top of page

स्थानान्तर

  • kewal sethi
  • Jul 14, 2020
  • 1 min read

स्थानान्तर


एक सफर, एक मुसाफिर, कौन जाने कि मंजि़ल किधर है।

गुम सुम उमंगें, खामोश हसरतें, किसे इस की फिकर है।।

जब कसदे सफर कर ही लिया तो फिर किसी से उनिसयत क्या।

शमा -ए- महफल बनना ही दस्तूर है,

तब इकरारे मोहबत क्या।।

न रोक मुझे मेरे माज़ी,

कुछ तो लिहाज़ कर मुस्तकबिल का।

चंद रोज़ यह कैद ए सैयाद सही,

सौदा तो नहीं उम्र भर का।।

कुछ और भी हैं मेरे मुंतज़मीन,

इक वाहिद लगावट है बेमानी।

गुलशन बेशुमार हैं हसीन,

जलवा तेरा नाकाबिले ब्यान ही सही।।

नित नई मुशिकलात से भिड़ना है

मेरी जि़दगी की दास्तां।

हूं मैं चलता मुसाफिर, रमता जोगी,

मौत मुझे कबूल नहीं।।

(उपरोक्त कविता रीवा से स्थानान्तर के अवसर पर लिखी गई थी। वैसे तो यह किसी भी स्थानान्तर पर पूरी उतरे गी परन्तु रीवा से तबादले के बाद आयुक्त का भी तबादला हो गया तथा नये आयुक्त ने मेरा तबादला कुछ समय के लिये रुकवा दिया। वह शायद आगे भी रुकवाने का प्रयास करते लेकिन उन की जो शर्त थी वह मुझे मान्य नहीं थी। अपनी पहल भावना को छोड़ना और किसी की आमदनी का ज़रिया बनना मेरे लिये कोई आकर्षण नहीं रखता था। और फिर चलना ही तो जीवन का नाम है।)

Recent Posts

See All
दिल्ली की दलदल

दिल्ली की दलदल बहुत दिन से बेकरारी थी कब हो गे चुनाव दिल्ली में इंतज़ार लगाये बैठे थे सब दलों के नेता दिल्ली में कुछ दल इतने उतवाले थे चुन...

 
 
 
अदालती जॉंच

अदालती जॉंच आईयेे सुनिये एक वक्त की कहानी चिरनवीन है गो है यह काफी पुरानी किसी शहर में लोग सरकार से नारज़ हो गये वजह जो भी रही हो आमादा...

 
 
 
the agenda is clear as a day

just when i said rahul has matured, he made the statement "the fight is about whether a sikh is going to be allowed to wear his turban in...

 
 
 

Kommentare


bottom of page