सीता स्वरूपनखा संवाद
सीता को अशोक वन में पहुॅंचा दिया गया। उस की सेवा के लिये दासियाॅं निसुक्त कर दी गईं। तभी स्वरूप नखा वहाॅं पहुॅंच गई।
स्वरूप नखा - नमस्कार। सब प्रबन्ध तो ठीक है।
सीता - मेरा प्रबन्ध से क्या सरोकार है, मैं तो बन्दी हूॅं। कब कौन सा अत्याचार किया जाये गा, मालूम नहीं।
स्वरूप नखा - कोई अत्याचार नहीं हो गा तुम पर। यह दशानन का राज्य है, कोई वन नहीं न अयोध्या ही है।
सीता - न वन में, न अयोध्या में मुझ पर कोई अत्याचार हुआ है। मैं सुखी थी वहाॅं पर। यहाॅं पर इस की आशंका है।
स्वरूप नखा - भाई को राज्य दिलाने के लिये वनवास और तुम इसे अत्याचार नहीं मानती। महलों में पली और वन में वास, क्या यह भी अत्याचार नहीं है।
सीता - मैं अपनी इच्छा से वन में आई कोई ज़बरदस्ती नहीं की गई मेरे साथ। और पति के साथ रहने में न महल की बात है न वन की।
स्वरूप नखा -ऐसा है तो उर्मिला को साथ क्यों नहीं ले आई। क्या यह उस पर अत्याचार नहीं है कि उसे अकेली रहने पर मजबूर किया गया। खैर मैं तो केवल इतना पूछने आई थी कि किसी वस्तु की आवश्यकता तो नहीं।
सीता - बस मेरे पति मिल जायें, यही इच्छा है मन में।
स्वरूप नखा - उस में तो समय लगे गा पर वह अपने अपराध की क्षमा मान लें तो अलग बात है।
सीता - अपराध कैसा अपराध?
स्वरूप नखा - क्या किसी स्त्री का नाक काटना अपराध नहीं है।
सीता - वह तो तुम्हारी उद्दण्डता का दण्ड था।
स्वरूप नखा - क्या किसी से शादी के लिये प्रस्ताव करना उद्दण्डता है। इस के लिये मेरा उपहास उड़ाना क्या उचित व्यवहार था। और यदि इसे उद्दण्डता ही मान लिया गया तो क्या इस का दण्ड नाक काटना होता है। मुझे कुछ देर बाॅंध कर रख देते। मेरा नशा उतर जाता। बात समाप्त। पर यह भी याद रहे कि उन्हों ने मेरी नाक नहीं काटी है, अपनी कटवाई है। पूरे रघुकुल की कटवाई है। समय इसे सदैव याद रखे गा कि एक नारी की नाक काटी गई तथा वह भी बिना अपराध के। रघु वंश में शादी की प्रार्थना को अपराध माना जाता है, यह भी मुझे आज मालूम हुआ।
सीता - क्या तुम्हारा मुझ पर आक्रमण अपराध नहीं था।
स्वरूप नखा - जिस के लिये मुझे उकसाया गया। कहा गया कि तुम्हारे होते हुए शादी नहीं हो सकती। मतलब स्पष्ट था अर्थात शादी के लिये तो तैयार हैं पर तुम्हारी बाधा है। बाधा को हटाना तो पड़ता ही है। यह उकसाने की क्रिया ही तुम्हारे यहाॅं आने का कारण है। यद्यपि यह तुम्हारे होने के कारण शादी न करना कोई सही बहाना नहीं था। खुद उन के पिता ने तीन तीन शादियॉं की थीं। यह तो केवल तरीका था, मुझे ज़लील करने के लिये यह नाटक किया गया। कहने को तो राजकुमार थे पर हरकत किसी ओछे आदमी की तरह की थी।
सीता - और अब आगे क्या हो गा।
स्वरूप नखा - तुम सुरक्षित हो। बस तुम्हारे पति की अपने अपराध की क्षमा माॅंगने की देरी है।
सीता - वह वीर पुरुष हैं, कभी क्षमा नहीं माॅंगें गे।
स्वरूप नखा - मुझे मालूम है वह क्षमा नहीं माॅंगें गे। क्षमा माॅंगना बड़प्पन की निशानी है और वह उन में हैं नहीं। और तुम ने उन्हें वीर कहा, यह भी अनुचित है। वीर पुरुष ही अपराध को क्षमा करते हैं पर वह उन के बस की बात नहीं क्योकि उन में वह गुण नहीं है। मैं ने अपराध नहीं किया पर यदि अपराध मान भी लिया जाये तो क्षमा हो सकता था। मेरे भ्राता में वह गुण है, वह वीर हैं, क्षमा भी कर सकते हैं। उन में प्रतिशोध की भावना नहीं है क्योंकि वह वीर हैं। क्या उन के लिये यह कठिन था कि वह नाक काटने का बदला नाक काट कर लेते। पर वह मर्यादा पुरुषोत्तम है। स्त्री जाति के प्रति अपनी मर्यादा को ध्यान में रखते हैं। वह धैर्य नहीं खोते।
सीता - मेरा हरण दशानन के विनाश का कारण बने गा, यह स्मरण रहे।
स्वरूप नखा - वह तो समय ही बताये गा। पर मेरा अभी भी मत है कि भूल के लिये, चाहे वह कितनी भी भयंकर भूल क्यों न हो, और चाहे उन के क्षमा माॅंगने से मुझे मेरा रूप वापस नहीं मिले गा पर फिर भी मैं भी उन्हें क्षमा कर सकती हूॅं। मेरे भ्राता भी उन्हें क्षमा कर दें गे। यही राम के लिये उचित रहे गा। वरना उन को तुम्हें भूलना ही हो गा।
सीता - शिव जी के धनुष को जिस ने तोड़ कर मुझे वरण किया, वह मुझे भूल जाये, कदापि नहीं। वह दशानन को पराजित कर मुझे लेने आयें गे, यह मेरा दृृढ़ विश्वास है।
स्वरूप नखा - शिव के धनुष को उठाने तोड़ने की बात तो तुम को बहुत बड़ी लगती है पर याद रहे, दशानन ने तो शिव जी सहित पूरे कैलाश को ही उठा लिया था।
सीता - पर फिर उसे वहीं रखना भी पड़ा।
स्वरूप नखा - इस में भी मर्यादा की बात थी। अपने आराध्य को बिना उस की अनुमति के ले जाना उन्हें स्वीकार नहीं था। खैर हम फिर मिलें गे। तब तक किसी वस्तु की आवश्यकता हो, सन्देश भिजवा दिया जाये।
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