सत् तथा असत्
सत् तथा असत् के बारे में भारतीय दर्शन में काफी गम्भीर विचार हुआ है। अन्तत: हमें सत् की खोज करने के निर्देश दिये गये है क्यों कि वही आनन्द, मोक्ष, निर्वाण के लिये उ़त्तरदायी हैं। इस के साथ ही इस प्रश्न पर भी विचार किया गया कि स्थिरता कहां है। कई बार ऐसी स्थिति आती है जब सत् नज़र आने वाली वस्तु वास्तव में असत् होती है। यही बात असत् के लिये भी कही जा सकती है।
जैन दर्शन के अनुसार सत् तथा असत् सापेक्ष ज्ञान है। काल, समय, रूप तथा द्रव्य के कारण इस में परिवर्तन होता रहता है। जो बात एक दृष्टिकोण से सत्य है, वह दूसरे दृष्टिकोण से असत् भी हो सकती है। और यह भी आवश्यक नहीं है कि उस को पूरी तरह से व्यक्त किया जा सके। इस सिद्धाँत को स्यादवाद का नाम दिया गया है। यद्यपि स्यात् का शाब्दिक अर्थ सम्भावना होता है पर जैन दर्शन में इसे सापेक्ष के अर्थों मे प्रयोग में लाया गया है। इसे सप्त भंगी न्याय के नाम से भी जाना जाता है।
इस सिद्धाँत के अनुसार कोई बात
1. स्यादसित अर्थात सत् हो सकती है, या
2. स्यान्नासित अर्थात असत् हो सकती है, या
3. स्यादसित नासित अर्थात सत् तथा असत् दोनों हो सकती है, या
4. स्यादव्यक्तव्यं अर्थात अव्यक्तव्य हो सकती है, या
5. स्यादसित च अव्यक्तव्यं अर्थात सत् हो सकती है पर अव्यक्तव्य है, या
6. स्यान्नासित च अव्यक्तव्यं अर्थात असत् हो सकती है पर अव्यक्तव्य है, या
7. स्यादसित च स्यान्नासित च अव्यक्तव्यं अर्थात सत् और असत् दोनों हो सकती है पर अव्यक्तव्य है
अपने द्रव्य की दृष्टि से कोई वस्तु सत् हो सकती है पर दूसरे द्रव्य की दृष्टि से नहीं। उदाहरणार्थ मेज़ लकड़ी द्रव्य में तो सत् है पर अन्य द्रव्य में नहीं। एक द्रव्य की दृष्टि से सत् है दूसरे की दृष्टि से असत्। वह भूत काल में नहीं थी और हो सकता है भविष्य काल में न हो। काल की दृष्टि से वह सत् भी है तथा असत् भी। इसी प्रकार अन्य वस्तुओं के उदाहरण दिये जा सकते हैं। कहने का तात्पर्य है कि सत् तथा असत् सापेक्ष बातें हैं तथा उन का अपना स्वतन्त्र आस्तित्व नहीं है।
जैन दर्शन के इस मत से अन्य दर्शन पूर्णतया सहमत नहीं हैं। उन का कहना है कि दो विरोधी बातें एक साथ सत्य नहीं हो सकती हैं। प्रकाश तथा अंधकार एक साथ नहीं रह सकते। एकत्व तथा बहुत्व एक साथ नहीं हो सकते। वेदानितयों का कहना है कि कोर्इ भी सापेक्ष बात किसी अन्य बात के संदर्भ में ही हो सकती है अत: कोई न कोई स्थिर, स्थायी वस्तु होना चाहिये। इसी के माध्यम से सत्, असत् की पहचान हो सकती है। कुमारिल का कहना है कि अंतिम तीन बातें पहले चार में ही स्थित हैं। उन की अलग से आवश्यकता नहीं है।
बौद्ध दर्शन में भी इन चार सम्भावनाओं के बारे में बताया गया है। प्रतीत्यासमुत्पदा में कहा गया है कि सभी वस्तुओं का मूल किसी अन्य में है तथा उस पर निर्भर है अत: वह सापेक्ष है। वेदान्त में ज्ञान को अनुभव से प्राप्त तथा अनुभवेत्तर देानों प्रकार का माना गया है। ज्ञान सापेक्ष है पर वह व्यवहार तथा परमार्थ, परतन्त्र तथा परिनिश्पन्न दोनों प्रकार का हो सकता है। अन्तत: वह किसी स्थायी बात पर आश्रित है। बिना आश्रय के किसी बात का आस्तित्व नहीं हो सकता है। संसारिक दृष्टि से भले ही सत् और असत् सापेक्ष हों किन्तु अन्तत: वह अंतिम सत्य के समक्ष अपना वास्तविक रूप धारण करें गे ही।
इस प्रकार यध्दपि जैन दर्शन का स्यादवाद पर अन्य मतों की अधिक आपत्ति नहीं है किन्तु वह आगे की भी सोचते हैं जबकि जैन दर्शन स्यादवाद से आगे जाने को तैयार नहीं है। वह इसे एक सूत्र के रूप में भी प्रस्तुत नहीं करते। वेदान्त की तरह बह्रा को वह इस में विचार में नहीं लेते। सापेक्ष का भी आधार होना चाहिये, इस बात को उन्हों ने अनदेखा किया है। वेदान्त का मत है कि वास्तविकता इन सात (या चार) बातों का सामुच्य नहीं है वरन् इस से बढ़ कर है। सम्भवत: जैन दर्शन सामान्य मनुष्य के अनुभव के अधिक निकट रहना चाहते हैं जो विभिन्न प्रकार की बातें देखते है। उन का कल्पना ऐसी सृष्टि की नहीं है जहाँ यह अनुभव काम नहीं आ सकते। पर कैवल्य में सर्वज्ञाता होने पर किस प्रकार सापेक्ष का अर्थ रह जाये गा, इस बारे में अधिक विचार नहीं किया गया है। अन्यथा यह विचार सृष्टि का विवरण देने में सहायक ही है।
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