षों उसे प्रशासकों के हवाले कर दिया जाता था। श्रीमती इंदिरा गाॅंधी ने तो दिल्ली नगर निगम के चुनाव इस कारण नहीं होने दिये थे कि कहीं भारतीय जनता दल का व्यक्ति महापौर बन कर एशियन गेम्स का उद्घाटन करने की स्थिति में न हो जाए। मध्य प्रदेश में भोपाल नगर निगम के चुनाव इस आधार पर नहीं कराए गए कि मुख्य मंत्री की राय में प्रशासक ही इसे बेहतर चला सकता था। अब जब कि संविधान में संशोधन होने के प्श्चात इन संस्थाओं को भंग करना और यदि भंग हो ही जाए तो लम्बे समय तक चुनाव न कराना संभव नहीं है, उन्हें पंगु बनाने के लिए एक नया तरीका अपनाया जा रहा है। पंचायतें तथा अन्य स्थानीय निकाय हर बात के लिये ज़िला योजना मण्डल का रास्ता देखने के लिए मजबूर हों गी। इस के बिना उन्हें राज्य शासन से आवश्यक धन राशि नहीं मिल पाए गी। उन का योजना बनाने में अधिक दख़ल नहीं हो गा। वह केवल निर्णयों को लागू कराने के उत्तरदायी हों गे। असफलता का सेहरा उन के सर बंधे गा पर सफलता का श्रेय नहीं मिल पाए गा। निर्णय लेने का अधिकार ज़िला योजना मण्डल का हो गा।


आवश्यकता इस बात की है कि समस्त पंचायतों और नगर निगम/ नगर पालिकाओं के सदस्य, चाहे वह किसी भी दल के हों, मिल कर इस व्यवस्था का डट कर मुकाबला करें और इसे लागू न होने दें। यह बात तय है कि विधान मण्डल में यह आसानी से पारित हो जाए गा क्योंकि स्थानीय संस्थाओ के सशक्त होने का सब से अधिक विपरीत प्रभाव विधायकों पर पड़े गा और उन का महत्व कम हो जाए गा। श्री राजीव गाॅंधी द्वारा संवैधानिक संशोधनों से स्थानीय संस्थाओं को जो स्वतंत्र दर्जा दिया गया है, उस का महत्व, उस की व्यवहारिकता, उस का लाभ कम हो जाए गा। एक बार फिर यह स्पष्ट करना उचित हो कि समग्र ज़िला योजना बनाने की आवश्यकता रहे गी पर उस के लिए एक छोटी सी समिति बनाना समुचित कारवाई हो गी। प्रभारी मंत्री की अध्यक्षता में यह समिति दोनों प्रकार की संस्थाओ कां मार्ग दर्शन एवं परामर्श दे सकती है पर उन के द्वारा किए जाने वाले कार्य में हस्ताक्षेप न किया जाए और निर्णय का अधिकार उन्हीं के पास सुरक्षित रहे। जनता के चुने गए प्रतिनिधि ही जनता के प्रति अपने क्रिया कलाप के लिए ज़िम्मेदार रहें। बिना जवाबदेही के कोई अधिकार देना सदैव कष्टदायक रहता है। उन सुझावों के साथ ज़िला सरकार की योजना का स्वागत है।


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