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स्वतंत्रता या स्वराज

  • kewal sethi
  • Jun 1
  • 7 min read

स्वतंत्रता या स्वराज

(अधूरा लेख)


स्वतन्त्रता, समानता, बंधुता, इन तीन श्ब्दों के साथ फ्रांस की 1789 की क्रान्ति सम्पन्न हुई। ।इसी से गणतंत्र की स्थापना हुई, ऐसा माना जाता है। और संसार भर में इसे सभी क्रांतिकारियों में मूल प्रेरणा माना जाता है। इस क्रांति में प्रथम शब्द स्वतंत्रता को अधिकतम महत्त्व दिया गया। वास्तव में स्वतंत्रता संसार के सभी नागरिको का अंतिम लक्ष्य बन गया है।

लेकिन स्वतंत्रता है क्या? फ्रांसीसी इस शब्द लिबर्टी या अंग्रेजी में लिबर्टी का अर्थ भार्गव के इंगलिश हिंदी शब्दकोश, में बताया गया है - स्वतंत्रता, स्वाधीनता, स्वेच्छा। इनमें से प्रथम को ही हमें ने चुना है। क्यूँ? स्वतंत्रता का शब्द स्वतंत्र की भावात्मक संज्ञा है और स्वतंत्र का अर्थ है स्व तन्त्र — हमारा अपना तंत्र और अपना तरीका। राजनीति शस्त्र के अनुसार इसका अर्थ है अपने तरीके से प्रशासन की, शासन की पद्धति को तय करना। इस का विलोम शब्द है परतन्त्रता अर्थात जहाँ पर तन्त्र का निर्णय किसी अन्य शक्ति द्वारा किया जाए। परन्तु फ्रांस में तो उनका अपना ही राजा था, अपनी ही सैना थी। प्रायः चार सो साल से वैसी ही स्थिति थी। फिर क्या आवश्वकता थी स्वतन्त्रता की? तन्त्र तो अपना ही था पर वो कई लोगों के अनुकूल नहीं था। कुछ व्यक्ति संपूर्ण उत्पादन स्रोत पर अधिकार किए हुए थे। उस समय में उत्पादन का मुख्य स्रोत भूमि माना गया था। धन का तो संग्रह अभी ही हो रहा था और भूमि पर बड़े बड़े जागीरदारों का अधिकार था। वह अपनी मर्जी से किसानों में भूमि बांटते थे, मनमाना राजस्व वसूल करते थे। मनमानी तौर से सारे का सारा उत्पादन उनके लाभ के लिए होता था। व्यापारी भी जो कि ये समझता था तो उनके व्यापार के कारण देश स्मृद्ध हो रहा है, समृद्धि में पूरी तरह भागीदार नहीं था। मतलब यह कि साधारण व्यक्ति अपने को स्वतन्त्र नहीं मानता था। इस लिये उन्हों ने इस तन्त्र को उखाड़ दिया।

इस प्रकार, स्वतंत्रता का अर्थ वे अधिक लोगों की मर्जी के विरुद्ध बनाया गया तन्त्र मानने लगे और दूसरा रास्ता न देख हिंसा का मार्ग चुना। पर ये लोग क्या संख्या में अधिक थे या नहीं, इसका निर्णय क्रांति के माध्यम से हुआ। हो सकता है ये लोग कम रहे हो। इसी हिसाब सेें रूस में साम्यवादी तंत्र स्थापित हुआ। पर ये सर्वविदित है के साम्यवाली उस समय बाहुल्य में नहीं थे। रूस के एकमात्र आम स्वतन्त्र चुनाव में नरमपंथी समाजवादी विजित हुए थे, फिर भी साम्यवाउद स्थापित हुआ। यह भी सब जानते है कि रूस और अमेरिका दोनों स्वतंत्र हैं। इसमें किसी को संदेह नहीं है कि दोनों की स्वतंत्रता में अंतर है। दोनों का तन्त्र अलग है। इसी कारण से स्वतन्त्रता का अर्थ तथा लक्ष्य कुछ अलग होना चाहिए।

समय समय पर सभी महान विचारकों ने, राजनीति के पारंगत विद्वानों ने, धर्म शास्त्रियों ने स्वतंत्रता, आजादी, स्वराज्य की अतुलनीय शोभा का विवरण दिया है। उनकी निगाह में स्वतंत्रता से बढ़ कर कोई सुख नहीं है। परतंत्रता सपने सुख नहीं। जब कोई सोच भी नहीं सकता था, उस समय लोकमान्य तिलक ने हमें नारा दिया ‘‘स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’’। 35 वर्ष बाद सुभाष चन्द्र बोस ने कहा — तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। महात्मा गाँधी जीवन पर्यन्त स्वतंत्रता के लिये संग्राम करते रहे। उन्होंने कहा, स्वतंत्रता उनके लिए है जो इसे समझते हैं।

पर क्या हम स्वतन्त्रता का अर्थ समझते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वतन्त्रता सभी वस्तुओं से अधिक महत्वपूर्ण है जो हमारे जीवन के लिए अनिवार्य है यथा न्याय, सौंदर्य, समानता। लेकिन यह उल्लेखनीय है कि जब भी स्वतंत्रता की चर्चा होती है, एक अजीब बात होती है। ना तो वैज्ञानिक जो कि सत्य की खोज करता है, ना ही कलाकार जो शब्दों का रूपांकित करता है और न ही विचारक जो शब्दों के बीच सामंजस्य स्धापित करता है, स्वतंत्रता की व्याख्या करते हैं। ये सब मान लेते हैं कि यह एक ऐसी चीज़ है जिस की परिभाषा की आवश्यकता ही नहीं है। उसे कोई भी नाम दिया जा सकता है। उसी में न्याय, सौंदर्य, समानता, सब का समावेश है।

लेकिन कौन नहीं जानता कि स्वतंत्रता एक ऐसा जज़बा है जिसके बारे में मनुष्यों में हमेशा से मतभेद पाया जाता है। इस प्रकार का मतभेद किसी अन्य विषय के बारे में नहीं है। ऐत्हासिेक तौर पर इन में भाग्य, स्वतंत्र इच्छा, माया, मोह, निर्वाण, किस्मत, ईश्वरीय कृपा इन सभी में मनुष्य की स्वतंत्रता एवं प्रतंत्रता की बात की गयी है। यूनानी, रोमन, हिंदू, बौद्ध, ईसाई सभी का इस बारे में अलग अलग मत हैं। लेकिन फिर भी सामान्य जन द्वारा ये मान लिया जाता है कि स्वतंत्रता का सिद्धांत स्पष्ट है जिसे हर व्यक्ति उसी रूप में समझता है जो कि वक्ता के मन में है। और इस लिये इस की परिभाषा करना आवश्यक नहीं है। उदाहरण के तौर पर यह विचारक अपने मन में पूरा जीवन सत्ता की परिभाषा समझने तथा समझाने में व्यय करता है। और अभी भी इस बारे में संदेह है कि वह सफल हुआ या नहीं, लेकिन उस के लेख में स्वतन्त्रता के बारे में परिभाषा का प्रयास भी नहीं है। यद्यपि सामान्य व्यक्ति के मन में इसके बारे में उतनी रुचि नहीं होगी, जितनी के स्वतंत्रता के बारे में।

स्वतन्त्रता का इस प्रकार से अपरिभाषित होने के दो ही अर्थ हो सकते हैं। एक तो ये कि यह सिद्धान्त समय और स्थान की सीमा से मुक्त है तथा दो - इसका अर्थ उस की परिस्थिति के अनुरूप है। ये तो स्पष्ट है कि ये मानना कि यह सिद्धांत अटल हैं, इन महानुभावों को मान्य नहीं हो गा, क्योंकि अन्यथा इसके बारे में इतनी परिचर्चा तथा झगड़ा नहीं होता। हमें इन बौद्धिक व्यक्ति से ऐसी गलती की अपेक्षा नहीं है। इसलिए ये मानना होगा कि उनका मतलब स्वतन्त्रता से वही है, जो कि उन की परिस्थितियों में जन्म लिये तथा पले किसी भी व्यक्ति का हो गा। अर्थात स्वतंत्रता का अर्थ उन बंधनों से मुक्ति हो गी जो कि असहनीय हो जायें। सहे जा सकने वाले बंघन तो स्वीकार्य् हों गे। इन लोगों - सफल लेखक एवं प्रबुद्ध नागरिक - नाजीवाद के सिद्धांत तो नहीं चाहें गे। वह ‘स्वतन्त्रता’ नहीं होगी, लेकिन ये माना जाए कि परमात्मा की कृपा से वर्तमान में वह काफी स्वतन्त्र है।

स्वतंत्रता का यह सिद्धांत ऊपरी ऊपरी है क्योंकि सभी देशवासी एक ही स्थिति में नहीं होते। व्यक्ति ‘क’ यदि योग्य है, बुद्धिजीवी हैं, शिक्षित है, आय का स्थिर स्रोत है, मित्रधारी है, कार तो नहीं खरीद सकता परन्तु स्कूटर की सवारी कर सकता है, अपने आप को स्वतंत्र मानता है। वो मोटर खरीदना चाहता है, पर खैर अभी तो वह अपने स्कूटर से ही खुश है। वह अपने विचार व्यक्त कर सकता है। प्रैस सैंसर के विरुद्ध बोल सकता है, परिवार नियोजन पर अपनी राय व्यक्त कर सकता है। पल भर के लिये मान लें कि यही स्वतंत्रता है (यद्यपि ये बाद में देखा जाएगा कि क्या वास्तव में यह स्वतंत्रता है या नहीं। अभी मान लें कि ये स्वतन्त्रता है।)

क्या ‘ख’ भी स्वतंत्र है? ‘ख’ मालदा की कोयला खदान में एक मजदूर हैं। वो सप्ताह में 7 दिन कार्य करता है। उसे विज्ञान, कला या नीतिशास्त्र का ज्ञान नहीं है। सिवायेे अपने समाज की कुछ रूढ़िवादी परंपराओं के अधिक उसे कुछ ज्ञान नहीं है। उसने आठवीं कक्षा तक शासकीय विद्यालय में कुछ शिक्षा ग्रहण की थी, जिसे वह भूल चुका है। याद है उसे राम, कृष्ण की कथा। गीता का संदेश कि आत्मा अमर है। या पंडित जी का वो उपदेश कि हर व्यक्ति स्वतन्त्र है। हर व्यक्ति अपना भाग्य को लेकर आया है। कीर्तन से, भक्ति से, दान देने से, ब्राहमणों को भोजन कराने से स्वर्ग मिलता है। सरकार के समाचार उसे चौपाल के रेडियो से मिलते हैं, जो अकसर खराब रहता है। उसके पास समय या पैसा नहीं है कि वह समाचार पत्र ले सके परे उसे विश्वास है कि जब मृत्यु आये गी तो उसे स्वर्ग में आनंद ही आनंद मिले गेा। वह उसे भोगने के लिये स्वतन्त्र हो गा। परन्तु अभी तो उसे डर सता रहा है कि अगर जमादार नाराज हो गया तो उसकी सेवाएं समाप्त हो जाएगी।

‘ख’ की परेशानी यह है कि उसके पास स्वतंत्रता का मूल्य जानने के लिए समय ही नहीं है, लेकिन ‘‘ग’’ को ये परेशानी नहीं है। उसने दो वर्ष पूर्व बी ए किया था और तब से बेकार है। वह दिन मैं चौबीस घंटे स्वतंत्र है। वह वाचनालय में जाकर समाचार पत्र पढ़ता है, पार्क में घूमता हैं। अजायब घर भी देख आया है वो पूर्णत्या स्वतंत्र है, कुछ भी सोचने के लिये, आर्य भट्ट के बारे में, पोख्ररण के बारे में, नई रेल लाइन के बारे में, मोक्ष एवं निर्वाण के बारे में, समाजवाद एवं भ्रष्टाचार के बारे में। लेकिन वो कुछ भी नहीं सोचता है। वह समाचार पत्र में केवल नौकरी के विज्ञापन भर पढ़ता है। घर पर भाभी से और बहनों से लड़ता है। बाहर वह दोस्तों से, जो अब नौकरी पा चूके हैं, मिल कर ऊब जाता है क्योंकि वे सिनेमा देखने जा सकते हैं और उसकी जेब खाली है। वो स्वतंत्र है अपने जीवन लीला समाप्त करने के लिए जैसा कि संभव है वह कोई उपयुक्त समय मिलने पर करेगा।

‘‘क’’ स्वतंत्र है। क्या ‘‘ख’’ और ''ग'' भी स्वतंत्र हैं। सम्भवत: ‘‘क’’ कहे गा कि ‘‘ख’’ं और ‘‘ग’’ स्वतंत्र नहीं है, कम से कम उनकी स्वतंत्रता अर्थपूर्ण नहीं है। इससे हमें पता चलेगा कि ‘‘क’’ की दृष्टि में स्वतंत्रता है क्या? वह जीविका के भरपूर साधन और समय की बहुतायत से उेस जोड़ कर देखे गा। तिलक, बोस, गाँधी, अरविंद पूरी तरह सहमत होंगे कि उन की स्वतंत्रता स्वतन्त्रता नहीं है। यह तो बस् परिस्थितियों की दासता मात्र है। वो कहेंगे कि हमें ‘‘ख’’ और ‘‘ग’’ को भी उस स्तर तक लाना हो गा जहॉं वह स्वतन्त्रता का मूल्य जान सकें। ज्ञान अर्जित करने के लिए खाली समय होना चाहिए ताकि वे संसार के बारे में जान सके तथा इंस का आनंद ले सकें। वही स्वतन्त्रता हो गी।

पर ऐसा कैसे होगा? आज के युग में सामाजिक संबंधों का आधार केवल लाभ और वो भी आर्थिक लाभ ही स्वीकार्य किया जा रहा है। किसी भी परियोजना,चाहे वह शासकीय हों अथवा व्यवसाय की हों, उन की सफलता का मूल्यांकन, उनके लाभ पहुॅंचाने की क्षमता से किया जाता है। ये भी स्पष्ट है कि अन्योन्न्योश्रित के सिद्धांत के अनुसार ये सभी घटनायें एक दूसरे से जुड़ी हुई थी।


(यह लेख यहीं समाप्त हो जाता है। यह लेख 1980 के आस पास लिखा गया था और सम्भवतः स्थानान्तर के कारण अधिक व्यस्त पोस्ट मिल गई थी जिस में यह जारी नहीं रह सका )

 
 
 

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