शिव नृत्य तथा विज्ञान
खगोल विज्ञानी के लिये अन्य ग्रहों तथा सौर मण्डलों की जानकारी का मुख्य स्रोत्र रेडिओ तरंगें, प्रकाश तरंगें तथा क्ष किरणें हैं। सितारों के बीच का स्थान विभिन्न प्रकार तथा आवृति की विधुतचुम्बकीय विकिरणों से ओत प्रोत हैं। इन में विभिन्न गति से चलने वाले फोटोन विधमान हैं। पर व्योम में केवल फोटोन ही नहीं हैं वरन् और भी कई प्रकार के भारी कण हैं जिन के उद्गम के बारे में अधिक जानकारी नहीं हैं। अधिकतम फोटोन ही हैं जिन में ऊर्जा की इतनी मात्रा है कि किसी कृतिम त्वरण मशीनों में प्राप्त नहीं की जा सकी हैं।
जब यह अति उच्च गति वाली अंतरिक्ष किरणें पृथ्वी के वायु मण्डल में आती हैं तो वायु के कणों से टकराती हैं। इस से अनेक नये द्वितीयक कणों का निर्माण होता है। यह द्वितीयक कण या तो समाप्त हो जाते हैं या फिर दूसरे कणो से टकराते हैं। इस प्रकार एक लम्बी प्रक्रिया आरम्भ होती है। यह ऊर्जा का निरन्तर गतिमान प्रगति एक लयबंद नृत्य की तरह होता है। इस में कई कण बनते हैं तथा कई नष्ट हो जाते है। यह उत्पत्ति तथा नाश होने का क्र्म एक अविरत नृत्य के रूप में सारी प्रकृति में चलता रहता है। युरोप के एक त्वरण यंत्र में जब यह अंतरिक्ष किरणें गल्ती से प्रवेश कर गईं तो इस नृत्य का एक चित्र भी वहाँ पर तैयार हो गया।
इन भारी कणों के अतिरिक्त कई ऐसी कणिकायें भी निर्मित होती हैं और नष्ट होती हैं जिन का जीवन इतना अल्प होता है कि उन्हें देखा भी नहीं जा सकता। उदाहरणतया जब प्रोटान तथा एण्टीप्रोटोन आपस में टक्राते हैं तो दो पायन बनते हैं। वस्तुत: इस घटना में प्रोटोन तथा एण्टीप्रोटोन के बीच एक न्यूट्रोन का आदान प्रदान हाता है किन्तु इस का आस्तित्व का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। इन्हें आभासी कण कहा जाता है। इन के कारण यह उत्पत्ति और विनाश का नृत्य और भी रोमांचक हो जाता है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि यह संसार एक नृत्य हैं जिस में आदि तथा अन्त का सदैव मिश्रण रहता है। जितने कण या कणिकायें नष्ट होती हैं उतनी ही बनती भी हैं। इस में क्या कोई आश्चर्य हो सकता है कि हमारे मनीषियों ने भी इस संसार को एक नृत्य की ही उपमा दी है। इन सब में अधिकतम सुन्दर उपमा शिव जी की है। उन्हें तो नटराज कहा जाता है। भारतीय दर्शन के अनुसार यह सृष्टि जन्म मृत्यु, उत्पत्ति व समाप्ति की आवर्ति लीला है। शिवनृत्य इसी को इंगित करता है। आनन्द कुमारास्वामी इस बारे में कहते हैं
''ब्रह्रा की रात्रि में प्रकृति निश्चल रहती है। वह तब तक नृत्य नहीं कर सकती जब तक शिव जी की कृपा नहीं होती है। वह अपनी मौज में उठते हैं और उन के नृत्य से निश्चल प्रकृति में स्पंदन उत्पन्न होता है। तब सभी पदार्थ भी नृत्य करने लगते हैं। उन के नृत्य से इस की विविधता प्रकट होती है। इस नृत्य में ही समय पूरा होने पर वह सभी वस्तुओं को नष्ट कर देते है और उन्हें आराम देते हैं। यह कविता है पर यह विज्ञान भी है।
इस नृत्य में न केवल जन्म मरण की बात है वरन् इस बात को भी समझाया गया है कि मूर्ति में न केवल संतुलन दर्शाया गया है वरन् आकृति से गति का भी आभास होता है। इस को ध्यान से देखने पर विभिन्न मुद्राओं से विश्व की स्थिति का वर्णन किया गया है। दायें हाथ में डमरू है जो कि रचना के आदि शब्द को दर्शाता है। बायें हाथ में अगिन है जो विनाश को दर्शाता हैं दोनों हाथों का संतुलन रचना तथा विघटन के संतुलन की आकर्षक अभिव्यक्ति है। इस में नटराज के चेहरे पर जो शाँति के भाव दर्शाये जाते हैं उन से आकर्षण और भी बढ़ जाता है। इस में वह भौतिक संसार से ऊपर उठ जाते हैं। दाये नीचे के हाथ अभयदान मुद्रा में है। यह संदेश देता है कि जन्म मुत्यु की लीला से डरने की आवश्यकता नहीं है। सुरक्षा तथा शाँति का संदेश इन से मिलता है। बायाँ हाथ उठे हुए पैर की ओर इंगति करता है। इस से वह माया से मुक्ति का आश्वासन देते है। नटराज का दूसरा पैर एक राक्षस के शरीर पर हैं जिस से कामनाओं तथा अज्ञान पर विजय पाने की बात बताई गई है। जब मनुष्य इन पर विजय पा लेता है तभी उसे मुक्ति मिल सकती है।
दोनों पक्ष - दर्शन तथा विज्ञान - एक ही परिणाम पर पहुँचे हैं। यह संसार नित्य बनता बिगड़ता रहता है। न इस के आदि का पता है न अन्त का। आने और जाने में, जन्म तथा मृत्यु में एक संतुलन बना रहता है। विज्ञान के अति शक्तिशाली बब्बल चैम्बर भी वही जानकारी देते हैं जो हमारे ऋषियों ने अपने ध्यान में देखा है तथा हमारे तक अपनी कृतियों के माध्यम से पुहँचाई है। इसी की अभिव्यकित इस मध्यकालीन मूर्ति में की गई है। इस अंतरिक्ष नृत्य में प्राचीन दर्शन, मध्यम कालीन कला तथा आधुनिक विज्ञान का एक अत्यन्त सुन्दर संगम है। यह कविता है पर फिर भी विज्ञान है।
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