स्थानान्तर
एक सफर, एक मुसाफिर, कौन जाने कि मंजि़ल किधर है।
गुम सुम उमंगें, खामोश हसरतें, किसे इस की फिकर है।।
जब कसदे सफर कर ही लिया तो फिर किसी से उनिसयत क्या।
शमा -ए- महफल बनना ही दस्तूर है,
तब इकरारे मोहबत क्या।।
न रोक मुझे मेरे माज़ी,
कुछ तो लिहाज़ कर मुस्तकबिल का।
चंद रोज़ यह कैद ए सैयाद सही,
सौदा तो नहीं उम्र भर का।।
कुछ और भी हैं मेरे मुंतज़मीन,
इक वाहिद लगावट है बेमानी।
गुलशन बेशुमार हैं हसीन,
जलवा तेरा नाकाबिले ब्यान ही सही।।
नित नई मुशिकलात से भिड़ना है
मेरी जि़दगी की दास्तां।
हूं मैं चलता मुसाफिर, रमता जोगी,
मौत मुझे कबूल नहीं।।
(उपरोक्त कविता रीवा से स्थानान्तर के अवसर पर लिखी गई थी। वैसे तो यह किसी भी स्थानान्तर पर पूरी उतरे गी परन्तु रीवा से तबादले के बाद आयुक्त का भी तबादला हो गया तथा नये आयुक्त ने मेरा तबादला कुछ समय के लिये रुकवा दिया। वह शायद आगे भी रुकवाने का प्रयास करते लेकिन उन की जो शर्त थी वह मुझे मान्य नहीं थी। अपनी पहल भावना को छोड़ना और किसी की आमदनी का ज़रिया बनना मेरे लिये कोई आकर्षण नहीं रखता था। और फिर चलना ही तो जीवन का नाम है।)
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