श्रद्धाँजलि
आज इकठ्ठे हुए हैं हम लोग देने श्रद्धाँजलि
उन्हें जिन्हें हम ने कभी देखा नहीं
जिन के बारे में हम ने कभी जाना नहीं
जब वह जि़ंदा थे तो मरे हुए से थे
मरने पर अब तो वह अमर हो गये
वक्त बढ़ता रहा इमारत बुलन्द होती ग ई
किसी की बदनसीबी पर हालत हमारी सुधरती रही
जेबें अपनी भरने से हमें कब फुरसत मिली
किसी के बारे में सोचने की बात टलती रही
पर अब जब हो ही गया हादसा
पीछे रहने का कोई अर्थ नहीं रहा
श्रद्धाँजलि भी एक बहाना है सुनाने का सुनने का
मिल कर वक्त को ज़ाया करने का सर धुनने का
करना नहीं चाहते पर बोल तो सकते हैं
ज़हर का असर कम न कर सकें ज़हर घोल तो सकते हैं
अपनी सियासत को हम यहाँ भी कैसे छोड़ सकते हैं
बन चुका है हमारी जि़ंदगी उस से कैसे मुँह मोड़ सकते हैं
(एक रेल हादसे में कुछ व्यक्तियों की मृत्यु पर। समय नामालूम)
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