स्वीटी
स्वीटी पंजाबी लड़की थी। या यूॅं कहना चहिये कि वह पंजाबी मॉं बाप की बेटी थी। पैेदाईश तो उस की इंगलैण्ड में हुई थी। पली बढ़ी भी वहीं थी और शिक्षा भी वहीं पाई थी। पर वह कहते हैं न कि जोड़ियॉं इंगलैण्ड में नही बनती। वह बनती हैं स्वर्ग में। सो स्वीटी की बन कर आई पर आई हिन्दुस्तान में। वैसे लड़का एम बी ए था ओर फिर आई ए एस में भी आ गया था। अब इंगलैण्डवासी हो या अमरीकावासी, अपनी लड़की के लिये इस से ज़्यादा क्या चाहे गा। और जब देखने में भी ठीक ठाक हो तो स्वीटी भी क्या कर सकती थी। सो वह एक हो गये।
पर जो नहीं सोचा था वह यह कि रहना तो छोटे से नगर में था। वैसे नगर इतना छोटा भी नहीं था पर लंडन के बाद तो हर नगर छोटा ही लगता है। खैर, उस से तो फरक नहीं पड़ा पर हुआ यह कि अनिल - जोड़ी का दूसरा सिरा - शुद्ध पंजाबी था या शुद्ध हिन्दुस्तानी। उस की कई बातें स्वीटी का पसन्द नहीं थीं। एक तो सफाई के बारे में उस के विचार। किताब पलंग पर है तो है, पढ़ रहे थे, वहीं रह गई। जूते फर्श पर हैं तो हैं, रख दें गे कभी अल्मारी में अपनी जगह पर। कोट उतारा तो सोफे पर रख दिया। आखिर इन बातों से फरक थोड़ा ही पड़ता है। पर स्वीटी इसी बात से चिड़ती थी। रोज़ रोज़ की खटपट।
दूसरी बात जो स्वीटी को खड़कती थी, समय की पाबंदी के बारे में थी। अब अनिल कहे कि दस मिनट में आता हूॅं तो दस मिनट में न सही पंद्रह में आ जाये पर पैंतालीस मिनट तो बहुत ज़्यादा हो जाते हैं न। लेकिन वक्त पर सब चीेजें सही हो जाती हैं।
वह बताते हैं कि एक माली के बेटी की शादी चमार के यहॉं हो गई। मारे बदबू के बुरा हाल। सुसर ने उस की परेशाानी समझी। कहने लगे, पुश्तों की बू है, कुछ समय लगे गा जाने में। एक पॉंच फुट बाई पॉंच फुट का बागीचा लगवा दिया। और कुछ नहीं किया। फूल खिले। तीन महीने बाद पूछा अब ठीक है सो बहू ने सिर हिला दिया।
अब समय की पाबंदी तो बागीचा लगाने से नहीं आती पर उस का भी तरीका निकल आया।
एस पी साहब ने अपने बेटे के जन्मदिन पर दावत रखी। सब गणमान्य लोगों को बुलाया। ज़ाहिर है अनिल और स्वीटी भी मदु थे। समय था पॉंच बजे। तब तक दफतर बन्द हो ही जाते हैं। स्वीटी ने हल्ला मचाया, समय पर पहुॅंचना है सो अनिल जल्दी से तैयार हो गया औा साढ़े पॉंच बजे एस पी के यहॉं दस्तक दे दी। काम वाली बाई ने दरवाज़ा खोला। मैडम कहॉं हैं? बताया नहाने गई हैं बाथ रूम में। पार्टी कहॉं हैं? पीछे वाले सेहन में। वहॉ गये देखा अभी तो कुछ नहीं है। न मेज़ पर मेज़पोश, न साईड पर कोई मेज़ जहॉं आने वाले मेहमान अपने तोहफे रखें। बर्तन की तो बात ही नहीं। इंतज़ार के अलावा और क्या हो सकता था।
पंद्रह मिनट बाद मैडम एस पी आईं। लेट होने की माफी चाही। नौकरों को बुला का सामान लगाने को कहा। स्वीटी तो हमेशा से सब की मदद करने वालीं। सब कुछ सजाने में मदद की। फिर याद आया। बाबा को दूघ पिलाने का समय है। अभी चार महीने का ही तो था। हर तीन घण्टे में पिलाना पडता है। आया के पास छोड़ आई थीं कि अभी आ कर पिलाती हूॅं। अनिल को बताया। वापस घर आये। दूध पिलाया। फिर अनिल ने कहा - अब चलें। स्वीटी ने सेाचा — अभी तो सजावट हो रही हो गी। कहा - रुको, अभी चलते हैं।
एकाध घण्टे बाद चले पर अभी तो दो ही मेहमान आये थे, दोनों डिप्टी एस पी। बाकी नदारद। अब फिर घर जायें क्या? पर नहीं, अब तो रुकना ही हो गा, आना जाना मुश्किल हो गा। आधे घण्टे में एस पी साहब आये। फिर मेहमान आना शुरू हुये। महफिल जमी। अच्छी खातिर तवाज़ा थी।
मेहमान आयें और अपना सजावट वाला तोहफा मैडम एस पी को दें। वह हॅंस हॅंस कर स्वीकार करें। स्वीटी को याद आया कि वह भी तो गिफ्ट लाई थी। घर जाते वक्त यहीं भूल गई थीं। अब देने का समय आया तो तलाश करना शुरू किया। मेहनत का फल तो मिलता ही है। आखिर मिल गया। ड्राईग रूम में पहुॅंच गया था। आया को क्या पता कि घर का है कि बाहर का। कुछ हुज्जत भी हुई पर आखिर मैडम एस पी आई और उन्हों ने वह गिफ्ट स्वीटी को थमाया और स्वीटी ने उसे मैडम एस पी को थमाया।
अन्त भला सो भला।
रात को लौटे पर स्वीटी अपनी समय की पाबन्दी वहीं भूल आई। और फिर उस गुमशुदा चीज़ का ज़िकर भी नहीं किया अनिल से।
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