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समाज के प्रति कर्तव्य निर्वहन

समाज के प्रति कर्तव्य निर्वहन तथा हम


दिल्ली में युमना नदी में तीन व्यक्तियों की डूब कर मृत्यु हो गई। इस घटना की शुरूआत इस प्रकार हुई कि नदी पर वर्षा ऋतु के पश्चात नावों का पुल बनता है। जहां पुल बन रहा था वहीं पर कुछ बच्चे नदी में गोता लगाते थे। इस से काम करने वालों को कठिनाई होती थी। बच्चों को मना करने पर उन्हों ने कोई ध्यान नही दिया। इस पर से कहा सुनी और बच्चों की पिटाई तक बात पहुंची। फिर एक भीड़ ने उन श्रमिकों पर हमला कर दिया जिस से बचने के लिये श्रमिकों को नदी में कूदना पड़ा। इसी में तीन लोगों को जान से हाथ गंवाना पड़ा। एक छोटी सी बात से इतना बड़ा काण्ड हो गया।

इस घटना का आधार क्या था। एक दूसरे के प्रति संवेदनहीनता तथा अपनी ही बात को मनवाने की प्रबल इच्छा। छोटी छोटी बातों पर भी हम एक दूसरे को कोई रियायत देने को तैयार नहीं हैं। हमारी सहन शकित सीमित होती जा रही है तथा हमारा ज्वलन बिन्दू नीचे आता जा रहा है। इस तरह की घटनायें अब आम होती जा रही हैं। यह सब क्यों हो रहा है। इस पर चिन्तन किया जाना आवश्यक है।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। जीव विज्ञान की दृष्टि से वह अन्य पशुओं से कहीं कमज़ोर है। न तो वह तेज़ भाग सकता है और न ही उसे पास नाखुन अथवा कोई अन्य शारीरिक औज़ार है जिस की सहायता से वह अपना बचाव कर सके। वह अपना रंग बदल क आस पास के वातावरण में गुम होने की स्थिति में भी नहीं है। परिणामत: उसे समूह में ही सुरक्षा मिली और प्रारम्भ से ही यह उस की नियति रही है। कालान्तर में इस के फलस्वरूप कबीले बने तथा उस के पश्चात राज्य। इस में मौलिक निहित भावना सुरक्षा की थी। पर धीरे धीरे इस में अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी होने लगी तथा यह व्यवस्था मज़बूत होती गई। आज कुछ व्यकित तो समाज को ही मानव जाति का मूल ईकाई मानते हैं।

कुछ पाने के लिये कुछ खोना पड़ता है। जब व्यक्ति समाज का अंग बनता है तो उसे दूसरे के अधिकारों का सम्मान करना पड़ता है। अपने कुछ अधिकारों को छोड़ना पड़ता है। उस को निजी जीवन में परिवर्तन लाना पड़ता है। इस के बदले में उसे मिलती है सुरक्षा तथा अन्य सुविधायें। चूंकि यह समाज के सभी सदस्यों के साथ होता है अत: यह उस समाज के व्यवहार का मापदण्ड बन जाता है। इस मापदण्ड की पूर्ति के लिये व्यक्ति को समाज में मान्यता प्राप्त होती है तथा इस से हट कर व्यवहार करने के फलस्वरूप उसे भर्त्सना सहनी पड़ती है। कर्तव्य और अधिकार साथ साथ चलते हैं। सभ्य समाज की पहचान ही यह है कि उस में कुछ ऐसे नियम तथा परम्परायें स्थापित हो जाती हैं जो जीवन की धारा को अनवरत चलाने के लिये चिकनाई का काम करते हैं तथा समाज को बिना किसी अवरोध के चलाने में सहायक होते हैं। एक दूसरे की भावनाओं की कदर करना तथा अपने स्वभाव को दूसरों की सुविधा का ध्यान रख्ते हुए परिवर्तनशील बनाना शिशु को बचपन से ही सिखाया जाता है। इस के बिना समाज में दिक्कतें पैदा हो जाती हैं।

कुछ कर्तव्य हैं जो एक दूसरे के प्रति हैं और कुछ कर्तव्य समाज के प्रति भी हैं। यह कर्तव्य बहुत सहज, बहुत सरल तथा बहुत स्वाभाविक होते हैं। इन का समावेश इस लोकाक्ति में हो जाता है - दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करो जैसा उन से आप अपेक्षा करते हो। - समाज इस से अधिक की अपेक्षा नहीं करता। और स्पष्टत: ही यह अधिक कठिन भी नहीं है।

परन्तु क्या वास्तव में यह इतना आसान है। आज के भारतीय समाज को देखते हुए ऐसा प्रतीत नहीं होता है। इस भावना के लिये सब से पूर्व तो यह धारणा होना चाहिये कि सभी मनुष्य बराबर हैं। पर इस की भी पूर्ति नहीं हो पा रही है। यह तो पूर्णतया सही है कि कोई दो व्यक्ति एक जैसे नहीे होते। न तो दिखने में तथा न ही अपनी सोच में, अपनी बुद्धि में और न ही मानसिक क्षमता में। परन्तु उन सब से एक आधार स्तर तक एक दूसरे के साथ मिल कर चलने की प्रवृति तथा शक्ति होना चाहिये।

वर्षों पहले ग्वालियर रेडियो स्टेशन ने एक श्रृंखला आरम्भ की थी 'ज़रा सोचिये। इस में वह किसी गणमान्य व्यक्ति से उस के मनपसंद विषय पर पांच मिनट की वार्ता प्रसारित करते थे। मैं ने जो विषय चुना था वह था 'बहता हुआ नल। मुझे हमेशा ही यह हैरानी होती है कि हम किसी सार्वजनिक नल को बन्द करने की आवश्यकता महसूस क्यों नहीं करते। हमें मालूम है कि पेय जल का संकट किस प्रकार गहरा रहा है। हम अपने घर पर इस के प्रति बहुत सावधान रहते हैं। पर बाहर इस पर कोई ध्यान नहीं देते। बात मामूली सी है पर इस का दूरगामी प्रभाव होता है। खेतों में जब सिंचाई लगाई जाती है तो उस में भी इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता। परिणाम यह होता है कि नहर के अंतिम छोर तक पानी पहुंच ही नहीं पाता। सरकारी कागज़ात में वह क्षेत्र सिंचाई के अन्तर्गत आ जाता है पर किसान को पानी के दर्शन नहीं हो पाते हैं। हमारे बहृत सिंचाई परियोजनाओं से क्षमता के 54 प्रतिशत ही सिंचाई हो पाती है। इस में बेकार बहते हुए पानी का अंशदान काफी अधिक है।

इस असहिषुण्ता के दर्शन सभी जगह हो जाते हैं। सड़क यातायात को ही लिया जाये। सड़क यातायात में अपने नियम हैं। जिसे अंग्रेज़ी में 'राईट आफ वे' कहते हैं। कितने चालक हैं जो इन नियमों को जानते हैं। इन की संख्या बहुत कम है। और जो जानते हैं उन में से भी कितने उस का ध्यान रखते हैं। नगर में भी कितने लोग रात के समय अपनी रोशनी को डिप पर रख कर गाड़ी चलाते हैं। पैदल चलने वाले के लिये रास्ता छोड़ने का विचार कितने लोागों के मन में आता है। मिनी बस तथा टैम्पो चालको, शसकीय चालकों से तो सभी परेशान है। उधर नव धनाढय युवा वर्ग अपने में ही एक कानून है। पर जो सामान्य गणमान्य व्यकित हैं उन का व्यवहार भी कोई अनुकरणीय नहीं होता है।

वर्ण व्यवस्था का जो भी मूल कारण रहा हो, उस ने कुछ दीवारें खड़ी कर दी हैं। हम यहां पर इस व्यवस्था पर चर्चा नहीं कर रहे हैं। पर शायद इस मौलिक कमज़ोरी का यह परिणाम था कि हम इस को अपने जीवन केन्द्रित हर पहलू में उतरा हुआ पाते हैं। उदाहरण के तौर पर शासकीय सेवक अपने को एक अलग ही जाति समझने लगे हैं। वह सामान्य नागरिकों के प्रति इस प्रकार व्यवहार करते हैं जैसे किसी निम्न श्रेणी के प्राणी से कर रहे हों। चपरासी से ले कर मुख्य मंत्री तक अपने अधिकार का उपयोग इस प्रकार करते हैं कि दूसरे को अधिक से अधिक कष्ट हो। मंत्रीगण के लम्बे काफिले यातायात को किस प्रकार अस्त व्यस्त करते हैं इस की कल्पना भी नहीं की जाती। किस प्रकार वाहनों का दुर्पयोग होता है यह तो आम ज्ञान की बात है।

ऐसे और भी अनेकों उदाहरण हर व्यकित के जीवन तथा अनुभव में हों गे। यह सब मामूली बातें हैं। इन में कोई भी अपने में बड़ी नहीं है। हम में से हर कोई ऐसे कई उदाहरण दे सकता है। परन्तु प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों होता है। क्या हमारी संस्कृति में यह बात बार बार नहीं दौहराई गई है कि दूसरे के हित का हमेशा ध्यान रखो।

यह कहा जाता हे कि आज का ज़माना समय का भरपूर दोहन करने का है। हर व्यकित समय की कीमत को पहचानता है। इसी लिये वह अपना काम कम से कम समय में करना चाहता है। इसी कारण वह यह नहीं देख पाता हे कि उस के काम का दूसरे व्यकित पर क्या प्रभाव पड़ता है। पर दिक्कत यह है कि दूसरा आदमी भी उसी तरह की जल्दी में होता है तथा इस कारण टकराव पैदा होेता है।

यह भी देखा गया है कि हर व्यकित दूसरे पर दोषारोपण करता है कि वह केवल अपने हित का ध्यान रखता है पर शायद ही कभी किसी ने यह सोचा हो कि उस ने दूसरे के हित का कितना ध्यान रखा है। यह स्वयं पर केन्द्रित विचारधारा वर्तमान स्थिति के लिये उत्तरदायी है।

आज का युग प्रतियोगिता का युग है या यूं कहिये कि यह प्रतिस्पर्द्धा का युग है। सब आगे बढ़ने की होड़ में हैं। इस में यह भी कहा जाता है कि जब ऊपर वाले को नीचे नहीं खींचे गे तो अपना ऊपर चढ़ना कठिन होगा। पर क्या इस से वांछित लाभ होता है। जब हम एक दूसरे के रास्ते में आते हैं तो फलस्वरूप सभी की ही हानि होती है। हम यह समझते हैं कि हम समय बचा रहे हैं तथा दूसरा भी यही समझता है पर वास्तव में हम दोनों ही समय गंवा रहे होते हैं।

प्रश्न यह उपसिथत होता है कि हम इस सिथति से नजात कैसे पा सकते हैं। आदत बदलना आसान काम नहीं है। और ज्यों ज्यों हम परिपक्व होते जाते हैं यह और भी कठिन होता जाता है। इस के लिये एक तो हमें सतत जीवन्त रहने के लिये सतत पुनरावृति तथा प्रशिक्षण करना पड़े गा। दूसरे अगली पीढ़ी को शुरू से ही शिक्षा देना पड़े गी। इन सुधारों का व्यवहारिक पहलू क्या होगा इस पर मणन किया जाना हो गा।


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