top of page

सहारा

  • kewal sethi
  • Dec 11, 2022
  • 3 min read

सहारा


एक थी सहारां। बहुत उदारता से काम लिया जाये तो उसे सांवली कहा जा सकता था। सांवली कहने में भी कहा जाता है कि रंग को छोड़ कर और तो सब कुछ आकर्षक है पर सहारा के लिये यह भी नहीं कहा जा सकता था। कुदरत ने रंग रूप देने में उस के साथ बेइंसाफी की थी। खैर, भले ही इस में खुदा ने तंगदिली से काम लिया हो पर अक्ल के मामले में ऐसा नहीं था। परवरदगार ने फरमाया कि ले के रूप रंग, इस का दिमाग शाहाना बना दो। अपनी क्लास मेें अव्वल आना तो उस के लिये मामूल ही था।

इसी से तो सब सहपठियों को जलन होती थी। लड़कियों में भी और लड़कों में भी। तरह तरह की फबतियॉं कसना तो आम बात थी। उस के लिये कई बार सहारा की मोैजूदगी का ख्याल भी नहीं किया जाता था। सहारा को इस की आदत हो गई थी। कोई लड़का कहता - सीरत के हम गुलाम हैं, सूरत हुई तो क्या। सुरखो सफैद संगमरमर की मूरत हुई तो क्या। दूसरा उस का जवाब देता - सूरत के हम गुलाम है, सीरत हुई तो क्या। बेरंग बयोलोजी की किताब हुई तो क्या।

हर रंग मे, हर जगह कुछ होते हैं जो ज़माने के साथ नहीं चल पाते। इन्हीं के जैसा अशोक था। पढ़ाई लिखाई में ज़हीन पर तबियत से शर्मसार। उसे सहारा से हमदर्दी होती, पर उस तक ही महदूद रह जाती। न वह लड़कों से इस के बारे में कुछ कह पाता, न सहारा से। पर आखिर सब्र का बॉंध टूट गया तो एक बार सहारा से कह बैठा - क्या आप अपनी बयालोजी की कापी दे सकती हैं। मैं उस दिन क्लास में नहीं आ सका। उस ने यह नहीं कहा कि वह जानबूझ कर नहीं आया था। सहारा को अजीब सा लगा। उसे इस की उम्मीद नहीं थी। क्लास में इतने सहपाठी थे, किसी से भी मॉंग सकता था, उस से ही क्यो? उसे लगा यह भी उस का मज़ाक उड़ाने का एक नया तरीका था। पर वह इंकार भी नहीं कर सकी। इंकार करने की वजह नहीं सोच पाई। उस ने अपनी कापी दे दी।

यहीं से सिलसिला शुरू हुआ जो बात चीत में और फिर नज़दीकी में बदल गया। साथी तो अब सहारा के साथ अशेाक का भी मज़ाक उड़ाने लगे। कोई कहता - रब ने मिलाई जोड़ी, एक अंधा, एक कोढ़ी। दूसरा कहता - अरे भाई, लैला को मजनू की ऑंख से देखो। तीसरा कहता - यार, हमें तो खुदा ने ऑंखें ही नहीं दीं तो हम क्या करे। किस से उधार मॉंगें। पर अशोक पर इन सब का असर नही होता।

सिलसिला बढ़ा तो सहारा ने कहा कि उस के मॉं बाप इस लायक नहीं कि कुछ कर सकें। अशोक ने कहा कि मेरे ही कौन रईस हैं। सरकारी नौकर ही तो हैं। उस के बाद वह सहारा के मॉ बाप से मिला। अच्छा भला लड़का। मॉं बाप को क्या एतराज़ हो सकता था। ंपर अशोक के मॉं बाप ने नाक भौं सिकोड़ ली। क्या यही मिली थी। एक से एक अक्ष्छी लड़की है न। अशोक कहता- हॉं, उन का रंग ही है न। बाज़ार से पेण्ट ले आउॅं गा। इसी में कुछ दिन बीत गयं।

अशोक के बाप ने एक दिन उस की मॉं से कहंा - मैं ने तबादले के लिये दरखास्त दे दी है। उस जगह कोई जाना भी नहीं चाहता। पंद्रह एक रोज़ में आर्डर हो जाना चाहिये। दूरी हो गी तो यह आशिकी का भूत उतर जाये गा। मॉं ने भी रज़मन्दी ज़ाहिर की । कहा - बेवकूफी को जो दौरा पड़ा है, ठीक हो जाये गा। वक्त और फासला बहुत असरदार होते हैं।



Recent Posts

See All
पहचान बनी रहे

पहचान बनी रहे राज अपने पड़ौसी प्रकाश के साथ बैठक में प्रतीक्षा कर रहा था। उन का प्रोग्राम पिक्चर देखने जाना था और राज की पत्नि तैयार हो...

 
 
 
खामोश

खामोश जब से उस की पत्नि की मृत्यु हई है, वह बिल्कुल चुप है। उस की ऑंखें कहीं दूर देखती है पर वह कुछ देख रही हैं या नहीं, वह नहीं जानता।...

 
 
 
 the grand mongol religious debate

the grand mongol religious debate held under the orders of mongke khan, grandson of chengis khan who now occupied the seat of great khan....

 
 
 

Comments


bottom of page