top of page
  • kewal sethi

स्थानान्तर

  स्थानान्तर


इस सफर, एक मुसाफिर, कौन जाने कि मंजि़ल किधर है।

गुम सुम उमंगें, खामोश हसरतें, किसे इसकी फिकर है।।

जब कसदे सफर कर ही लिया तो फिर किसी से उनसियत क्या।

शमा -ए- महफल बनना ही दस्तूर है, तब इकरारे मोहबत क्या।।

न रोक मुझे मेरे माज़ी, कुछ तो लिहाज़ कर मुस्तकबिल का।

चंद रोज़ यह कैद ए सयाद सही, सौदा तो नहीं उम्र भर का।।

कुछ और भी हैं मेरे मुंतज़मीन, इक वाहिद लगावट है बेमानी।

गुलशन बेशुमार हैं हसीन, जलवा तेरा नाकाबिल ब्यान ही सही।।

नित नई मुश्किलात से भिड़ना है मेरी जि़दगी की दास्ताँ।

हूँ मैं चलता मुसाफिर, रमता जोगी, मौत मुझे कबूल नहीं।।


(उपरोक्त कविता रीवा से स्थानातर के अवसर पर लिखी गई थी। वैसे तो यह किसी भी स्थानान्तर पर पूरी उतरे गी परन्तु रीवा से तबादले के बाद आयुक्त का भी तबादला हो गया तथा नये आयुक्त ने मेरा तबादला कुछ समय के लिये रुकवा दिया। वह शायद आगे भी रुकवाने का प्रयास करते लेकिन उन की जो शर्त थी वह मुझे मान्य नहीं थी। अपनी पहल शक्ति को छोड़ना और किसी की आमदनी का ज़रिया बनना मेरे लिये कोई आकर्षण नहीं रखता था। और फिर चलना ही तो जीवन का नाम है।)

2 views

Recent Posts

See All

the agenda is clear as a day

just when i said rahul has matured, he made the statement "the fight is about whether a sikh is going to be allowed to wear his turban in...

महापर्व

महापर्व दोस्त बाले आज का दिन सुहाना है बड़ा स्कून है आज न अखबार में गाली न नफरत का मज़मून है। लाउड स्पीकर की ककर्ष ध्वनि भी आज मौन है।...

पश्चाताप

पश्चाताप चाह नहीं घूस लेने की पर कोई दे जाये तो क्या करूॅं बताओं घर आई लक्ष्मी का निरादर भी किस तरह करूॅं नहीं है मन में मेरे खोट...

Comments


bottom of page