हो गा चही जो ------------
आज सुबह जब मैं उठा तो मुझ को अजीब सा लग रहा था। किस तरह की करवटें लेती है जिंदगी। क्यों? और वह प्रश्न है न - वाई मी। मैं ही क्यों?
(आगे बढ़ने से पहले मैं स्पष्ट कर दूॅं कि इस लेख का आश्य केवल प्रश्न है, उत्तर नहीं। आप ने देखा हो गा कि जब किसी जगह पर दो कतारें होती हैं तो जिस कतार में आप होते हो, वह धीरे चलती है और दूसरी तेज़। कई बार आप कतार बदल भी लेते हो क्योंकि आप को जल्दी है। तब कुछ देर आप महसूस करते हो कि वह पहले वाली लाईन तेज़ चल रही है, नई वाली धीमी हो गई है। खैर, यहॉं तो आप देख सकते हो पर जीवन के दोराहे पर कौन से रास्ता सही है, कौन सा गल्त, इस को जॉंचने का मौका आप को नहीं मिलता क्योंकि समय पीछे नहीं चल पाता। इस लिये मुझे कोई शिकवा शिकयत नहीं है, केवल उल्लेख भर करने की इच्छा की, सो कर दिया)
आठवीं पास करने के बाद मैं हायर सैकण्डरी स्कूल में दाखिल हो गया। (हायर सैकण्डरी प्रणाली दिल्ली ने अपना ली थी। पंजाब तथा उत्तर प्रदेश ने नहीं) नौवीं वहॉं से की। इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय ने एक नियम बना दिया कि सोलह साल से कम बच्चे को कालेज में भर्ती नहीं करें गे। और मैं इस में शिकार बन गया। नतीजा यह हुआ कि वह शाला छोड़ कर एक निजी शाला में दाखिल होना पड़ा तथा पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा पास करना पड़ी।
इस के बाद कालेज में जाना था। वह स्थिति थी नहीं कि दिल्ली से बाहर जा कर किसी कालेज में प्रवेश लेता। पर किस्मत से दिल्ली में पंजाब विश्वविद्यालय (कैम्प) कालेज था जो पाकिस्तान से आये व्यक्तियों के लिये खोला गया था ताकि पाकिस्तान से आये लोग अपनी पढ़ाई जारी रख सके। यह शाम का कालेज था। दिल्ली का एक मात्र शाम क कालेज। स्वयं पोषित छात्र दिन में नौकरी करते और शाम को कालेज आते। उस में आयु का बन्धन नहीं था, इस कारण मुझे वहॉं दाखिल होना पड़ा। छह वर्ष उस में बिताये।
स्पष्ट है कि इस महाविद्यालय में सामाजिक मेल जोल की सम्भावना कम थी। सहपाठियों की आयु अधिक थी। कई की काफी अधिक। एक थे वेंकटरमन। उन का बेटा मेरे से केवल एक साल छोटा था। उस ज़माने में दफतर भी सप्ताह में छह दिन होता था। एक रविवार का समय ही रहता था, परिवार के लिये और दुनिया भर के काम थे। सामाजिक मेल जोल कहॉं से होता।
आयु अभी भी कम थी अतः आई ए एस परीक्षा में बैठना दूर था। इधर उधर नौकरी की। एक बार आई बी में आ गया। जब उम्र हुई तो आई ए एस परीक्षा के लिये आवेदन दिया जो कार्यालय के माध्यम से भेजा जाना था। आई बी ने पता नहीं कैसा नियम बनाया कि जो आये वह जा न पाये। इस कारण आवेदन अग्रेषित करने से इंकार कर दिया। मन मार कर बैठना पड़ा।
अगले वर्ष कोई जोखिम नहीं उठाया। जब आई ए एस परीक्षा का विज्ञापन निकला तो आई बी से त्यागपत्र दे दिया। अब उस को तो रोक नहीं पाये और मैं कार्यमुक्त हो गया।
आई ए एस की फार्म तो भेज दी पर परीक्षा तो परीक्षा है और फिर साक्षात्कार भी है। लाटरी है। हो गया तो हो गया। इस कारण पंजाब पब्लिक सर्विस परीक्षा भी दे डाली और केन्द्रीय सरकार में सहायक के पद की भी। खैर कालेज में अध्यापक की नौकरी मिल गई। अधिक देर बेकार बैठना नहीं पड़ा। आई ए एस में आ गये तो यह विचार आया कि दूसरी दो में रह गये तो क्या हो गा। पंजाब का तो साक्षात्कार ही नहीं दिया था क्योंकि तब तक आय ए एस का परिणाम आ गया था। फिर भी परिणाम आया तो 49वॉं स्थान था। कुल पद 50 थे, सहायक आबकारी अधिकारी तो लग ही जाते। सहायक की परीक्षा में तो 31वॉं स्थान आ गया तो बड़ी प्रसन्नता हुई।
मसूरी में प्रशिक्षण जिस दिन समाप्त हुआ, उसी दिन पंडित नेहरू ने संसार को अलविदा कह दिया। दूसरे दिन मसूरी से दिल्ली आये तो रास्ते में चाय तक नहीं मिली। यह तो अच्छा हुआ कि टैक्सी मिल गई।
होशंगाबाद में पहली नियुक्ति मिली। जायनिंग समय का हिसाब लगा कर 8 जून का वहॉं रिपोर्ट करना था। जैसा मसूरी में बताया गया था, वैसे कलैक्टर को अपने आने की सूचना दे दी तथा विश्राम भवन में रहने की अनुमति भी मॉंग ली। अब हुआ यह कि 8 जून को ही पण्डित नेहरू की तेरहवीं पड़ती थी। उन के फूल नर्मदा में भी प्रवाहित होने थे और स्थान चुना गया होशंगाबाद। मुख्यमन्त्री भी आये और कई अन्य गणमान्य व्यक्ति। सभी अधिकारी व्यस्त थे। ऐसे में सहायक कलैक्टर किस खेत की मूली हैं। कोई भी लेने नहीं आया। चपड़ासी भी नहीं। तब ध्यान आया कि आज तो महत्वपूर्ण दिन है और विश्राम भवन में स्थान मिलने का प्रश्न नहीं है तो टॉंगा ले कर विश्राम गृह का रुख किया। सौभाग्य से वहॉं कमरा मिल गया।
दूसरे दिन कलैक्टर के सामने पेश हुये। उन्हों ने बताया कि एक और सीधी भर्ती वाले भी है। दिल खुश हुआ कि एक साथी मिल गया। दफतर गये। मुलाकात हुई। पता लगा वह सीधी भर्ती वाले अधिकारी उप कलैक्टर थे। वह भी चलता पर उम्र में वह मेरे से आठ साल बडे थे। कलैक्टर ऐसे कि आई ए एस और पी सी एस में अन्तर नहीं कर पाये।
कलैक्टर जिंदादिल व्यक्ति थे। दबंग। शिकार के शौकीन। दफतर के काम काज से मतलब नहीं। कलैक्टर को राजस्व मुकद्दमें तो सुनना की पड़ते हैं। छोटा ज़िला था, अतिरिक्त कलैक्टर था नहीं। इन से छुटकारा नहीं। बहस सुनते, और कह देते - यह हारा, यह जीता। अब आदेश लिखना रीडर का काम। अब इस स्थिति में हमारा प्रशिक्षण क्या होता।
खैर नौ महीने गुज़रे। एक डिप्टी कलैक्टर ने प्रशासन के गुर बताये। विभागीय परीक्षा भी पास कर ली। हरदा के अनुविभागीय अधिकारी श्री सत्यम की पदोन्नति हो गई और वह कलैक्टर बन गये। हमारी नियुक्ति उन के स्थान पर कर दी गई। हम ने कहा - अभी तो विकासखण्ड के प्रशिक्षण के तीन महीने बाकी हैं। कलैक्टर साहब ने कहा, वहीं साथ साथ कर लेना।
छह महीने गुज़रे। अनुविभागीय अधिकारी कार्यालय के आयुक्त द्वारा निरीक्षण का समय आ गया। निश्चित तिथि पर आयुक्त तथा कलैक्टर दोनों आये। विकासखण्ड अधिकारी की डयूटी लगा दी कि उन का पूरा प्रबन्ध देखे। यह ध्यान नहीं आया कि मुझे भी तो आवभगत करना है। किसी ने कभी बताया ही नहीं था। स्वयं शराब का नाम भी न सुनने वाला घर पर क्या खातिर करता। विकासखण्ड अधिकारी योग्य थे, सब किया पर फिर भी बात जमी नहीं। परिणाम वर्ष के अन्त में पता चला जब जीवन की पहली विपरीत टिप्पणी प्राप्त हो गई। किसी दिन इस के बारे में विस्तार से लिखॅूं गा।
शादी के लिये अवकाश लिया। पूरा कर के लौटे तो सोचा हरदा जायें गे पर ऐसा नहीं हुआ। होशंगाबाद में ही प्रतीक्षा करना पड़ी। लगभग एक माह पश्चात कटनी जाने के आदेश हुये।
कटनी का केवल एक किस्सा पर यह केवल लेख को रौचक बनाने के लिये। जबलपुर के आयुक्त थे श्री मथुरा प्रसाद दूबे। उन से मिले। उन्हों ने कहा कटनी में काजू अच्छा मिलता है। कभी आओ तो लेते आना। हुकुम की तामील की। अगली बार जबलपुर गये तो एक किलो काजू ले गये। दिया और साथ में बता दिया कि साढ़े ग्यारह रुपये का है। उठे और बारह रुपये दिये। मैं ने आठ आने वापस करना चाहे तो बोले रख लो। शायद मैं इकलौता अधिकारी हूॅं गा जिस ने उन से अतिरिक्त राशि या कोई भी राशि प्राप्त की हो। इस का परिणाम तो भुगता ही। पर केवल पत्राचार में। विपरीत टिप्पणी से कलैक्टर के कारण बच गये।
कटनी से अतिरिक्त कलैक्टर बन कर गये ग्वालियर। श्री जैन कलैक्टर थे और श्री तिवारी आयुक्त। श्री जैन का स्थानान्तर कुछ समय पश्चात हो गया और किसी की वहॉं नियुक्ति नहीं हुई। मैं ही दो तीन महीने तक कलैक्टर के प्रभार में रहा। वैसे तो नियम है कि कलैक्टर कलैक्टर होता है चाहे सामान्य हो या प्रभारी पर हमारे आयुक्त अर्द्धशासकीय पत्र में भी प्रिय श्री प्रभारी कलैक्टर लिखते थे।
समय पा कर कलैक्टर खरगौन बने। कुछ समय ही बीता था कि सरकार बदल गई। श्री लूनिया खरगौन ज़िले के विधायक मन्त्री बने। उन की इच्छा थी कि वह ज़िले का दौरा करें और कलैक्टर उन के साथ रहे। उस मे आपत्ति नहीं थी पर दिक्क्त तब हुई जब वह कोई वायदा करते जो विधि के अनुसार गल्त था। उन से निवेदन किया कि ऐसे में मुझे सही स्थिति बताना हो गी। उन्हों ने साथ ले जाना बन्द कर दिया बल्कि खरगौन आना ही बन्द कर दिया। खबर आ जाती थी कि वह मण्डलेश्वर गये, सेंधवा गये पर इतना ही। एक दिन आयुक्त श्री अग्रवाल ने कहा कि मेरा स्थानान्तर होने वाला है, मैं जा कर मुख्य सचिव से मिल लूॅं ताकि अच्छा ज़िला मिल जाये। उन के आदेश का पालन किया पर नियुक्ति तो अतिरिक्त संचालक के पद पर ही हुई। उस के बाद उप सचिव पद पर।
कुछ समय बाद सरकार को ख्याल आया कि मुझे दूसरा ज़िला देना चाहिये। प्रस्ताव बना और आदेश हो गये कलैक्टर दुर्ग कें। दुर्ग ज़िले के विधायक मिलने भी आये। इस से पहले कि आदेश हाथ में आते, वहॉं नियुक्त श्री स्कसैना ने मुख्य सचिव से अनुरोध किया कि उन का नाम दिल्ली जाने के लिये चल रहा है अतः उन का स्थानान्तर कुछ समय के लिये स्थगित कर दिया जायें। अतः ऐसा ही हुआ और मुझे बदल कर रीवा ज़िला दिया गया। श्री चिब वहॉं के आयुक्त थे। उन के साथ अनुभव फिर कभी बताना हों गे पर यह गौरतलब है कि उन्हों ने मुझे डेढ़ पृष्ठ की विपरीत टिप्पणी दी। वैसे वह विपरीत टिप्पणी देने में किफायत नहीं बरतते थे। मेरे पूर्वाधिकारी और मेरे बैचमेट का काम अति उत्तम था किन्तु विपरीत टिप्पणी उन के हिस्से में भी आई। कहा ‘‘रोस्टर के अनुसार निरीक्षण नहीं कर पाये’’। वह था चुनाव वर्ष और चुनाव में इतना काम होता है कि नियमित काम पीछे पड़ जता है पर टिप्पणी तो देना ही थी।
आयुक्त की विपरीत टिप्पणी को विलोपित करने के लिये आवेदन दिया। पर सचिव समान्य प्रशासन विभाग ने कार्र्रवाई नहीं की। उस समय मुझे किन्हीं कारणों से दिल्ली आने की आवश्यकता थी, इस कारण चाहता था कि विपरीत टिप्पणी अभिलेख में न रहे।
इस बीच आबकारी आयुक्त पद पर नियुक्ति हुई। उस वर्ष महुआ की फसल कम हुई तथा शराब की कमी। वैकल्पिक व्यवस्था की गई। परन्तु शासन को और मन्त्री को ठेकेदारों द्वारा रोज़ कई कई तार द्वारा बताया जाने लगा कि कहॉं कहॉं कमी है। एक और कारण भी हुआ जिस का विवरण फिर कभी। पर एक वर्ष के भीतर स्थानान्तर हो गया तथा एक कन्ष्ठि अधिकारी, जो पूर्व मं अतिरिक्त आयुक्त आबकारी रह चुके थे और एक वर्ष पूर्व ही आई ए एस में आये थे, को नियुक्त किया गया। आश्चर्य यह था कि जिस दिन उस ने प्रभार ग्रहण किया, शराब की कमी समाप्त हो गई और मन्त्री जी को सुखद स्थिति के सन्देश आने लगे। मुझे विश्वास नहीं हुआ जब बताया गया कि इस के लिये पच्चीस लाख रुपये व्यय किये गये।
टिप्पणी उस समय तो विलोपित नही हुई परन्तु उस डेढ़ पृष्ठ की टिप्पणी से दुर्भावना झलकती थी, इस कारण उस के होते हुये भी दिल्ली में उप सचिव शिक्षा मन्त्रालय के लिये नियुक्ति मिल गई। शाखा मिली युवा सेवायें। उस के अनुभव फिर कभी पर यह कहना हो गा कि डेढ़ वर्ष पश्चात जब निदेशक भाषा के पद पर नियुक्ति हुई तो संयुक्त सचिव श्री बोर्डिया ने बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के रिलीव कर दिया।
मार्च 1977 की बात है। मुझे वाणिजय एवं उद्योग विभाग से फोन आया कि मैं सचिव को मिलूॅं। सचिव तथा संयुक्त सचिव से मिला। उन्हों ने बताया कि मेरी नियुक्ति उन के मन्त्रालय में हो रही है। मन्त्री जी ने अनुमोदन कर दिया है। इस बीच चुनाव हो गये। सरकार बदल गई। नस्ती फिर गई तथा मेरी नियुक्ति नये मन्त्री द्वारा फिर अनुमोदित हो गई। अब केवल मंत्रीमण्डलीय नियुक्ति समिति की मंज़ूरी रह गई जो एक औपचारिकता होती है। मुझे फिर बुलाया गया तथा कहा गया कि जल्दी से कार्यभार सम्भाल लूॅ, क्योंकि मई में लन्दन में बैठक है जिस में भेजा जा सकता हूॅं। इस बीच मेरे पिता श्री की तबियत खराब हो गई तथा उन का निधान भी 2 अप्रैल को हो गया। इस बीच एक सन्देश आया था किन्तु मैं उसे ले नहीं पाया। खैर कुछ दिन बाद तक आदेश नहीं मिले तो मैं ने पूछा कि क्या हुआ। बताया गया कि उस स्थान पर तो भूतपूर्व गृह मन्त्री बूटा सिंह के पूर्व विशेष सहायक श्री सैन के आदेश हो गये तथा वह उपस्थित भी हो गये हैं। इस प्रकार मैं मन्त्रालय बदलते बदलते रह गया।
इसी समय मेरे निदेशक भाषा बनने के आदेश हो गये। निदेशक भाषा बनने से मैं कतराता था। मै ने सचिव को कहा कि मुझे भाषाओं से थोड़ा अधिक ही लगाव है, इस कारण संयुक्त सचिव से मतभेद हो सकते हैं। उन्हों ने आश्वस्त किया कि वह सुरक्षा प्रदान करें गे तथा दो संयुक्त सचिव के साथ की भी। पर तीसरी संयुक्त सचिव उन्हीें के कैडर की थीं, इस कारण चूक गये। परन्तु तब तक राज्य लौटने का समय हो गया। थोड़ा संयुक्त सविच के पेनल में आने में समय लगा परन्तु कोई कष्ट नहीं हुआ।
कुछ समय पश्चात आयुक्त इंदौर संभाग के आदेश हुये। श्री मन्नवर के आयुक्त ग्वालियर के। पर श्री मन्नवर को इंदौर अधिक आकर्षक लगा। वह अपने आदेश बदलवाने में सफल हुये और मुझे मिला ग्वालियर संभाग। बात फैलाई गई कि मैं दिल्ली के पास रहना चाहता था, इस कारण मैं ने आदेश बदलवाये पर सभी अधिकारी श्री मन्नवर के चरित्र से परिचित थे और असलियत जानते थे।
1989 में निदेशक श्रमिक शिक्षा बना तथा श्री रामानुजम अध्यक्ष इण्टक श्रमिक शिक्षा मण्डल के अध्यक्ष थे। बहुत ही सज्जन पुरुष। काम करने का आनन्द आया। पर 1991 में सरकार बदलने पर उन्हों ने त्यागपत्र दे दिया। अध्यक्ष इण्टक के उत्तराधिकरी बने अकबर होटल ट्रेड युनियन के अध्यक्ष। वाट ए फाल, माई कण्ट्रीमैन। अखिल भारतीय श्रम संघ के बाद एक छोटे से होटल के श्रम संघ के अध्यक्ष। उन की एक मात्र पात्रता श्रम मन्त्री से मैत्री थी। उन्हें प्रशासन अथवा श्रमिक शिक्षा के बारे में अल्प ज्ञान भी नहीं था। उन के साथ निभ नहीं पाई और ढाई वर्ष बाद मध्य प्रदेश लौटना पड़ा।
लौटने के पूर्व मुख्य सचिव से मिला। उन्हों ने पूछा कि किस विभाग में रुचि है। दुर्भाग्यवश मैं ने शिक्षा विभाग का नाम ले लिया। उन्हों ने कहा कि जो सम्भावति तिथि मैं ने बताई थी उस के पंद्रह रोज़ बाद आऊॅं तो ठीक हो गा क्योकि कार्यरत सचिव प्रशिक्षण पर जा रहे हैं और पर रिक्त हो गा। मैं ने वैसे ही किया पर पता चला, वह पद तो भर गया। और किस विभाग मेें रुचि है, पूछा गया। ज़ोर देने पर मैंने दो तीन विभाग गिना दिये। मेरे विचार में इन में से कोई भी दूसरों के लिये आकर्षक नहीं होता - समाज कल्याण, पंचायत, आदिम जाति कल्याण इत्यादि। जब लाटरी निकली तो इन में से कोई नहीं मिला। मिला राजस्व विभाग।
1992 की घटनाओं के बाद राष्ट्रपति शासन लागू हो गया और राजस्व विभाग छूट गया जिस का अलग किस्सा है। कुछ समय बाद मणीपुर जाने का मौका मिला पर लौट आया क्योंकि बच्चों के भविष्य की चिन्ता थी। महानिदेशक प्रशासन अकादमी बना पर ज़रा ज़्यादा ही काम में रुचि लेने लगा। वह रास नहीं आया और आदेश हुये अध्यक्ष व्यापम के। उस समय अध्यक्ष राजस्व पद पर नियुक्ति हुई एक सज्जन की। एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि उन के विरुद्ध तो उच्च न्यायलय की टिप्पणी है और वह इस पद के उपयुक्त नहीं हों गे। उन वरिष्ठ अधिकारी के कहने पर वह और मैं मुख्य सचिव को मिले। वरिष्ठ अधिकारी ने अपना संदेह बताया तथा मैं ने राजस्व मण्डल जाने के प्रति अरुचि नहीं दिखलाई। आदेश परिवर्तित हुय और वे अध्यक्ष व्यापम बने और मैं अध्यक्ष राजस्व मण्डल। मैं अध्यक्ष राजस्व मण्डल के पद से सेवा निवृत हुआ। परन्तु जिस के भाग्य में जो लिखा था, वह होता ही है। वह सज्जन जिन के बारे में अनुपयुक्तता बताई गई थी, मेरे बाद अध्यक्ष राजस्व मण्डल बने ओर तीन साल रहे।
सेवानिवृति के पॉंच वर्ष पश्चात राष्ट्रीय आयुक्त भाषायी अल्पसंख्यक का संवैधानिक पद प्राप्त हुआ। कैसे? वह अलग कहानी है। तीन वर्ष काम किया। मंत्री जी ने कार्य देखा और जब कार्यकाल समाप्त होने लगा तो उन्हों ने बायोडाटा मंगाया। सम्भवतः एक कार्यकाल और देने के लिये। तब अचानक मन्त्री मण्डल ने निर्णय लिया कि एक नया मन्त्रालय बने गा - अल्पसंख्यक कार्य मन्त्रालय। भाषायी अल्पसंख्यक का काम भी कल्याण मन्त्रालय से इस मन्त्रालय में आ गया। मन्त्री बने श्री अन्तुले। और मेरे उत्तराधिकारी बने महाराष्ट्र से राज्य सभा सदस्य रहे एक सज्जन जिन का भाषा से दूर का भी सम्बन्ध नहीं था सिवाये इस के कि वह सिन्धी थे और सिन्धी भाषी भाषायी अल्पसंख्यक हैं।
एक बात स्पष्ट करना चाहूॅं गा। यह सब घटनायें हुईं, परिवर्तन हुये। जो नहीं चाहता था, वह हुआ। जो चाहता था, वह नहीं हुआ। पर कुल मिला कर कोई शिकवा नहीं, क्योंकि जो हुआ, अच्छे के लिये ही हुआ। वक्त के मुताबिक अपना काम किया और जब कहा गया, अपना झोला उठा कर चल दिये। पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
अपने तइीें जिंदा रहने का जीवन भर यत्न किया
देखा देखी हम जी न सके, देखा देखी मर न सके
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